हर दिन कुछ मिनट बड़ा बदलाव ला सकते हैं। सामान्यतः लोगों के लिए अपने दिन से समय निकालना मुश्किल होता है लेकिन हमें इस तरह की अनावश्यक बहानों से बचना चाहिए। इस धरती पर जन्म लेने वाले सभी का उद्देश्य सेवा करना है। हमारे अस्तित्व की वास्तविकता को जानने के लिए और अपनी आंतरिक शक्ति का पता लगाने के लिए हमें दूसरों के प्रति नहीं बल्कि अपने लिए ध्यान करने की जरूरत है। ध्यान एक सरल अभ्यास है जो तनाव को कम करता है, शांति बढ़ाता है स्पष्टता, खुशी और सकारात्मकता देता है।
ध्यान का स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है जो जागरूकता और इंद्रियों की उन्नति को प्रोत्साहित करता है। हजारों वर्षों से दुनिया भर की धर्म संस्कृतियों में ध्यान का प्रचलन है, जिसमें बोद्ध धर्म, हिंदु धर्म, ईसाई धर्म यहूदी धर्म शामिल हैं। ध्यान में आप अपना सारा ध्यान किसी विशिष्ट वस्तु पर केंद्रित करते हैं, चाहे वह अपनी सांस, किसी विशिष्ट शब्द या मंत्र हों, ताकि आप उच्च मानसिक अवस्था में पहुंच सकें। शोधों से ज्ञात है कि ध्यान के सकारात्मक शारीरिक प्रभाव हो सकते हैं, जैसे – आत्मा-जागरूकता में वृद्धि, चिंता विकार, अवसाद, नींद की बीमारी और उच्च रक्तचाप, स्मृति में सुधार आदि।
ध्यान क्या है?
ध्यान एक साधना है इस साधना को कैसे कर सकते हैं इस बारे में सबकी राय अलग-अलग होती है, ध्यान हमारी चिंताओं, असफलताओं, अवसाद, गुस्सा कुंठाओं और निराशाओं को नियत्रिंत करने का एक मात्र उपाय है। ध्यान एक आध्यात्मिक क्रिया है क्योंकि यह हमें धर्म से भी जोड़ती है। अब धर्म क्या है अर्थात जिसे धारण किया जा सके अपने सतकर्म, सद्विचार, सद्भावनाओं को और मन की इन्द्रीयों को नियत्रिंत करके सेवा भाव करें क्योंकि गीता, कुरान वाइविल में सबमें धर्म का सार एक ही है कि मनुष्य से प्रेम करें, ईश्या लोभ लालच, दुर्भावना किसी के प्रति न रखें जो तुम्हें पतन की ओर ले जाए। किन्तु ऐसा संभव नहीं होता क्योंकि मन चंचल होता है। हमेशा कल्पना की दुनिया में खोता रहता है। भगवत् गीता के छठें अध्याय में भी श्री कृष्ण मन या चित चलाए मान है जो एक ही पल में एक स्थान पर रहता है और दूसरे पल ही कोसो दूर चला जाता है। मन घोड़े की भांति भागता रहता है। अपने दिल और दिमाग के विचारों के बिखराओं को रोककर एक तरफ करना और सपनों की दुनिया से बाहर निकलकर यथार्थ में रहना, उस मन को देखने की प्रक्रिया स्थिर रखना ही ध्यान है। मनुष्य अपने मन के विकारों को दूर करने के लिए पूजा-अर्चना, दान, सतसंग, कीर्तन इत्यादि करता है कि मन को शांति मिले, पर जब मन अत्यंत विचलित होता है तो धार्मिक स्थानों तीर्थ यात्राओं पर जाते हैं जिससे मन की इन्द्रियों को वश में कर सके। धर्म के नाम पर भगवान को रूपये-पैस चढ़ावा चढ़ाते हैं। लेकिन किसी जरूरतमंद की सहायता नहीं करते। क्या भगवान आपके चढ़ावे से खुश हो सकते हैं? कभी भी नहीं क्योंकि भगवान तो सिर्फ भाव का भूखा होता है। धर्म भी यही सिखाता है कि अच्छे कर्म करो, सत्य के मार्ग पर चलो किसी के प्रति गलत भावना न रखो जैसे वृक्ष के नीचे पानी डालने से सबसे ऊँचे पत्ते पर भी पानी पहुँच जाता है उसी प्रकार प्रेम-पूर्वक किए गए कर्म भी भगवान तक पहुँच जाते हैं। प्रार्थना की बजाय प्यार से हमसब के लिए एक जैसा भाव रखें और खुशी-खुशी बिना किसी फल की इच्छा किये बिना सेवा भाव करें तो हम परमात्मा के निकट पहुँच जाते हैं। निःस्वार्थ सेवा भाव करनी चाहिए पर अपने अंदर सद्भावना लाने के लिए ध्यान बहुत मदद करती है क्योंकि हम ध्यान से अपनी सोच और विचारों को संतुलित कर सकते हैं। जो सांइटिस्ट होते हैं वो जो रिसर्च करते हैं वो भी ध्यान का ही एक अंग है क्योकि एकाग्रिचित होकर ही मनुष्य अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर अग्रसर होते हैं। अपने दिल और दिमाग को सिर्फ शोध पर ही केन्द्रित रखते हैं और उन्हें अपनी रिसर्च के सिवा कुछ नहीं सूझता। ध्यान से ही हम अपने मन या चित्त को शांत करते हैं जिससे सोचने समझने की शक्ति बढ़ती है। नकारात्मक ऊर्जा को दूर करके ही सकारात्मक ऊर्जा आती है। आजकल सबसे बड़ी परेशानी नींद न आना, रातों को जागना, अवसाद जैसी बीमारी होती है क्योंकि दिमाग चलता रहता है। असंख्य विचार आते-जाते रहते हैं। कल्पना की दुनिया में जीते रहते हैं। यर्थाथ में नहीं जीते ध्यान में हम सांसो को अपने अंदर लेने और बाहर छोड़ने की क्रिया के जरिये मन को स्थिर करने का प्रयास करते हैं। ध्यान में पहले हम सांसो को ही केन्द्रित करने को क्यों कहते है कभी सोचा है आपने यदि हम सांस ही नहीं लेंगे तो हम प्राणहीन हो जाएंगे क्योंकि ये शरीर ही सांसो पर ही टिका हुआ है। जब हम सांस लेते और छोड़ते हैं वो हमें एहसास कराता है कि तुम जिन्दा हो अभी तुम्हारा जीवन चल रहा है। यदि सांस लेना ही बंद हो जाएगा तो शरीर ही निष्क्रिय हो जाएगा। हमारा जीवन समाप्त हो जाएगा। इसलिए जब हम सांस को अपने अंदर खींचते हैं तो हम अपने अंदर साकारात्मक ऊर्जा को आने देते हैं | जब हम सांस को बाहर छोड़ते हैं तो नकारात्मक ऊर्जा को बाहर फेंकते हैं। ये सोचकर ही इस ध्यान को किया जाता है। एक बार में ध्यान नहीं हो सकता क्योंकि कहावत है कि करत-करत अभ्यास के, जड़मत होत सुजान। अर्थात बार-बार अभ्यास करने से ही आप अपने जीवन में कुछ भी पा सकते हैं अन्यथा कुछ भी नहीं। ध्यान शब्द को महसूस करके एक सुखद आनन्द की अनुभूति होती है जैसे भूखे को भोजन और प्यासे को पानी मिल जाए। ऐसा ही आनन्द, और सुख ध्यान करने से मिलता है। इस शब्द में इतनी ताकत है कि हम भगवान से भी जुड़ सकते हैं। बड़े-बड़े ऋषि मुनि, धर्मात्मा, ज्ञानी इन्होंने जो भी पाया, ध्यान के द्वारा ही पाया है। क्योंकि ध्यान के जरिए इन्होंने अपनी सारी इंद्रियो को वश में कर लिया। जब हम परमात्मा से जुड़ते हैं तब हम गलत कार्य, गलत सोच ही नहीं सकते। एक बार किसी ने गुरू से पूछा कि हम भगवान के आगे सर क्यों झुकाते हैं। तब गुरू ने कहा हमारी सारी तकलीफें, दर्द, चिंता हमारे दिमाग में रहती हैं। जब हम सर झुकाते हैं, तब सारी तकलीफे, चिंताए भगवान के चरणों में गिर जाती है और भगवान हमें तकलीफों से मुक्त कर देते हैं अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि हमें रोज ध्यान को अपनी दैनिक दिनचर्या में शामिल करना चाहिए। जरूरी नहीं कि ध्यान एकांत में आखें बंद करके बैठ कर करो। आप कहीं भी किसी भी जगह पर 5 या 10 मिनट अपनी सांसो पर केन्द्रित करो और अपने अंदर की ताकत, अपनी आत्मा को आवाज को सुनो क्योंकि यह एक साधना है, जो सिर्फ ध्यान के द्वारा ही कर सकते हैं। जीवन को सारी परेशानियों से लड़ने की ताकत मिली है। कहते हैं कि जिंदगी में जीत और हार हमारी सोच बनाती है जो मान लेता है वो हार जाता है। जो ठान लेता है वो जीत जाता है। अपनी अंतर आत्मा को देखो और धर्म के मार्ग पर चलो।