नारी किसी भी महाकाव्य का प्राण होती है।नारी के बिना काव्य के सभी रस श्रृंगार ,वीर ,वात्सल्य रसहीन होकर रह जाते है।अपने प्राकृतिक गुणों के कारण नारी सदा से ही पुरुष को अपनी ओर आकर्षित करती रही है और पुरुष भी उसके इन दैविय गुणों के समक्ष नत मस्तक होता रहा है। अतः नारी की संकल्पना के बिना कोइ भी काव्य अधूरा होता है।किसी भी महाकाव्य के नारी पात्रों की चर्चा करने से पूर्व ,कवि की नारी भावना को समझने से से पहले हमें नारी के स्वरुप को समझना होगा ।
नारी का स्वरूप –
मानव समाज स्त्री पुरुषों के समुदाय का व्यवस्थित रूप है। स्त्री तथा पुरुष का पारस्परिक आकर्षण ही सृष्टि को आगे बढ़ाता है। नर और मादा का यह तत्त्व केवल मनुष्य जाति तक ही सीमित नहीं है वरन् पशु-पक्षियों तथा पेड़-पौधेां में भी ये दोनों तत्त्व अनादि काल से प्राप्त होते हैं। ऐसे नारी तत्त्व का चरमोन्नत विकसित एवं परिष्कृत रूप मनुष्य समाज में ही प्राप्त होता है। नारी के स्वरूप का संबंध जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से होता है। अतः नारी के स्वरूप का वर्णन करने से पहले नारी शब्द के अर्थ को समझना आवश्यक है-
नारी: नारी शब्द ‘नृ’ अथवा ‘नर’ से बना है। यास्क ने शब्द का उद्भव नृत ‘नाचना’ से बताया है। ‘नराः नृत्यन्ति कर्मसु’ अर्थात् काम की पूर्ति के लिए मनुष्य हाथ पैर नचाता है। इसी कारण स्त्री को ‘नारी’ कहते हैं। ऋग्वेद में ‘नृ’ का प्रयोग वीरता का कार्य करना, दान देना तथा नेतृत्व करने के अर्थों में हुआ है। विद्वान डेलवृक केमतानुसार ‘नारी’ शब्द वैवाहिक संबंध का ही नहीं अपितु मनुष्य के लैंगिक सहयोगी के रूप में ‘स्त्री’ को व्यक्त करता है। यह शब्द तैत्तरीय, आरण्यक, शतपथ एवं ऐतरेय ब्राह्मण में भी प्राप्त होता है।
नारी शब्द के विभिन्न पर्यायवाची शब्द मिलते है नारी के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले प्रमुख पर्यायवाची शब्द हैं,
स्त्री – वैदिक साहित्य में ‘स्त्री’ शब्द नारी के लिए सबसे अधिक प्रयुक्त हुआ है। पाली तथा प्राकृत काल में भी ‘स्त्री’ शब्द का प्रयोग मिलता है ‘स्त्री’ की व्युत्पत्ति के विषय में निरुक्तकार का मत है कि स्त्री शब्द ‘स्त्यै’ धातु से बना है। यास्क केअनुसार ‘स्त्यै’ का अर्थ लज्जा से सिकुड़ना है – स्त्रियाः स्त्यायतेः अपत्राण कर्मणः तथा स्त्यातः शुक्रे शोणिते अस्याम् सा स्त्री। ‘पाणिनी के धातु पाठ में ‘स्त्यै’ का अर्थ लजाना नहीं मिलता। धातु पाठ के अनुसार स्त्यै शब्द का अर्थ है, शब्द करना तथा इकटठा करना’ ।
नारी सेवा करती है और सेवा कराती है इस कारण नारी को ‘योषित’ कहा गया है। ‘जोषा’ शब्द से इसलिए पुकारा जाता है क्योंकि उसमें प्रीति और सेवा करने की भावना रहती है। ‘अबला’ शब्द नारी का पर्यायवाची इसलिए बना क्योंकि वह शारीरिक बल में पुरुषों से न्यून होती है। नारी अपने केशों का विशेष विन्यास करती है, इसी कारण वह ‘सीमंतिनी’ भी कहलाती है। विवाह करने योग्य ‘वधू’ कहलाती है।
नारी को ‘वामा’ इस कारण कहते है कि वह प्रतिकूल बात करती है – जैसे हाँ के बदले ना, साथ ही वह सौंदर्य को बिखेरती है। ;नयाति सौंदर्य इति वामाद्ध और स्नेह का वमन करती है ;वमति स्नेह इति वामाद्ध देवी पुराण एवं कलिका पुराण में कई स्थानों पर यह शब्द उपलब्ध होता है, जिसमें राग उत्पन्न हो वह ‘कविता’ कहलाती है। पति के सम्मान करने के कारण वह ‘महिला’ नाम से संबोधित करने योग्य है। पूज्य होने के कारण ही स्त्री का नाम महिला पड़़ा। स्त्री का एक पर्यायवाची ‘मानिनी’ भी है क्योंकि स्त्री को मान करना अत्यधिक प्रिय होता है। इतना ही नहीं वह स्वाभिमान से ही परिपूर्ण होती है। अपने सौंदर्य से मनुष्यों को भाव विभोर कर उनके हृदय को द्रवीभूत करने के कारण ‘सुंदरी’ कहलायी।
पुरुष का शरीर तब तक पूर्ण नहीं है जब तक नारी उसके अर्द्ध अंग को संपूर्ण नहीं बनाती है इसलिए नारी को ‘अद्र्धांगिनी’ कहा गया है। नारी की अनुपस्थिति में सभी धार्मिक अनुष्ठान अधूरे रहते है अतः वह ‘सहधर्मिणी’ कहलायी।
देश, काल व गुणों के कारण नारी के स्वरूप को विभिन्न नाम दिये गये परंतु उपरोक्त सभी शब्दों का विवेचन करने पर यह स्पष्ट हो गया है कि इनमें से कोई भी पर्याय नारी के व्यक्तित्व को पूर्णतः अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं है।
शैल कुमारी ने नारी को कुछ इस प्रकार परिभाषित किया है-‘निराशा के समय पर नारी आशा और उत्साह का संदेश लेकर पुरुष के सम्मुख उपस्थित होती हैऔर जीवन जलनिधि से बहुमूल्य मुक्ता निकालने का प्रयत्न करती है,वह गंगा के समान पवित्र है।जहाॅ उसका प्रवाह है, वहीं तृप्ति है उसी के तट पर तीर्थ है । उसके पावन ,सरल ,स्नेह मे स्नान करने के पश्चात ज्ञान, ध्यान, पूजा, सेवा, व्रत, जप, तप, दानादि की आवश्यकता नहीं रहती वह पतित पावनी है।’
नारी के विविध रूप
नारी अपने जीवन की प्रत्येक अवस्था में एक नए रूप का निर्वाह करती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक वह दूसरों के लिए समर्पित रहती है। नारी जहाँ सृष्टि प्रदायिनी के रूप में जन्मदात्राी बनकर अनन्त शक्ति का रूप है। वह पुरुष को केवल जन्म ही नहीं देती है वरन् उसके संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास कर उसे महापुरुष बनने के लिए प्रेरित करती है। अतः सृष्टि प्रदायिनी के रूप में नारी का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा गौरवशाली है।
महाशक्ति के रूप में नारी में शासन शक्ति, संरक्षण शक्ति, कार्यशक्ति, उत्पादिनी शक्ति आदि सभी शक्तियाँ विद्यमान हैं। समाज में नारी जहाँ देवी के स्थान पर सुशोभित अलौकिक गुणों से संपन्न है, वहाँ परिवार में जीवन की महत्त्वपूर्ण भूमिकाएॅ कन्या, पत्नी व माता के रूप में निभाती है।
कन्या रूप में
किसी भी परिवार में ;विशेषकर हिंदू परिवार में कन्या का विशिष्ट स्थान होता है। कन्या पूरे परिवार के वात्सल्य और दुलार का केंद्र होती है। बालकपन से ही अपने प्रेम व सेवा भाव से वह सबको मोह लेती है। माता-पिता के विशेष गुणों को गृहीत कर जब कन्या घर से विदा होती है तो वह दृश्य अत्यंत र्मािर्मक होता है। स्वयं को कठोर कह लाने वाले पुरुष भी ऐसे समय में संयम को भूला कर दयनीय बन जाते है। कन्या वियोग के अवसर पर महर्षि कण्व जैसे विरक्त भी विषादग्रस्त हो गए थे। अतः परिवार में कन्या एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
पत्नी के रूप में
भारतीय संस्कृति के अनुसार नारी के अभाव में पुरुष अपूर्ण रहता है। पत्नी द्वारा उसके अद्र्धांग की पूर्ति होती है। भारतीय समाज में पत्नी को अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। वह केवल भोग की वस्तु न होकर सुख-दुख में परामर्शदात्राी, अपने विवेक से उँच-नीच ज्ञान, कत्र्तव्य आदि को निश्चित करने वाली, पुरुष की सहचरी होती है। गृहणी के रूप में वह गृहस्वामिनी, घर का संचालन करने वाली होती है। पति के साथ सभी धार्मिक कार्यों, यज्ञों में भाग लेती है। वेदकालीन सभ्यता में नारी का पत्नी रूप गरिमामय था। युग की समस्याओं, सामाजिक जटिलताओं से उसका गौरव-न्यून हो गया ¯कितु महाभारत तथा रामायण कालीन स्त्री पत्नी के रूप में अक्षय मर्यादापूर्ण एवं गरिमामय दृष्टिगत होती है।¯कितु महाभारत तथा रामायण कालीन स्त्री पत्नी के रूप में अक्षय मर्यादापूर्ण एवं गरिमामय दृष्टिगत होती है।
माता के रूप में
ममता की मंदाकिनी, स्नेह की अक्षय राशि, दया और वात्सल्य की प्रतीक, त्याग और तपस्या की साकार प्रतिमा माता सदा से ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की श्रद्धा की आदर पात्र रही है। नारी का मातृ रूप भारतीय संस्कृति में अत्यंत सम्मानीय होता है। वीर माता के स्तन का पान कर पुत्र अभेद्य बन जाता है। माता के रूप में स्त्री केवल जन्मदात्राी न होकर, पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करने वाली होती है। अपनी साधना के द्वारा ही वह विश्व के सम्मुख आदर्श संतान रखती है। नारी केवल संतान की ही जननी न होकर राष्ट्र व सभ्यता की जननी भी होती है। अतः नारी का माता रूप सदा ही अभिनंदनीय रहा है। युग के प्रवाह कालचक्र में नारी का गौरव परिस्थितियों की शिलाओं से टकराकर बिखर गया। अनादर और उपेक्षा के मध्य पलती हुई अपकर्ष के गर्त में पड़ी हुई नारी के जीवन में भी मातृत्व का गौरव अक्षय रहा है।
अतः भारतीय नारी के सभी रूपों में एक सात्विकता, सौम्यता तथा दिव्यता हैा ंजो समाज के शिरोभाग को विभूषित करती है और इस स्थान को प्राप्त करने के लिए उसे कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा वरन् अपने प्रकृति प्रदत्त गुणों की सहज अभिव्यक्ति के द्वारा उसे स्वतः ही प्राप्त हो गये
नारी के स्वरुप को समझने के पश्चात यह स्पष्ट है कि नारी के स्वरुप की व्याख्या केवल उसके कुछ गुणों को आधार बनाकर की गई है ।नारी के ओजस्वी रुप ,पुरुष के लिए शक्ति स्वरुपा ,शत्रुओं से रण में लोहा लेती हुई नारी के रुप की पूर्णतः अनदेखी की गई है।
तुलसी के मानस की नारी
नारी के इन सभी रुपो के परिप्रेक्ष्य में हम मानस के नारी भावना की चर्चा करेंगे जो कि सदा से ही आक्षेपो से घिरी रही है।
तुलसी के नारी पात्रो में माता के स्वरुप केा बहुत अधिक प्रतिष्ठा मिली है माता के रुप में सभी स्त्रियां पूजनीय हैं।मानस मे राम वन गमन के समय कौशल्या कहती हैं कि पिता का आदेश पालन महत्वपूर्ण है माता का उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि माता का स्थान पिता से भी बडा है परंतु यदि पिता का आदेश है और उसमें माता कि स्वीकृति होतो उस आदेश का पालन बहुत ही तत्परता और उल्लास के साथ करना चाहिए ।
कैकयी के बिना माता का चरित्र विश्लेषण अधूरा है‘कैकयी के चरित्र -चित्रण में तुलसी ने न्याय पूर्ण दृष्टि रखी है।’कैकयी का प्रेम चारो पुत्रो के प्रति इतना अगाध था कि देव प्रेरित शारदा का वश भी उस पर नहीं चला।मंथरा के फुसलाने पर कैकयी का आदर्श छटपटाने लगा।मंथरा ने नारी के यर्थाथ हृदय का स्पशर््ा किया ंप्रेम की प्रतियोगिता में नारी अपने उग्र रुप में रहती है,मंथरा ने भी कैकयी की इसी भावना को प्रज्ज्वलित किया और अस्तित्व की रक्षा के लिए पुत्र का राज्याभिषेक कराने की सलाह दी । जिसके कारण राम को वन जाना पडा इतना होने पर भी राम के मन में कैकयी के प्रति कोइ कडवाहट नहीं है वरन ्वे सदा ही उन्हे पूजनीय मानते हैं।
‘कैकयी को ग्लानि थी और अपने व्यवहार पर पश्चाताप था,विशेषकर इसलिए भी क्योंकि राम के मन में उनके प्रति कोइ कडवाहट नही ंथी ।यदि राम के मन में विरोध होता तो कैकयी का हठी मन ग्लानि से न भर जाता ।’
अतः तुलसी की नारी माता के रुप में सदा पूजनीय हैं ,माता के परिपेक्ष्य मे तुलसी की नारी भावना सदैव संग्रहणीय है।
कन्या के रुप में यदि हम तुलसी की नारी को देखते हैं तेा वे माता -पिता के लाड प्यार में पली सभी प्रकार की सुख -सुविधाओं से संपन्न है। यही नही शिक्षा और यु़द्ध संचालन जैसे कार्यो को सीखने पर भी कोइ रोक -टोक नहीं थी । वे अपनी इच्छा नुसार कोइ भी क्षेत्र चुन सकती थी । वे गृह की धुरी के समान सबसे जुडी हुइ थीं।
विवाह के लिए उन्हें पूर्णतः पिता की इच्छानुसार चलना पडता था।स्वंयवर की प्रथा तो थी परंतु उसके नियम पिता ही निश्चित करते थे।कन्या को उसी के अनुसार वर ग्रहण करना पडता था।
अतः विवाह से पूर्व कन्या को अपने माता -पिता की आज्ञानुसार चलना पडता था।
पत्नी के रुप में भी तुलसी की नारी को कई अधिकार प्राप्त हैे इतना ही नहीं यदि पति कुमार्ग पर चलता है तो वे उसे सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी देती है। पर नारी के प्रति कामासक्ति की निंदा करके उससे बचने तथा भव -भीति से छुटकारा पाने के लिए राम की अेेार बढने तथा ज्ञान -विराग पूर्ण भक्ति की ओर बढने की प्रेरणा देती मंदोदरी तामसी ,पर स्त्री कामी पति को फटकारती है । वहीं तारा अनुज वधू को भोगने वाले पति को समझाती है।
पत्नी के रुप में सीता पति के साथ वन गमन को जाती है। पति पूर्णतः उन पर अनुरक्त है तथा एक पत्नी विवाह में विश्वास रखने वाले हैं।वे स्वयं निर्णय लेने की अधिकारिणी है और उनके इस निर्णय का सम्मान करते हुए राम उन्हे अपने साथ वन मे ले जाते हैं।
राक्षस नारियो का चरित्र -चित्रण भी तुलसी ने बहुत ही भव्यता के साथ किया है।मंदोदरी और तारा की भव्यता और उच्च आदर्श उपेक्षा की वस्तु नहीं हैं।इनके अतिरिक्त लंकिनी का चरित्र भी उच्च है। पुरुष पतिति होकर राक्षस बन सकता है पर नारी राक्षसी नहीं हो सकती ।उसके गुण उसे गिरने नहीं देते हैं,फिर भी उसे ही अग्नि परीक्षा से गुजरना पडता है। यहाॅ तक की परित्याग का दंश भी झेलना पडता है।
मानस मे नारी के लगभग सभी वर्गो को प्रतिनिधित्व मिला है गार्गी की परंपरा मेंअनुसूया दीखती है।अधम नारियों का प्रतिनिधित्व शबरी करती है मंद मति मंथरा हैयर्थाथ नारी कैकयी है,दिव्य आदर्शो से युक्त सीता है।पार्वति और सती हैं,राक्षस नारियां भी हैें,ग्राम वधूओं की छटा भी अनुपम है। अतःतुलसी ने सभी वर्गों की नारियों के व्यक्तित्व को उजागर किया है।
परंतु नारी के प्रति उनकी अनेको ऐसी उक्तियां हैं जिन्हे ग्रहणीय नहीं माना जा सकता विशेषकर इस नवीन युग में। सीता पर एक से बढकर एक आदर्शो को थोपा गया है।जो कहीं न कहीं अस्वाभिक भी लगता इतने गुणों से संपन्न नारी सदैव मूक रहकर अन्याय क्यों सहती रही ।गर्भावस्था में वनों में भटकते हुए अकेले सब वैभवो से दूर तपस्विनी का जीवन बिताती हुइ वह अपने दोनो पुत्रो का पालन करती है फिर भी वह अंत में पुत्रो को पिता को सौंप ऐसे चली गइ जैसे पुत्रो पर उसका कोइ अधिकार ही नहींथा्र।सीता के ओजस्वी रुप को कहीं भी नहीं दर्शाया गया है,राम के समक्ष उनके व्यक्तित्व को श्रीण कर दिया गया है।पत्नियों को केवल पति का अनुगामी बनकर चलने के उपदेश ही दिये गये है।
नारी का अपना भी अस्तित्व है यह बात कहीं भी लक्षित नहीं होती है।पिता की इच्छानुसार उसे विवाह करना पडता है तथा पति की इच्छानुसार चलना पडता है। पति कितना ही गलत व्यवहार क्येा न करे फिर भी उसे प्रतिकार नहीं करना चाहिए ,अपने अधिकारो को छोड उसे केवल भूगर्भ में समा जाना चाहिए।