केदारनाथ अग्रवाल की कविता सौन्दर्यबोध के संबंध में हिन्दी काव्य परम्परा में विशिष्ट प्रकार का प्रस्थानबिन्दु उपस्थित करती है। केदारनाथ अग्रवाल तथा अन्य प्रगतिशील कवियों की सौन्दर्य चेतना ने तो उसका आमूल ध्वंस ही कर दिया। जीवन के अनुभवों के सुकुमारता के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता, किन्तु केवल कोमल मधुर में ही सौन्दर्य का पार पाना बहुत बडी छायावादी भ्रान्ति थी। निराला और प्रगतिशील कवियों ने जीवन के खुरदरे सौन्दर्य के महत्व को कविताओं में अच्छी तरह से बिखेरा है। अभाव द्वन्द्व और संघर्ष को प्रगतिशील कवि त्याग नहीं सकते है, बल्कि जीवन के सामने लाने का उन्होंने भरसक प्रयास किया है।
केदारनाथ अग्रवाल निराला के समानधर्मा कवि होते हुए भी केन नदी के किनारे के पत्थर और गुलाबी मुरैठा बांधे ठिमने हरे चने के सौन्दर्य का बडा महत्व है और उनकी इस सौन्दर्य चेतना का विकास किसानों, मजदूरों की गन्दगी भरी जीवन को कविताओं के माध्यम से उभारने का प्रयास किया है। श्रम की आँच में तपी जिन्दगी का सौन्दर्यांकन भी किया है। इस संदर्भ में डा. कमला प्रसाद ने ‘हे मेरी
तुम‘ की समीक्षा करते हुए लिखा है कि, ‘‘केदारनाथ अग्रवाल की कविता का स्वभाव हिन्दुस्तान की काव्य परम्परा सेे जुडा हुआ है। परपंरा अर्थात् विचार, भावबोध, भाषा तथा बिम्ब आदि सबकी परम्पराओं से उसकी संगति है | उनकी कविता हृदय से निकलती है।”
प्रकृति सौन्दर्य : मानव चेतना की व्यापकता :
मनुष्य का प्रकृति से संबंध चिर काल से रहा है | प्रकृति को अपनी अनुभूति का विषय बनाने की क्षमता सिर्फ मनुष्य में है। मनुष्य प्रकृति सौन्दर्य को अपनी अनुभूति के द्वारा अपनी पृष्ठभूमि से जोड़कर देखता भी है। अतः मनुष्य प्रकृति के सौन्दर्य से प्रभावित होता आया है। मध्ययुग में वह प्रकृति से इतना विच्छन्न अवश्य हो गया था, जिसके कारण मानवेतर का चित्रण साहित्य में कम किया जाने लगा। प्रकृति चित्रण केवल काव्य रुढि बन कर रह गया। नगर जीवन में प्रत्यक्षतः प्रकृति से अलगाव दिखाई देता है। फिर भी मनुष्य और प्रकृति का संबंध टूट नहीं पाया हैं विज्ञान ने प्रकृति को समझने की नई दृष्टि दी है। साथ ही वैज्ञानिक प्रभाव के कारण इस संबंध के अर्थ और स्वरूप में भी पूर्वापेक्षा बदलाव आता जाता है।
प्रकृति मानव की चिर-सहचरी रही है। वह मानव जीवन की अनेकों आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। और उसकी आंतरिक अनुभूतियों को भी प्रभावित करती है। फलतः कवि काव्य सृजन करता है। तो वहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य अंकित हो जाता है। प्रकृति में मनुष्य को ही उसने अपना उपकरण बना लिया। आज का कवि प्रकृति-सौन्दर्य को नए दृष्टिकोण से देखने लगा है जिसके फलस्वरूप मनुष्य के रूप में उसके और प्रकृति के बीच नए धरातल पर एक नया संबंध बनता है। आधुनिक युग में कवि प्रकृति को मानवीय रूप में देखता है और चित्रित करता है। मानवीय सत्ता के बिना उसे प्रकृति में कोई सौन्दर्य नजर नहीं आता और न ही उसकी सार्थकता को ही वह मानता है।
प्रगतिशील कवियों ने प्रकृति को एक नए दृष्टिकोण से देखा है। उनकी निगाह प्रकृति को अछूते सौन्दर्य की ओर भी गई जिसका चित्रण उन्होंने सफलता पूर्वक किया है। प्रगतिशील कवियों ने प्रकृति का पूर्ववर्ती परम्परागत प्रकृति को जीवन के अभिन्न अंग के रूप में देखा और इसे उल्लासित करने वाली एक सत्ता के रूप में स्वीकार किया है। कवि को प्रकृति से जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है –
‘‘धूप-छाँह खयी हरियाली / विजय पताका लिए हाथ में,
फूलों और फलों की शोभा लिये साथ में,
प्रकृति-प्रमे से मतवाली है / यह हरियाली
मुझसे प्रिय है / यही मुझे करती है प्रमुदित
यही मुझे रखती है जीवित।‘‘
‘‘वृक्ष पडे के / पत्ते फिर-फिर / नये निकलते
नये – नये फिर सुख-दुख सहले / सहते – सहते
वृध्द पेड को जीवित रखते |”
प्रकृति का स्वरूप में परिवर्तन को हम प्रत्यक्षतः महसूस करते हैं, अर्थात प्रकृति का एक खास गुण उसकी नवीनता है। इसलिए मनुष्य का जीवन प्रभावित होता है। उतना ही नवीनता भी प्राप्त करता जाता है | प्रकृति से मनुष्य सौन्दर्य ही नहीं पाता, उससे सामाजिक सेवा भी लेता है –
‘‘आर-पार चौडे खेतों में / चारों ओर दिशाएँ घेरे
लाखों की अगणित संख्या में / ऊँचा गेंहू डटा खड़ा है
तकत से मुट्ठी बाँधे है / नोकील भाले ताने है,
हिम्मत वाली लाल फौज सा / मर मिटने को झमू रहा”
प्रकृति का स्वरूप् असीम अनंत विस्तार वाला है। संघर्ष और जिजीविषा से प्रकृति का कण-कण आंदोलित रहता है। जब हम प्रकृति के साथ होते हैं तो उसको अपना अंग मानते हैं। इस तरह प्रकृति ही हमारी शक्ति है।
‘‘कभी न टूटा / बना हुआ है पूर्ण, अनूठा
लिये हुए तस्वीर तुम्हारी- / और हमारी।“
जीवन से निराश होकर भी फिर से जीने की आस केदारनाथ अग्रवाल को प्रकृति से ही प्राप्त होती है और मिलती है नयी सौन्दर्य-संवेदना। तभी तो धुप को एक खरगोश मानकर कवि लिखते हैं –
‘‘धूप नहीं, यह / बैठा है खरगोश पलंग पर
डजला, / रोएँदार, मुलायम / इसको छूकर
ज्ञान को गया है जीने का / फिर से मुझको |”
इतना ही नहीं, पेड के पत्तो में भी उन्हें जीवन का सत्य दिखाई देता है। पेडों में जो पतझड आते हैं और हरियाली आती है, उसी प्रकार मनुष्य के जीवन में भी सुख-दुख आते हैं और अंत में वह भी मृत्यु का ग्रास बन जाता है। यह जीवन ज्ञान कवि को प्रकृति के संस्पर्श से मिला है –
‘‘पेड खडा / पत्ते गिरते हैं / गिरते पत्ते पडते रहते
उडते पत्ते / वृद्ध पडे के / अनुभव कहते
कहते पत्ते मिटते रहते |”
केदारनाथ की कविताओं में मानव निरपेक्ष प्रकृति का वर्णन बहुत ही कम हुआ है। यहां मानव-सापेक्ष प्रकृति ही बहुतायत में दिखाई देती है। यहां प्रकृति मानव का परिवेश है। कवि हमेशा प्रकृति को मानवीय संदर्भ देता है। प्रकृति की पृष्ठभूमि में वही, सही, व्यापक और उदात्त मानव चेतना की उपस्थिति पाता है। कवि ने धान, शशि-सूर्य, तरु, दिनकर जैसी रोजमर्रे की प्राकृतिक उपादानों के द्वारा जिस प्रकृति-सुलभ सहजता से उदात्त भावनाओं को अभिव्यक्त कर दिया है। वह
देखते ही बनता है। जो मनुष्य प्रकृति में जितना ही जुडा रहेगा वह संर्कीण स्वार्थाें से उतना ही अलग होगा | उसकी हार्दिकता व्यापक होगी | वही जीवन सौन्दर्य का ग्रहण वास्तविक खुलेपन से कर सकेगा | कवि प्रकृति को देखकर ही अपनी असफलता, मृत्यु, जय आदि भावनाओं पर विजय पाता है। प्रकृति में जैसे मौत नहीं होती वहाँ जीवन क्रम निरंतर जारी रहता है – वैसे ही कवि अपने अंत को पूरी उदारता से स्वीकृत करता है। यह सीख उसे प्रकृति से मिली है। रवीन्द्रनाथ ने उचित ही प्रकृति को शिक्षक की संज्ञा दी थी। चूँकि केदारनाथ की कविता के केंद्र में मनुष्य ही है, अतः उनके लिए मानव निरपेक्ष प्रकृति महत्व हीन है। उनकी कविता में मानव-चेतना की व्यापकता प्रकृति के विस्तार से एकमएक हो गई है।
केदारनाथ अपनी कविताओं में प्रकृति को सामाजिक विसंगतियों के विरोध के रूप में भी देखते हैं। प्रकृति में संकीर्ण स्वार्थता नहीं है। प्रकृति में मनुष्य की तरह बटवारा नहीं है। प्रकृति में मुक्ति है जबकि मनुष्य के समाज में तरह-तरह के बंधन है। यहां शोषण और उत्पीडन है | कवि को प्रकृति मानों मानव मुक्ति की प्रेरणा देती है –
‘‘खुल गया हूँ मैं / धूप में धान के खेत की तरह
हर्ष से हरा-भरा / भीतर-बाहर लहरा
मुझे देखता है / मेरा ही विरोधी व्यक्तित्व
लालची निगाहों से / काटकर ले जाने के लिए
हाट में बचे कर / पैसा कमाने के लिए।”
प्रकृति को प्रेरणादायी रूप में ग्रहण करने का कारण भी यही है कि, केदारनाथ अग्रवाल प्रकृति को जीवन से अभिन्न रूप में देखते हैं। इन्होंने प्रकृति का यह प्रेरक रूप उसके निरंतर साहचर्य से उपलब्ध किया है। इन्हें ‘केन’ नदी की धारा से गति की एवं खेत में उठो से अजेय, अमरण जीने वाले इंसान की प्रेरणा मिलती है। वह आम लोगों को यह संदेश देते हैं –
‘‘काटो कल की चट्टानों को, तोडे काटा
जल्दी-जल्दी वर्तमान की मोडो धारा
सूरज डूबा किन्तु उदय हो मानु तुम्हारा
गौरव से मंडित हो युग का सानु तुम्हारा।”
इस तरह प्राकृतिक विषय को कवि सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में औरों की तरह इस्तेमाल करता है। केदारनाथ की दृष्टि प्रकृति के स्थिर रूपों तक ही सीमित नहीं रही है बल्कि उन्होंने उसे गत्यात्मकता भी प्रदान की है | वस्तुतः उनकी कुशलता गत्यात्मक बिम्बों से संबंधित वर्णन में ही ज्यादा प्रकट होती है। ‘वसंती हवा’ शीर्षक कविता में वे हवा के गतिशील रूप के माध्यम से झुमती हुई प्रकृति का बडा स्वाभाविक चित्रण करते हैं –
“चढी पडे महुआ, थपाथप मचाया / गिरी धम्म से फिर
चढ़ी आम ऊपर / उसे भी झकोरा किया कान में कूँ
उतर कर अभी मैं हरे खेत पहुँची
वहाँ गेहूँआ में लहर खूब मारी, / पहर दो पहर क्या
अनेक पहर तक / इसी में रही मैं
खडी देख असली लिये शीश कलसी, मुझे खबू सूझी
हिलाया-‘झुलाया, गिरी पर न कलसी / इसी हार को पा
हिलायी न सरसों, झुलायी न सरसों / मजा आ गया तब
न सुध-बुध रही कुछ / बवंती नवेली भरे गात में पी
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ
हँसे लहलहाते हरे खेत सारे / हँसी चमचमाती भरी धपू त्यागी
बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी! / हवा हूँ, हवा में बसंती हवा हूँ।”
इस कविता में कवि ने अपनी भावनाओं को भी उन्मुक्तता से प्रकट किया है। जिसमें जीवन के संगीत का मस्ती भरा स्वर सुनाई देता है | मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को केदारनाथ ने अपनी प्रकृति संबंधी कविता के माध्यम से व्यस्त किया है। उदार प्रकृति मानव-जीवन को जिस तरह से उदात्तता प्रदान करती है। उसे केदारनाथ ने गहन आंतरिकता से महसूस किया है। अपने सामाजिक स्वभाव के कारण कवि प्रकृति के सौन्दर्य का आनंद अकेला नहीं ले सकता | वह इसमें अपने साथ-साथ जन-जीवन को मनुष्यता को समेट लेता है।
कभी-कभी जीवन में निराशा भी उपस्थित होती है, ठीक उसी तरह जैसे कभी-कभी प्राकृतिक परिवेश उदास और खोया – खोया दिखाई पडता है। मानव परिस्थितियों से प्राकृतिक परिवेश को जोडते हुए केदारनाथ निर्जीव, उदास हुए दिन को पेंशन प्राप्त हुए चपरासी के समान, जुए में हारे हुए जन के समान और अपने आप में खोए हुए गदहे के समान बताते हैं।” चूँकि केदारनाथ प्रगतिशील चेतना-सम्पन्न कवि हैं अतः उनके यहां निराशा स्थायी भाव नहीं है। उनकी आस्था संघर्ष में है, शोषण और उत्पीडन के विरुद्ध लडने जूझने में है। इसी से प्रकृति में उन्हें संघर्ष, उम्मीद, विजय और शांति के चित्र अधिक भाते हैं। केदारनाथ प्रकृति को न तो मानवेतर मानते हैं न मानवेपरि। वे मानव को प्रकृति की सर्वोत्कृष्ट कृति के रूप में देखते हैं। साथ ही वे यह भी पाते हैं कि मानव प्रकृति को अपने अनुकलू करने की क्षमता रखता है। वस्तुतः मानव और प्रकृति का द्वन्द्वात्मक साहचर्य भाव केदारनाथ के मार्क्सवादी मानववादी चिंतन के प्रभाव स्वरूप सामने आया है।
प्रकृति और मानव जीवन का संबंध बडा गहन और गहरा है। प्रकृति में मानवीय आदर्शों के लिए अब भी अमित उपमान भरे हुए है। केदारनाथ अग्रवाल प्रकृति को जन-जीवन के साथ जाडे ते हुए लिखते हैं –
‘‘छोटे हाथ / सवेरा होते / लाल कमल से खिल उठते हैं
करनी करने को उत्सुक हो / धूप हवा में हिल उठते हैं |”
श्रम और संघर्ष, जन-जीवन और प्रकृति दोनों में मिले-जुले रूप में है। किन्तु प्रकृति से जन-जीवन की विषमता भी कवि को स्पष्ट दिखायी देती है। जीवन की विषमताओं को अभिव्यक्त करने के लिए केदारनाथ प्रकृति और जीवन जीवन के बीच की गहरी खाई को भी रेखांकित करने से नहीं चूके हैं |
‘‘अपने लिए / जीने का अर्थ है / न जीना
जमीन, आस मान / आग, हवा, पानी / और प्रकाश से
स्नुप्रमाणित / न पशु होना / न आदमी होना
दिक्काल में / अपरिभाषित होना।”
केदारनाथ अग्रवाल की मूल-दृष्टि सामाजिक, यथार्थ की रही है। अतः गांव, शहर और प्रकृति के यथार्थपरक चित्रण के पीछे भी उनकी यही सामाजिक दृष्टि काम कर रही है। प्रकृति और सामाजिक दृष्टि से संपृक्त इनकी कविता स्वाभाविक रूप से मानवतावाद की व्यापक चेतना के प्रति घृणा और शोषित वर्ग से सहानुभूति की भावना दिखाई पडती है।
केदारनाथ की कविता में मनुष्य और प्रकृति का सहज संबंध दिखाई पडता है। वे मानते हैं कि वे ही कविताएँ अच्छी होती हैं, जिसमें प्रकृति का सौन्दर्य मनुष्य के जीवन से जुडा होता है। यानि मनुष्य बनाम प्रकृति को वे ज्यादा महत्व देते हैं –
‘‘हम मनुष्य और प्रकृति को जोड़ कर देखते हैं। मनुष्य के जीवन का विश्लेषण करते हैं और वहां से प्रकृति को भी देखते हैं । प्रकृति का सौन्दर्य अगर हमारे जीवन से जुड जाए और हम उसकी बात कहें तो कविता ज्यादा अच्छा लगेगी।” केदारनाथ प्रेम को मानवीय चेतना की परम उपलब्धि मानते हैं, जिसे प्राप्त कर आदमी मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है। इसीलिए इनका प्रमे प्रकृति से अत्यंत ही घनिष्ठ है। इस सिलसिले में आगे वे कहते हैं, मैं अभी भी पूर्ववत अपने देश की मिट्टी से, पेड – पौधों से, पशु-पक्षियों से, ऋतु परिवर्तन से, औरतों से और मानवीय कोमल के अनेक कर्तव्यों से दायित्व और अधिकारों से जुडा हुआ है। कुल मिलाकर केदारनाथ अग्रवाल प्रकृति से जीवन जीने की शक्ति प्राप्त करने वाले कवि हैं। ‘युग की गंगा’ संकलन में कवि ने गेहुं शीर्षक कविता में ‘लाल फौजी‘ के रूप में ऐसी ही पौरुष अभिव्यक्ति की है। प्रकृति केदारनाथ के काव्य की गति, ऊर्जा, उत्साह और जीवन शक्ति बनकर आती है। प्रकृति के कारण उनकी कविताओं को गहन मानवीय संस्पर्श मिलता है। इसी का एक रूप नारी-देह के आकर्षण, आलिंगन, उपभोग आदि में विकास पाता है।
इस प्रकार केदारनाथ अग्रवाल किसान-कवि के रूप में साहित्य में अपना स्थान बनाते हैं। इन्होंने प्रकृति के हर रंग – रूप को देखा है एवं व्यक्त किया है |