मानव अधिकारों की रक्षा में मीडिया की भूमिका – डॉ. कमलिनी पाणिग्राही

भारत जैसे दो-तिहाई निरक्षर देश में मानव अधिकारों की रक्षा में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्रीय मानव अधिकारों की सर्वमान्य घोषणा की थी […]

बिहार के प्रमुख ऐतिहासिक स्थल और मीडिया – डॉ. सुशील कुमार

बिहार पर्यटन प्राचीन सभ्यता, धर्म, इतिहास और संस्कृति का अनुठा मेल है, जो भारत की पहचान है। यह राज्य भारत के कुछ महान सम्राज्यों जैसे मौर्य, गुप्त और पलस के […]

मीडिया में भारतीय जीवन मूल्यों का स्वरूप – डॉ. आशा रानी

समस्त सृष्टि की जिज्ञासा-जनित अनुभूतियों की तथ्यपरक और आदर्शोन्मुख – यथार्थ की अभिव्यक्ति जनसंचार की अनिर्वायता है। समकालीन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय गतिविधियों एवं विचारधाराओं को प्रतिबिम्बित और […]

संवाद का माध्यम और न्यू मीडिया – रोहित कुमार

इंटरनेट का एक हिस्सा हमारी ज़िन्दगी का बहुत बड़ा हिस्सा बन चुका है या बनता जा रहा है। इस हिस्से को सोशल साइट्स के नाम से जाना जाता है। फ़ेसबुक, […]

राष्ट्रवादी पत्रकारिता का दौर – राजीव प्रताप सिंह

भारत की अवधारणा एक ऐसे राष्ट्र की अवधारणा हैं जिसके लिए संघर्ष को निर्माण का आधार रूप में कभी स्वीकार नहीं किया गया. यहाँ आदि काल से ही चिंतन को […]

तर्क की प्रसुप्ति का दौर और नया मीडिया – गोपाल सुलेखा कैलाश झा

सोनू निगम ने १६ अप्रैल को तीन ट्विट किये जिनमें एक धर्म विशेष की प्रार्थना पद्धति पर सवाल था और सवाल भी समस्या की मुद्रा में था| ऐसा सवाल जो […]

सोशल मीडिया में उपभोक्तावादी संस्कृति और विज्ञापन – डॉ. हरदीप कौर

संस्कृति शब्द का सम्बन्ध संस्कार से है जिसका अर्थ है संशोधन करना, उत्तम बनाना, परिष्कार करना। संस्कार व्यक्ति के भी होते है, जाति के भी। जातीय संस्कारों को ही संस्कृति […]

और मुन्ना ने सुनी कहानी (कविता) – सुषमा सिंह

आज की भाग दौड़ भरे जीवन में माता पिता के पास बच्चों की भावनाओं को समझने का, उनकी बातें सुनने का समय ही नहीं है। दादा दादी दूर हो गए […]

मेरी पहचान (कविता) -अमर

मेरी पहचान रोते हुए दुनिया की दहलीज पे जब रखा पहला कदम, माँ की ख़ुशी का एक  अलग सा था  एहसास , एक अजीब  सी खामोशी का आलम छाया था हर चेहरे पे सोचो मुझे देखते ही क्यों हो गए हैं सब बेरहम मां कभी पिताजी के मायूस चेहरे को देखती, तो कभी देखती मेरी नन्ही सी मुस्कान, कभी खुद की किस्मत को कोसती तो कभी जानके सब बन जाती अनजान मैं समझ ही न पाया कि ये कैसा है इंसान जो एक नए मेहमान के आने से हो गए हैं सब परेशान तभी मेरी माँ जैसे दिखने वाले आ गए और इंसान और मुझे छीन के ले जाने को करने लगे घमासान माँ का रो रोके हो गया था तब बुरा हाल पिता जी को भी सूझ नही रहा था कोई समाधान अब समझने लगा मैं की यही है विधि का विधान माँ के पेट से पैदा नही हुआ था कोई इंसान मैं अब बड़ा हो चुका हूँ, पसंद है बस करना श्रंगार साडी, सूट, तालियों के बिना नही चल पाता मेरा संसार अब खोने को अपना मेरा कोई नही रहा इंसान बस याद आता है आज भी माँ का बलिदान अब सब ने दी मुझे एक नई पहचान सीता, रेखा, विमला नाम बहुत पर बुलाते हैं सब मुझे किन्नर हाँ चौकने की है ये बात जो अब समझ मे आयी जिंदगी भर दुनिया मे आने के लिए लड़ता रहा जो अब ये दुनिया ही है उसके लिए परायी मैं किन्नर हूँ पर मैं भी हुँ एक इंसान, दुनिया का ठुकराया हुआ पर,मेरे भी हैं कुछ अरमान, मुझे कुछ मत दो बस जीने दो भाई जान […]

आलोक मिश्रा की दो कविताएँ

तू सबला है तेरे आँचल से अमृत पीकर संसार पनपता खिलता है प्रेम त्याग उपनाम हैं तेरे गंगा सी शीतलता है कर पन्ना धाय को कोटि नमन अपनी शक्ति पहचान […]