अपनी चेतना को अभिव्यक्त करने व अपने विचारों से दूसरों को अवगत कराने तथा दूसरे की राय व भावनाओं को जानने का माध्यम है भाषा। संप्रेषण व विचार-विनिमय का सशक्त सेतु है भाषा। कहते हैं, भाषा का मनुष्य के साथ वही संबंध है, जो माँ का अपने बच्चों के साथ। मनुष्य की सबसे बड़ी पहचान, इयत्ता व निधि उसकी भाषा होती है। भाषा मेरे लिए महज अभिव्यक्ति का ज़रिया नहीं है, यह उससे बहुत ऊपर की चीज़ है, इसको बरतना होता है, यह चेतना के स्तर पर हमारी सबसे बड़ी संवेदनात्मक निधि है।
प्रख्यात आलोचक डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने चर्चित निबंध “हिंदी का भविष्य” में लिखते हैं, “यदि हिंदी के विकास में अंग्रेजी का व्यवधान न हुआ होता, तो हिंदी इस देश की जनभावना को जिस रूप में प्रकट कर रही थी, उसका आशय कुछ और होता” और इसके भविष्य के प्रति आश्वस्त होते हुए उन्होंने इसकी सहज ग्राह्यता व भावप्रवणता को संजीवनी के रूप में रेखांकित किया है। आज अंग्रेजों के जाने व अंग्रेजी के रहने के बावजूद हिंदी की परिकल्पना विश्वभाषा के रूप में की जा सकती है।
बढ़ती भाषाई संकीर्णता व उन्माद के दौर में हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारतवर्ष एक बहुभाषाई देश है और यहाँ हरेक भाषा को अपनी महक बिखेरने का हक़ है। यह देश एक बगीचा है और माली वही अच्छा माना जाता है, जिसके उपवन में विविध सुमन खिलते हैं। इस भाषाई गुलशन में हर भाषा को लोगों के दिलों और ज़बान पर राज करने का अधिकार है। भाषाओं का पारस्परिक अंतर्विरोध नहीं होता। हाँ, हर राष्ट्र की अपनी कोई एक भाषा होती है, जिसमें उसकी पहचान अंतर्निहित होती है। राष्ट्रभाषा राष्ट्र की आत्मा की झाँकी प्रस्तुत करती है। हाँ, इसके स्वरूप में ज़रूर बदलाव आ रहा है। राष्ट्रकवि दिनकर नीलकुसुम में कहते हैं :
झाँकी उस नयी परिधि की, जो दिख रही कुछ थोड़ी-सी / क्षितिजों के पास पड़ी, पतली चमचम सोने की डोरी-सी।
छिलके हटते जा रहे, नया अंकुर मुख दिखलाने को है / यह जीर्ण तनोवा सिमट रहा, आकाश नया आने को है।
भारतीय संविधान की धारा 343 के प्रावधान में हिंदी को राजभाषा की मान्यता दी गयी है। मुगलकाल में राजभाषा के रूप में अरबी और फारसी को मान्यता प्राप्त थी। अंग्रेजों के जाने के बाद भी भारतीय संविधान में 15 वर्ष के लिए अंग्रेजी को साथ रखते हुए हिंदी के राजभाषा स्वरूप को विकसित करने का अध्यादेश जारी किया गया। यह एक ऐसी भाषा रही है जिसको कभी राजदरबार के अधीन रहने की विवशता से दो-चार नहीं होना पड़ा। तुलसीदास ने दरबारी कवि बनने का अकबर का प्रस्ताव ये कहते हुए ठुकरा दिया था –
तुलसी चाकर रघुनाथ के पढ़ौं-लिखौं दरबार
तुलसी अब का होइहें नरके मनसबदार।
भाषाओं की अंतरराष्ट्रीय यात्रा में अपने हज़ार वर्ष से ऊपर के अनुभव से लोगों के विचारों को अनुप्राणित कर रही हिंदी को अभी और आयाम छूने हैं। यह चीनी व अंग्रेजी के बाद विश्व की सबसे ज़्यादा बोली, समझी और लिखी जाने वाली भाषा है। आज विदेश के कई विश्वविद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई हो रही है। रूसी बरान्निकोव से लेकर बेल्जियम के फादर कामिल बुल्के तक ने इसके मूल को बख़ूबी सींचने का काम किया। यह भाषा लोक जीवन की आम अनुभूति व सहज अभिव्यक्ति को धारण करती हुई मनुष्य की आंतरिक चेतना संपोषित, सुरक्षित और सार्थक करती रही है। जब भाषाविदों द्वारा किसी एक भाषा को मानक के रूप में देखा गया तो हिंदी कम्प्यूटर की, ज्ञान-विज्ञान की और संचार की सबसे सहज भाषा के रूप में सामने आयी। दरअसल, जो लोग “मम्मी जाता है, पापा आती है” के स्तर की हिंदी बोलते हैं और रोज़ाना भाषा का शील भंग करते हैं, वही लोग आज हिंदी को अक्षम बताने का षड्यंत्र कर रहे हैं। लैंगिक विषमता दूर करने का मतलब ये तो नहीं कि भाषाई लिंग-बोध ही गायब हो जाये। ऐसे लोग ख़ुद तो कोई योगदान करना नहीं चाहते, हाँ, डॉ. रघुवीर द्वारा श्रमपूर्वक बनाये गये पारिभाषिक शब्दावली के कोश पर संस्कृतनिष्ठ होने का इल्ज़ाम लगाकर पानी पी-पीकर उन्हें कोसते ज़रूर हैं। लिंग, वचन, पुरुष आदि के मामले में जो स्वतंत्रता हम हिंदी से लेते हैं और दुस्साहस करते हैं कि उसे सहज स्वीकार्यता मिले, क्या वही स्वतंत्रता हम अंग्रेजी से ले पाते हैं ?
उस पर तुक्का ये कि भाई ये हिंदी दिवस क्यों मनाते हैं, इंग्लैंड में तो इंग्लिश डे नहीं मनाया जाता ? 14 सितम्बर के बाद फिर 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाने का क्या औचित्य है, वगैरह-वगैरह ? अब पूरे ब्रह्मांड की चिंता तो हम कर नहीं सकते। हमें अपनी भाषा के प्रति प्रेम है, लगाव है, जुड़ाव है, तो उसके प्रकटीकरण से औरों को क्यों उदर- विकार होने लगता है ? अब ये तो इंग्लैंड वालों से या अंग्रेजी बरतने वालों से जाकर न पूछिए कि उन्हें निज भाषा पर क्यों नहीं गर्व है या है तो क्यों अपनी भाषा को ज़मींदारी व जागीर के रूप में लेते हैं, हमारा सर क्यों खा रहे हैं ? मुझे किसी भाषा के व्यवहार या प्रसार से बुनियादी तौर पर कोई दिक्कत नहीं है, बस हिंदी बोलते-लिखते हुए अंग्रेजी के अनावश्यक व बेवजह इस्तेमाल से चिढ़ होती है। मैं तो इस बात का हिमायती रहा हूँ कि कम-से-कम प्राथमिक स्तर तक विद्यालयों में उर्दू पढ़ायी जानी चाहिए। हिंदी की बिन्दी है उर्दू। उर्दू-ज्ञान के अभाव में लोग प्रायः ‘जलील’ को ‘ज़लील’ बुलाकर हिंदी की ख़ूबसूरती व सुषमा को ज़लील कर देते हैं।
जलील को कब तलक ज़लील करूं
ज़बां ज़लील हुई जाती है।
वक़्त के साथ हमारी भाषा का भी स्वरूप बदल रहा है, उदारता से परिवर्तन को स्वीकारते जाइये। वाणी के डिक्टेटर कबीर कहते हैं :
भाखा बहता नीर…
बस, हिंदी पर जटिल होने का आरोप लगाकर इसके सरलीकरण के नाम पर इसका सड़कीकरण न हो।
डॉ. धर्मवीर भारती ठीक ही कहते हैं, “आज हिंदी का संकट ये नहीं है कि इसे बोलने वालों की संख्या कम है, इसके पास समृद्ध साहित्य नहीं है, इसमें ज्ञान-विज्ञान के शब्द नहीं हैं, बल्कि हिंदी का सबसे बड़ा संकट ये है कि आज हिंदीभाषियों में चरित्रबल का घोर अभाव हो गया है”। आज माएँ मिशनरीज़ स्कूल में पढ़ने वाले अपने बच्चों से तब निराश हो जाती हैं, जब उन्हें पता चलता है कि पड़ोस के बच्चों से हुए झगड़े में उनके बच्चे अंग्रेजी में नहीं, बल्कि हिंदी में गाली दे रहे हैं। जिस भाषा को अँग्रेजी के विद्वान डॉ. बच्चन ने एक अलग वाद “हालावाद” देकर प्रतिष्ठा दी, जिस साहित्य को अंग्रेजी के साधक डॉ. रामविलास शर्मा ने आलोचना के क्षेत्र में नयी ऊँचाई दी, वहाँ भला निर्धनता कैसे आ सकती है ? मैंने मैक्सिम गोर्की की माँ को भी पढ़ा, प्रेमचंद की निर्मला को भी। जब आप जयशंकर प्रसाद की कामायनी पढेंगे और टी.एस. एलियट की वेइस्टलैंड, तो आप पायेंगे कि वैचारिक गहराई में कौन ज़्यादा समृद्ध है ? जॉन बनयन का पिलग्रिम्स प्रॉग्रेस और तुलसी का रामचरितमानस देखें, तो हिंदी में सृजनशीलता का स्तंभ कहीं से भी कमज़ोर दिखाई नहीं पड़ता। मिल्टन का पैराडाइज लॉस्ट उठा लें और वाल्मीकि- कृत रामायण – किसी भी स्तर से कहाँ पर हम कमतर हैं ? टैगोर की गीतांजलि पलटकर कोई देखे, तो पता चलेगा कि सार्वभौमिकता क्या होती है ? बस सोची-समझी चाल है, भारतीय भाषाओं व इनके साहित्य को कमतर आँकने की।
सुविख्यात भाषाविज्ञानी डॉ. ग्रियर्सन अपनी किताब ‘द लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया’ में लिखते हैं कि हरेक आठ किलोमीटर पर बोली की विविधता पायी जाती है। ऐसे में भाषा के नाम पर झगड़ना व मनभेद पैदा करना राष्ट्रीय शर्म की बात है। क्षेत्रीय भाषाएँ पुष्पित-पल्लवित हों, बड़ी अच्छी बात है। पर राष्ट्रभाषा व हिंदीभाषी के प्रति ईर्ष्या व उनके साथ अमानवीय व्यवहार कहीं से भी युक्तिसंगत, तर्कसंगत व न्यायसंगत नहीं है। चन्द कुंठित मानसिकता से ग्रस्त, पूर्वाग्रह-प्रेरित लोग राष्ट्रीय अस्मिता हिंदी के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, जो एक क़िस्म से भाषा के नाम पर एक क्षेत्र विशेष के लोगों के साथ दुर्व्यवहार करने जैसा है। कुछ वर्ष पूर्व महाराष्ट्र विधानसभा में सपा विधायक द्वारा हिंदी में शपथ-ग्रहण किये जाने पर मनसे नेता द्वारा उनकी पिटाई कर दी गयी और ऐसी घृणित घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने हेतु कोई ठोस कार्रवाई की बजाय सरकार की तटस्थता व चुप्पी दुःखदायी थी। ये भाषायी उन्माद हमें कहाँ ले जा रहा है ?
तेरे रहते लुटा है चमन बागबाँ,
कैसे मान लूँ कि तेरा इशारा न था।
वर्षों पूर्व नागपुर में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में स्वागत समिति के अध्यक्ष सह महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.पी.नाइक ने कहा था, “महाराष्ट्र में सदा ही हिंदी के अनुकूल माहौल रहा है और देवनागरी लिपि अपनाने से मराठी हिंदी के और क़रीब हो गयी है”। काश, उनके सदाशयी उद्गार से मनसे प्रमुख राज ठाकरे तनिक भी सीख लेते। उनका आचरण महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना जैसा नहीं, वरन् हिन्दुस्तान विनाश सेना जैसा है। भाषाई राजनीति की बैसाखी पर लम्बी राजनीतिक यात्रा नहीं की जा सकती। शायद वो इस देश की संस्कृति व हमारी धैर्य-क्षमता को नहीं जानते। हमारे आराध्य कृष्ण जब सौ गाली बर्दाश्त कर सकते थे, तो हम सामान्य मानव को तो हज़ारों गाली बर्दाश्त करने की क्षमता व हृदय की विशालता का परिचय देते हुए क्षमाशीलता विकसित करनी चाहिए। ऐसे उन्मादियों के क़दम से ख़ुद के धैर्य को दरकाना व त्वरित निर्णय लेकर मराठियों के साथ प्रतिशोधात्मक व्यवहार करना ठीक वैसा ही होगा जैसै चूहे से घर को बचाने के लिए घर में आग लगा देना। राष्ट्रीय एकता के लिए बहुत ज़रूरी है कि हम सभी भाषाओं का सम्मान करें। चाहे हिंदी हो या उर्दू, तमिल हो या मलयालम, बांग्ला हो या असमिया, उड़िया हो या कोंकणी, तेलुगू हो या कन्नड़, अरबी हो या फ़ारसी, पालि हो या वज्जिका, डोगरी हो या पंजाबी, हर भाषा का सौरभ इस मुल्क को जोड़ने में, इसके वैविध्य की ख़ूबसूरती में चार चांद लगाने में अहम रही है। फ़िराक़ गोरखपुरी कहते हैं –
मेरी घुट्टी में पड़ी है होके हल उर्दू ज़बां
जो भी मैं कहता गया, हुस्ने-ज़बां बनता गया।
सभी भाषाएं पुष्पित-पल्लवित हों, दु: ख तब होता है जब हिंदी, हिन्दू, हिन्दुस्तान के नाम पर जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में भी एमफ़िल-पीएचडी के डिज़र्टेशन और थीसिस के टाइटल को जबरिया हिंदी में भी लिखवाया जा रहा है जिससे बाक़ी भाषाभाषियों को दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। हमें व्यावहारिक होकर सोचना चाहिए कि हम देश को कहां ले जा रहे हैं। वसीम बरेलवी ठीक ही कहते हैं :
तेरी इन नफ़रतों को प्यार की ख़ुशबू बना देता
मेरे बस में अगर होता तुझे उर्दू सिखा देता।
यह महज़ उर्दू सीखने – सिखाने की बात नहीं, बल्कि गंगा-जमुनी तहज़ीब को मटमैला होने से बचाने की पहल है।
देश और दुनिया का रुख हिंदी के प्रति बदल रहा है। अपनी भाषाओं व अपने देसीपन को लेकर सम्मान का भाव जग रहा है। आज संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में सीसैट मामले में जिस तरह भारतीय भाषाओं के प्रति न सिर्फ उदासीन रुख, बल्कि उपेक्षा-भाव बरता जा रहा है, हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों को एक ख़ास किस्म के षड्यंत्र के तहत अनुवाद के रद्दी स्तर में उलझाकर किनारे करने की साज़िश हो रही है, वो विचित्र व घोर दुर्भाग्यपूर्ण मौजूदा सच है। हमें ज़ल्द-से-ज़ल्द इस स्थिति को सुलझाना होगा। अंग्रेजी हमारी बौद्धिकता या निर्णय-क्षमता को आँकने का मापदण्ड नहीं हो सकती। संघ लोक सेवा के लिए हिंदी माध्यम से चयनित होने वाले छात्रों की संख्या 35 फीसदी तक पहुँच गयी थी, जो अंग्रेजीदाँ नीति-नियंताओं को खटकने लगी थी। सीसैट की दोषपूर्ण व परोक्षतः पक्षपातपूर्ण प्रणाली के चलते आज यह संख्या घटकर काफी कम हो चुकी है। संघ लोक सेवा आयोग की प्रतिष्ठित परीक्षा का प्रश्न-पत्र तैयार करने के दौरान अद्भुत अनुवादकों के हाथों जब ‘स्टील प्लांट’ अनूदित होकर ‘इस्पात संयंत्र’ की बजाय ‘लोहे का पेड़’ हो जाता है, तो इसे आप परीक्षार्थियों के साथ भद्दा मज़ाक नहीं, तो और क्या कहेंगे ? मुझे बरबस दिनकर की ये पंक्ति याद आ रही है :
लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल / नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल।
सं.लो.से.आ. (यू.पी.एस.सी.) की परीक्षा ही ऐसी परीक्षा है, जो बहुत हद तक चयन-प्रक्रिया में पैरवी-तंत्र की दाल गलने नहीं देती और ग़रीब किसान का बेटा भी साक्षात्कार में सफलता सुनिश्चित करने के लिए ज़मीन बेचने की नहीं सोचता । अब यदि लोक-सेवा का भी द्वार बड़े सूक्ष्म-सुनियोजित तरीके से ऐसे वर्ग के लिए बंद कर दिया जाये, सदियों से जिसके पेट पर ही नहीं, दिमाग़ पर भी लात मारी गयी हो, तो यह कहीं-न-कहीं देश के सहिष्णु लोगों को गृहयुद्ध के लिए उकसाने जैसा है ।
मूल दिक्कत समझ (कॉम्प्रिहेंशन) के प्रश्नों के घटिया अनुवाद को लेकर है, जिस पर संबंधित मंत्री ने एक शब्द नहीं कहा । और, कुछ महाज्ञानी लोग अपने अंग्रेजी-ज्ञान का भोंडा प्रदर्शन करते हुए मसि-क्रीड़ा कर रहे थे कि जिन्हें दसवीं के स्तर की अंग्रेजी नहीं आती, जो सड़क पर गैरज़िम्मेदारी से लड़ रहे हैं, वो लोकसेवक बन भी गये, तो कैसा प्रशासन चलाएँगे ? माफ़ कीजिएगा जनाब, यही परिवर्तन के पुरोधा लोग कार्यपालिका को सुदृढ़ व पारदर्शी बनायेंगे, आपके जैसे व्यवस्था व सूचना पर कुंडली मारकर बैठे यथास्थितिवादी लोगों ने तो अंग्रेजी में दार्शनिक भाषण दे-देकर जितना कबाड़ा करना था, कर दिया । अंग्रेजी का आतंक दिखाते हो, दादा ? अंग्रेजी की धौंस से अब गँवई लोग नहीं डरते । अंग्रेजी कोई ज्ञान का सूचकांक नहीं, भाषा मात्र है । और हाँ, हिंदी बोलना-लिखना मेरी मजबूरी नहीं, मेरा शौक़ है और इस शौक को मैंने बड़े नाज से पाला है । कभी संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में बैठने का फितूर सवार हुआ, तो निस्संदेह अंग्रेजी माध्यम में परीक्षा दूँगा । पर इसका मतलब ये नहीं कि उन साथियों की वाजिब माँग का पुरज़ोर समर्थन न किया जाये, जो अपनी-अपनी भारतीय भाषा में सोचते हैं, पढ़ते हैं, उसे बड़ी श्रद्धा व गर्व से बरतते हैं ।
चलिए, फिर मनभेद कैसा, गिला कैसा, शिकायत कैसी ? देश आपका भी है, देश हमारा भी । स्वाधीनता व स्वशासन की लड़ाई हमारे फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाले पुरखों ने भी लड़ी है और स्वदेशी सोच के भारतीय भाषाओं के प्रति लगाव रखने वाले स्वाभिमानी बाप-दादाओ ने भी । आइए, सरकार से एक बार फिर अनुवाद के स्तर को संवेदनशीलता व उत्तरदायित्व के साथ ठीक करने की नम्र अपील के साथ अभिमान व संकीर्णता (प्राइड व प्रेजुडिस) का दौर खत्म करते हैं।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइ.आइ.टी) की प्रवेश परीक्षा में हिंदी माध्यम से सफल होने वाले छात्रों की संख्या 18 प्रतिशत तक रही है। कुछ दिन पूर्व बिहार में चिकित्सा-विज्ञान की पढ़ाई हिंदी में भी शुरू करने की बात हुई थी। आज जवाहरलाल नेहरू वि.वि. व भारतीय जनसंचार संस्थान समेत देश के समृद्ध पुस्तकालयों में भी हिंदी में अनूदित या मूल पाठ्य-सामग्री की कमी है और ये भी कोई अकारण नहीं है। उच्च शिक्षण संस्थानों में सिर्फ़ दाखिला काफी नहीं है, बल्कि सजगता व संज़ीदगी से उनकी समझ व सहज भाषा के अनुकूल पुस्तकें उपलब्ध कराना भी गुरुतर दायित्व है। कुछ लोग ये कहते हैं कि हिंदी के पास विकसित व उर्वर शब्दावली नहीं है, पर सिर्फ संस्कृत में लगभग 2000 धातुएँ हैं। यदि एक धातु में 3 पुरुष, 3 वचन, 10 प्रत्यय व 20 उपसर्ग लगाकर शब्द-निर्माण आरंभ किया जाये, तो लाखों शब्द बनेंगे और संस्कृत की पूरी विरासत हिंदी को प्राप्त है। आज 4000 से ज़्यादा दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक व वार्षिक पत्र-पत्रिकाएँ हिंदी में प्रकाशित हो रही हैं। खगड़िया के पूर्व ज़िला शिक्षा अधीक्षक श्री जयकांत कहते हैं :
संस्कृत की ज्येष्ठ पुत्री, भारत माँ की राजदुलारी
बड़ी सुकोमल वाणीपुत्री, राष्ट्रभाषा हिंदी हमारी।
फूले-फले सदा इस धरती पर राष्ट्रभाषा हिंदी हमारी
बहे सदा अजस्र स्रोतस्विनी बन राष्ट्रभाषा हिंदी हमारी।
हिंदी भाषा मात्र नहीं, अपितु संस्कृति की संवाहिका है। शास्त्री जी के निधन के बाद कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष के. कामराज के पास प्रधानमंत्री पद संभालने का प्रस्ताव आया। उन्होंने इसे सिर्फ़ इसलिए अस्वीकार कर दिया कि उन्हें हिंदी नहीं आती थी और कहा, “मैं तमिलभाषी हूँ और बगैर हिंदी जाने हिन्दुस्तान की इतनी बड़ी आबादी का सच्चा व कुशल प्रतिनिधित्व कैसे कर पाऊँगा”? आज भागलपुर की परबत्ती व दिल्ली की पचकुंइयां की पगडंडियों से लेकर पैरिस के पंचसितारा होटलों तक, लालकोठी व लाजपतनगर के लेन से लेकर लंदन के लेक तक बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा रहता है- “ठंडा मतलब कोका कोला”। मतलब, विज्ञापन जगत भी हिंदी के बगैर दो क़दम नहीं चल सकता। यह हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप का संकेतक भी है, और हिंदी पट्टी में बाज़ारवाद की धमक भी। संयुक्त राष्ट्र संघ में जब तत्कालीन विदेशमंत्री अटल बिहारी ने विशुद्ध हिंदी में भाषण दिया, तो चहुँओर हिंदी छा गयी :
गूँजी हिंदी विश्व में स्वप्न हुआ साकार, राष्ट्रसंघ के मंच से हिंदी का जयकार।
हिंदी का जयकार, हिन्द हिंदी में बोला, देख स्वभाषा-प्रेम विश्व अचरज से डोला।
कह कैदी कविराय मेम की माया टूटी, भारतमाता धन्य स्नेह की सरिता फूटी।
इन पंक्तियों से हमें गर्वोन्मत्तता की स्थिति में भी नहीं चले जाना चाहिए। महज संरा या विदेश में हमारे मंत्री या प्रधानमंत्री द्वारा हिंदी में संबोधन कर देने मात्र से अगर हिंदी या किसी अन्य क्षेत्रीय भाषा की दशा में सुधार या इसके प्रति नज़रिए में कोई परिवर्तन होना होता, तो कब का हो चुका होता।
15 अगस्त, 1947 को बी.बी.सी. लंदन के साथ साक्षात्कार में गाँधीजी ने कहा था, “दुनिया से कह दो कि गाँधी अंग्रेजी नहीं जानता”। जबकि दुनिया जानती है कि बापू की अंग्रेजी कितनी अच्छी व सहज थी, विलायत व दक्षिण अफ्रीका में जीवन की लम्बी अवधि उन्होंने गुज़ारी थी। पर यह आम जनमानस व राष्ट्रीय लोकचेतना के आह्वान का सम्मान था। एक माँ नौ माह तक शिशु को गर्भ में रखती है और सारी ज़िंदगी अपने दिल में। तो क्या हम हिंदी को अपनी ज़बान पर भी नहीं ला सकते ? अंग्रेजीयत पर तंज कसते हुए एक शायर ने कहा है –
ज़िन्दा पिता को डैड कहे, वो भी शान से
ये मगरिबी तहज़ीब के मारे हुए बच्चे।
हम मासी से बेहद प्यार करते हैं और मौसी भी हम पर स्नेहवृष्टि करती थकती नहीं, किंतु इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम अपनी माँ को भूल जायँ। दूसरे की सभ्यता, संस्कृति व भाषा की अच्छाइयों को आत्मसात करने के लिए तो हम चिरविख्यात रहे ही हैं, पर अपनी मूल पहचान की क़ुर्बानी की क़ीमत पर कतई नहीं। गाँधीजी भी कहते थे, “मैं नहीं चाहता कि मेरे घर को चहारदीवारियों में क़ैद कर दिया जाये, उसकी खिड़कियों को बंद कर दिया जाये। मैं चाहता हूँ कि मेरे घर के झरोखों से हरेक संस्कृति के बयार बहें, हाँ, मैं नहीं चाहता कि उन झोकों से मेरे अपने ही पैर उखड़ जायें।” ये निर्विवाद सत्य है कि आज हिंदुस्तान में हिंदी हमारी राष्ट्रीय अस्मिता व प्रज्ञात्मक पहचान बन चुकी है और इसे देश के समस्त नागरिकों के बीच योजक कड़ी की भूमिका के लिए उपयुक्त भाषा के रूप में देखा जा रहा है। देश की किसी अन्य भाषा पर इसे थोपने की बात नहीं हो रही है, बल्कि उन क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के साथ-साथ हिंदी की सहज स्वीकार्यता बढ़ाने के सार्थक प्रयासों पर विमर्श हो रहा है। सच यही है कि जितना मुश्किल एक हिंदी भाषी के लिए कन्नड़-तमिल-तेलुगू-मलयालम बोलना है, उतना ही कठिन दक्षिण भारतीयों और पूर्वोत्तर के निवासियों के लिए हिंदी बोलना। इसलिए, भाषाप्रेम को देशप्रेम से जोड़कर देखना और दबाव डालकर बोलवाना-पढ़वाना कहीं से भी यथोचित नहीं ठहराया जा सकता। बेहतर तो ये हो कि उत्तर भारतीय लोग हिंदी के साथ-साथ जितनी ज़्यादा से ज़्यादा अन्य भारतीय भाषाएँ हो सके, सीखने की कोशिश करें। फिर एकता की डोर और भी मज़बूत होगी।
यहाँ मैं एक संक्षिप्त वाकये का उल्लेख करना चाहता हूँ। एक बार आठ भाषाओं के युवा साहित्यकारों के सम्मेलन में एम.पी.जी. कॉलिज, मसूरी के संस्कृत के प्राध्यापक डॉ. प्रमोद भारतीय ने संस्कृत में एक लघुनाटक सुनाया। और, आवश्यकतानुसार इसका उर्दू तरजुमा पढ़ने की पेशकश की, तो वहाँ मौजूद साहित्यकारों ने कहा, आप यूँ ही कुछ और सुनाइये। जब उनका उद्गार समाप्त हुआ, तो सब हैरान रह गये और पूछा कि महोदय, आप संस्कृत के विद्वान हैं, पर आपकी हिंदी ख़ूबसूरत है, उर्दू ज़बरदस्त है और अंग्रेजी भी अच्छी बोलते हैं; इसका राज़ बताएँगे ? उन्होंने कहा, “संस्कृत मेरी इबादत है, हिंदी मेरी हक़ीक़त है, उर्दू मेरी मोहब्बत है और अंग्रेजी मेरी ज़रूरत है।” और आप जानते हैं कि ज़रूरत बहुधा इबादत व मोहब्बत नहीं हुआ करती।
वस्तुतः, यदि ऐसी नेक भावना, हरेक भाषा के प्रति अपनत्व व आत्मीयता, उसे सीखने की ललक व उत्सुकता हर भारतीय के मन में आ जाये, तो भला इस राष्ट्र को बौद्धिक व नैतिक उन्नयन से कौन रोक सकता है ? मैं अक़्सर महसूसता हूँ कि
मैथिली मेरी नुज़हत है
अंगिका मेरी शरारत है
भोजपुरी मेरी चाहत है
बांग्ला मेरी राहत है
पंजाबी मेरी उल्फ़त है
फ़ारसी मेरी हसरत है।
जिस तरह भारतीय भाषाभाषी संकीर्णता का शिकार नहीं हो रहे, उसी तरह अंग्रेजीभाषी भी छद्माभिमान को त्यागते हुए, प्राइड व वैनिटि का फर्क़ समझकर हिंदी समेत समस्त भारतीय भाषाओं के प्रति सहृदयता व सदाशयता दिखायें, तो यह विविधता व बहुलता के रंगों से सजा अनुपम हिन्दुस्तान “संगच्छत्वं, संवदत्वं” के कल्याणकारी उद्घोष व भ्रातृत्व-भाव से नवऊर्जा के साथ अपनी आत्मा को उन्नत बनाते हुए नूतन आयाम को छूने हेतु नयी उड़ान भरेगा। आइए, हम पूरी नैतिकता व निष्ठा के साथ हर भाषा के प्रति सम्मान बरतते हुए राष्ट्रभाषा की उत्तरोत्तर प्रगति की शालीन प्रतिबद्धता दुहरायें।
जयन्त जिज्ञासु
भारतीय जनसंचार संस्थान
नई दिल्ली