भारतीय सामाजिक इतिहास में भीमराव अंबेडकर का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं । अपने जीवन – संघर्ष से उन्होंने न केवल अपने जीवन को सार्थक एवं मूल्यवान बना लिया बल्कि समूचे भारत वर्ष विशेषकर दलितों एवं उपेक्षितों को जीवन का एक नया जीवनशास्त्र प्रदान किया । वे अपने उच्च व्यक्तित्व और कर्त्तव्य के कारण दलितों के मसीहा के रूप में याद किये जाते हैं । वे स्वयं भी दलित थे । उच्च शिक्षा प्राप्त करके उन्होंने दलित वर्ग के आदर्श पुरुष का स्थान प्राप्त किया । भारतीय राजनीति और संविधान में दलित वर्ग के लिए विशेष प्रावधान किये जाने के कारण भी उनका योगदान अविस्मरणीय है । समाज सुधारक , विचारक , राजनीतिक होने के साथ ही वे एक सफल पत्रकार भी थे । सन् 1924 में उन्होंने दलितों की नैतिक व आर्थिक उन्नति के लिए ‘ बहिष्कृत हितकारी सभा ‘ की स्थापना की । 1927 में अछूतों व अन्य हिंदुओं के बीच सामाजिक समानता लाने के लिए ‘ समाज समता संघ ‘ की स्थापना की । 1942 में ‘ अनुसूचित जाति फेडरेशन ‘ नामक राजनीतिक दल का गठन किया । 1945 में उन्होंने ‘ पीपुटस एजुकेशन सोसाइटी ‘ की स्थापना की इस सोसाइटी ने मुंबई में अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए कई कॉलेजों का संचालन किया । 1925-1930 के बीच उन्होंने अछूत छात्रों के लिए छात्रावास चलाने का कार्य प्रारम्भ किया । 1927 में उन्होंने ‘ बहिष्कृत भारत ‘ नामक पाक्षिक – पत्र प्रकाशित किया इसी वर्ष उन्होंने मंगड़ में ‘ चंवदार तलेन ‘ नामक सार्वजनिक तालाब से पानी भरने के अधिकार की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह किया । इस घटना से संबंधित मुकदमे में मुंबई हाइकोर्ट में सन् 1937 में उनको सफलता प्राप्त हुई । 1930 में नासिक में मंदिर प्रवेश के लिए उन्होंने सत्याग्रह किया । 1931 में गाँधीजी की इच्छा के विपरीत उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में अछूतों के लिए पृथक मतदान के अधिकार की मांग की । 1946 में अनुसूचित जाति के लिए सरकारी सेवाओं में आरक्षण व विशेष आर्थिक सहायता प्राप्त करने में वे सफल हुए ।
हिन्दू धर्म की ऊँच – नीच व छुआछूत की सामाजिक परंपरा से क्षुब्ध होकर उन्होंने नासिक जिले के येवला में सार्वजनिक हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया । इस प्रकार उन्होंने हिन्दू धर्म की विसंगतियों की तीव्र आलोचना करते हुए उसका त्याग ही कर दिया । उन्होंने आजीवन सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष किया और सामाजिक समरसता लाने का प्रयास किया ।
” डॉ . अंबेडकर दलितों के लिए एक इतिहास पुरुष और मसीहा के रूप में अवतरित हुए थे , यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी । ” ‘
“दलित ” की अवधारणा को समझने के लिए श्यौराजसिंह बेचैन के मंतव्य को जानना आवश्यक है- ” भारत की वर्ण व्यवस्था जिन्हें सामाजिक सम्मान का अधिकार व विकास के अवसर प्रदान नहीं करती , वही दलित है । ‘ पत्रकारिता पश्चिम से आई विधा है ।
भारत में अंग्रेजों का आगमन ‘ बंगाल ‘ की और से हुआ था । कदाचित बंगाल में सर्वप्रथम हिंदी पत्रकारिता का मुख्य लक्ष्य अंग्रेजों को भारत से खदेड़कर स्वराज स्थापित करना था । इस कारण उसकी विषय वस्तु इसी ध्येय को लक्ष्य करके रची गई ऐसा माना जाता है जबकि कुछ पत्रकारों में अंग्रेजों के दलितों द्वारा सुधार जैसे स्त्री अछूत शिक्षा , विधवा विवाह से खींजकर कलम चलाया । पूर्णतयाः आजादी पाने के लिए इस मुहिम में दलित पत्रकार दिखाई नहीं पड़ते । वेद प्रताप वैदिक के अनुसार ” उस युग में पत्रकारों को एक ओर सरकारी दमन नीति से लड़ना था तो वहीं दूसरी ओर हिन्दी समाज की कूपमंडूकता से जूझना था । “
हिंदी पत्रकारों में सामंती मूल्यों के प्रति एक विशेष लगाव देखने को मिलता है । ‘ पत्रकार अंबेडकर और पत्रकार गांधी दोनों का पत्रकारिता में अवतरण 1920 में ‘ मूकनायक ‘ तथा ‘ यंग इंडिया ‘ के द्वारा हुआ । वह समय प्रथम विश्वयुद्ध ( 1914-18 ) का समय था । ‘ जनता ‘ तथा ‘ हरिजन ‘ ( 1933 ) में द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ ( 1939-1944 ) हो चुका था । उन दिनों भारत का राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन भी चरम उत्कर्ष पर था । गाँधी जी कांग्रेस के प्रमुख नेता थे और अंबेडकर के साथ विचार संघर्ष में विशेष रूप से सक्रिय थे । अंबेडकर ने जनता में लिया ” कांग्रेस की सरंचना में जाति उन्मूलन व अस्पृश्यता , समाप्ति के कार्यक्रम को कोई स्थान नहीं दिया गया ।
अंबेडकर की पत्रकारिता को मूलतः वैचारिक पत्रकारिता कहना ज्यादा उचित होगा । बहिष्कृत भारत में भी उनका यही रूप द्रष्टव्य है । ‘ क्रांति क्या है ‘ शीर्षक लेख में अंबेडकर ने लिखा ” खसी कम्युनिस्टों का रास्ता और लक्ष्य झटपट क्रांति करने के ध्येय से तय किए गए हैं । जो उत्क्रांति के मार्ग में मुश्किलें ला सकते हैं । शेष क्षेत्रों में क्रांति लाने से पूर्व विचारों में क्रांति लाना प्राथमिक व अत्यंत आवश्यक है ।
अंबेडकर ने अपनी पत्रकारिता से दलितों तथा अछूतों के उद्धार के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाया । जनता पत्र के माध्यम से उन्होंने सामाजिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक चेतना का विकास किया । जन प्रतिनिधियों के चयन में भी मतदान प्रणाली की वकालत की , न कि आरक्षित व्यवस्था की । समाज परिवर्तन के लिए सामाजिक आंदोलनों के माध्यम से जनता की चेतना का विकास करने की शिक्षा दी । भीतरी ( स्वकीयों से ) स्वतंत्रता प्राप्त करना उनका प्रतिबद्ध लक्ष्य था ।
जनसामान्य की प्रतिभागिता वैचारिक जागृति से ही विकास संभव है । इसका उन्होंने कहा- ” गुलाम को बता दो तू गुलाम है और वह विद्रोह कर देगा , जनता पत्र ने यह विचार बार – बार प्रकाशित किया । जागरूक पत्रकारिता उनकी पत्रकारिता की खासियत हैं जनता ने ललित साहित्य को प्रोत्साहित किया । अंबेडकर ने सूचना प्रधान पत्रकारिता के स्थान पर विचार प्रधान पत्रकारिता को प्राथमिकता दी । श्रमिकों , विधवा , स्त्री पुनर्विवाह के मुद्दों को जनता पत्र विशेष सहानुभूति मिली है ।
अंबेडकर ने केसरी , समता , नवकांड आदि पत्र – पत्रिकाओं के लिए व्यावसायिक लेख भी लिखे । धर्म परिवर्तन के लिए वे अछूत जनता को कोई आदेश देने के हिमायती नहीं थे । स्वतंत्रता को वे व्यक्ति मात्र का जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे । किसी एक व्यक्ति या समूह द्वारा दूसरों की स्वतंत्रता का अतिक्रमण उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन है ।
जनता की भाषा सरल सुबोध सरस होने के साथ – साथ रोचक भी थी । यथार्थपरक काव्यात्मक व ज्ञानवर्धक प्रवाहपूर्ण शैली में मुहावरे व लोकोक्तियों का भरपूर प्रयोग उनकी विशेषता थी ।
प्रामाणिकता , तार्किकता , नैतिकता तथा वस्तुपरकता उनके लेखन के विशेष मूल्य है । उसकी भाषा में निर्भीकता , ओजस्विता , स्पष्टता , वाग् विदग्धता तथा युक्तिपूर्ण पारदर्शिता विद्यमान है । उनके पत्रों के प्रभावपूर्ण नाम मूकनायक , बहिष्कृत भारत , जनता , समता प्रबुद्ध भारत भी काफी व्यंजक तथा अर्थपूर्ण है ।
समाधानों के अंतर्द्वन्द्व से विकसित हुई । भारतीय पुराने लोकतांत्रिक मूल्यों का आधुनिक पाश्चात्य समता , स्वतंत्रता , बंधुत्व इत्यादि मूल्यों से सामंजस्य स्थापित करने के रूप में यह विचार धारा उभर रही है । इसका स्वस्थ प्रतिफलन सांवैधानिक व्यवस्थाओं में द्रष्टव्य हैं पत्रकार अंबेडकर ने भारतीय समाज व्यवस्था में मौजूद सामंती राजतंत्र जन्य विषमता परक मान्यताओं का विरोध कर समता व बंधुत्वमूलक लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना का यथासंभव प्रयास किया । यह विचार उनके पत्रों में आद्यत परिलक्षित होते हैं एक आदर्श और कटिबद्ध पत्रकार के रूप में वे दलितों के श्रेष्ठ आदर्श हैं ।
अंबेडकर अपने वैचारिक गुरु ज्योतिबा फुले से काफी प्रभावित थे और वर्णव्यवस्था के विरोधी सामाजिक समता के समर्थक तथा दलित शिक्षा के प्रशंसक थे । शूद्रों के लिए उन्होंने ब्रिटिश राज्य को वरदान माना था । यूरोप ने उन्हें वैचारिक एवं व्यवहारिक उदारता प्रदान की । बोल्शेविक लक्ष्य कम्युनिज़्म को पत्रकार अंबेडकर ने ग्रहण किया । साथ ही उसके लिए अनुकूल समाज निर्माण पर बल दिया । उन्होंने बुद्ध के मार्ग पर चलते हुए ‘ सम्यक क्रांति ‘ को वरीयता दी । स्पष्टवादिता , पारदर्शिता और मूल्यपरकता ने अंबेडकर की ‘ पत्रकारिता को जमीनी आधार प्रदान किया जिसकी वजह से वे दलितों पीड़ितों और शोषितों के संरक्षक बन सके । महाराष्ट्र में अंग्रेजों की शिक्षा का प्रभाव अधिक होने से वहाँ उदारता के संकेत स्फुट रूप में दिखाई पड़ते है । ज्योतिबा फुले के सामाजिक आंदोलन पर भी वह प्रभाव दिखाई पड़ता है । अंबेडकर ने महाराष्ट्र की दलित पत्रकारिता को सर्वप्रथम दिशा दी , कालांतर में वे राष्ट्रीय परिवर्तन के ठोस आधार बने । विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में अंबेडकर ने लेखन करके दलितों को नई दिशा दी और जीने का नया उत्साह और कारगर मंत्र प्रदान किया ।
अंबेडकर के मूकनायक बहिष्कृत भारत के लेखों व संपादकीय नाम नहीं गया । लेकिन जनता के अग्रलेखों के साथ रोमन लिपि के अक्षर वाले सभी संपादकीय डॉ . अंबेडकर द्वारा लिखित हैं । अंबेडकर के प्रमुख लेख जैसे देशांतर , धर्मांतर , नामांतर आदि ‘ जनता ‘ पत्र के अलावा मुख्यतः ‘ ज्ञान प्रकाश ‘ में भी प्रकाशित हुए । 1936 में मुक्ति कौन पथे ? जाति भेद का उन्मूलन को सम्मेलन में नहीं पढ़ा गया इसीलिए पुस्तकरूप में सामने लाया गया । यह भाषण जनता के अंग्रलेखों की श्रृंखला में प्रकाशित हुआ । इसे मधु लिमये ने रेखांकित किया –
” इसमें इतनी आग कि इसकी तुलना कार्ल मार्क्स और एंगेल्स द्वारा लिखित कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो से की जा सकती है । हम भारतीयों के लिए तो यह कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो से भी अधिक प्रासंगिक है । ‘
भारतीय पत्रकारिता पर विभिन्न विचारधाराओं का प्रभाव दिखाई पड़ता है जिनमें मनुवादी , गाँधीवादी , मार्क्सवादी आदि प्रमुख हैं तथा इन सबका मिश्रित प्रभाव भी पत्रकारों पर पड़ता है ।
हिन्दी की दलित पत्रकारिता पर विशेषकर अंबेडकर की विचारधारा का प्रभाव पड़ा है । यह विचारधारा जातिभेद , असमान वर्ण- विभाजन अस्पृश्यता आदि सामाजिक समस्याओं के कारणों मराठी के हिन्दी पत्रकार पराड़कर पत्रकारिता के पितापह कहलाते हैं । उन्होंने आज की सेवा तो की ही , क्रांतिकारी भावना के कठिन समय में अपनी प्रतिबद्धता का ठोस परिचय तब दिया जब भूमिगत साइक्लो स्टाइल पत्र निकालकर अपनी अविस्मरणीय भूमिका का निर्वाह किया । मराठी भाषा दलित पत्रकारिता की पृष्ठभूमि तो है ही , हिंदी की परंपरागत पत्रकारिता में भी उसका बड़ा योगदान रहा है ।
” स्वतंत्रता आंदोलन में आरोहण अवरोहण के साथ हिंदी पत्रकारिता के उतार चढ़ाव में भी गहरी समानता व पारस्परिक निर्भरता हैं हिन्दी में दलित प्रश्नों की उपस्थिति स्वतंत्रता आंदोलन में दलित विषयक सामाजिक मुद्दों के कारण हुई लगती है । जैसे विश्वबंधु साप्ताहिक के अनुसार ” हरिजनों को शास्त्र मर्यादा के अनुसार देव दर्शन का अधिकार दिलाना हिन्दी पत्रकारिता का तात्कालिक लक्ष्य था ।”
राजेन्द्र माथुर ने कहा था कि ” पत्रकारिता का मिशन यही हो सकता है कि हम दलितों और दरिद्रों का साथ दें ।
डॉ . भीमराव अंबेडकर और मोहनदास कर्मचंद गांधी आधुनिक भारतीय पत्रकारिता के निर्विवाद महारथी हैं । मुख्यतः दलित विषयक पत्रकारिता का वैचारिक धरातल व्यापक और सुदृढ़ करने में इन दोनों का विशेष योगदान है । बी.आर.अंबेडकर जनता पत्र के संस्थापक थे ।
जनता के साथ रोमन लिपि से ‘ people ‘ शब्द लगाया जाता था । इसका प्रवेशांक 24 नवंबर 1930 को निकला जनता का प्रकाशन काल डॉ . अंबेडकर के जीवन की सर्वाधिक जिम्मेदारियों , व्यस्तताओं और संघर्ष का काल रहा उनका बार – बार विदेश गमन , अध्ययन ओर भारतीय राज के घटनाक्रम पर गंभीर चिंतन उसी समय का है । फिर भी वे निरतर लिखते रहे स्वयं उनके द्वारा लिखे गए भीमराव के प्रति एक पत्र से इसका संकेत मिलता है ।
” यहाँ से मैं जनता के लिए नियमित लिखते हुए प्रसन्न हूँ और मैं निश्चित हूँ कि आपके लिए जनता के विस्तार में सहायता करने के लिए दोहराना नहीं पड़ेगा । ” ।
जनता के आरंभिक दिनों से ही राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में उथल – पुथल और असामान्यता थी । स्वतंत्रता प्राप्ति का आंदोलन निर्णायक मुकाम पर पहुँच रहा था । भावी स्वराज में दलितों की उचित भागीदारी का प्रश्न डॉ . अंबेडकर के जहन में बराबर कौंध रहा था । यथास्थिति में मिली आजादी दलितों पर गैर दलितों का राज्य न साबित हो इसके लिए वे रात दिन प्रयत्न कर रहे थे ।
अपने जीवन संघर्षों में काव्यात्मकता की पुष्टि करते हुए अंबेडकर ने लिखा- ” हिन्दुस्तान के एक अछूत का बेटा आगे चलकर गोलमेज सम्मेलन में जाकर बैठेगा । क्या यह सहज संभव था ?
भले ही कल्पना की उड़ान ढीली पड़ी हो , लेकिन इस वास्तविकता से क्या जीवन की काव्यात्मकता नहीं है ? “
गाँधी जी के हरिजन में स्वयंगाँधी जी द्वारा लेख अथवा संपादकीय में एम . के . फ्रांसीसी क्रांति से अंबेडकर ने स्वतंत्रता समता और बंधुत्व का नारा ग्रहण किया । और जनता को इसी दिशा में चलाना उनका अभीष्ट था ।
‘ जनता ‘ में ‘ गाँधी के कलुषित मन के सड़े हुए विचार ‘ शीर्षक अग्रलेख में लिखा कि गाँधी वाइसराय मुलाकात का जो निष्कर्ष निकलना था वही निकला । गाँधी जी की माँग कि मुझे चोरी करनी है यानी ‘ इंडियन पैनल कोड ‘ की धारा 379 तोड़नी हैं मुझे इसकी इजाजत दी जाए । ” पर अंबेडकर गाँधी के चिंतन विचार दृष्टिकोण तथा निर्णयों से बिल्कुल सहमत नहीं थे ।
बहिष्कृत भारत में भी दलितों के मुद्दे अंबेडकर ने बखूबी उठाए । अछूतों की उपजातियों के संबंध में गाँधी से उनका मतभेद भी द्रष्टव्य है ।
बहिष्कृत भारत में उन्होंने लिखा कि रोजी रोटी की समस्या ही मुख्य नहीं है बल्कि जीवन के अस्तित्व के संरक्षण का प्रश्न भी उनके लिए मुख्य है ।
सांवैधानिक रूप से राष्ट्रीय आदर्श सिद्धांत ओर मूल्यों के आधार पर दलितों का नागरिक अधिकार मिले । अंबेडकर के जीवन का मुख्य ध्येय यही था । सामंती सामाजिक मूल्यों के
विषमतामूलक अवशेषों को दूर करना उनकी प्राथमिकता रही । दरिद्रता असमता तथा शोषण को उन्होंने राष्ट्रीय विकास की बाधाएँ बताया । दुराग्रह को उन्होंने वैचारिकता का सबसे बड़ा शत्रु बताया । आर्थिक पिछड़ेपन को सामाजिक सांस्कृतिक अवनति का केन्द्र बताया ।
मानवीय समतामूलक समाज की स्थापना में उन्होंने अस्पृश्यता को सबसे बड़ी जड़ माना । दिनमान में उन्होंने इसी संदर्भ में ‘ अस्पृश्यता सवर्ण मानस में जड़वत है ” विषयक लेख भी लिखा ।
अंबेडकर के ईमानदार प्रयासों की सार्थकता को समझने में यह कथन अवश्य ही मूल्यवान होगा- ” डॉ . अंबेडकर के अलावा किसी और को भारतीय दलितों के मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार करना एक भारी भूल होगी ।
दलितों की मुक्ति के नाम पर गुमराह करने वालों की असलियत दलित जनता समझने लगी है । ‘ ‘ अंबेडकर बौद्धिक क्रांति के पक्षधर थे । उनका कहना था ‘ स्वयं की मुक्ति स्वयं करो ‘ । यही उनका सबसे उपयोगी समाज दर्शन है , नैतिक दर्शन है सबसे उपयोगी जागरूकता मंत्र है । इसी में उनके पत्रकार दायित्व की प्रासंगिकता स्वयं सिद्ध है ।
*संदर्भ*
1. हिन्दी उपन्यासों में दलित वर्ग – कुसुम मेघवाल पृष्ठ -32
2 .अंबेडकर गाँधी और दलित पत्रकारिता पृ .12
3. वही पृ. 13
4. अंबेडकर, गाँधी और दलित पत्रकारिता श्यौराज सिंह बेचैन, पृ – 31
5. वही
6. वही पृ. 25
7. वही पृ. 14
8. वही पृ. 17
9. वही 19
10. अंबेडकर, गाँधी ओर दलित पत्रकारिता श्यौराज सिंह बेचैन, पृ. 24
11. वही पृ. 25
12. स्वतंत्र भारत : जातीय तथा भाषाई समस्या पृ. 18 अनुवादक नरेश वेदी (बारीस क्लूयेव)
*सहायक ग्रन्थ सूची*
1. वेदप्रताप वैदिक हिन्दी पत्रकारिता के विविध आयाम- नेशनल पब्लिशिंग हाउस , नई दिल्ली
2. ब्रह्मानंद भारतीय पत्रकारिता आंदोलन और हिंदी पत्रकारिता
3. बाबा साहेब अंबेडकर के 15 व्याख्यान- संकलन – पं . चत्रिका प्रसाद जिज्ञासु , बहुजन कल्याण , उ.प्र .
4. आरजी सिंह- भारतीय दलितों की समस्याएँ एवं उनका समाधान- मध्य प्रदेश , हिन्दी ग्रंथ अकादमी ।
5. डी.सी. डीनकर – स्वतंत्रता आदोलन में अछूतों का योगदान बोधिसत्त्व प्रकाश , लखनऊ -1986
6. एम . आर . विद्रोही – दलित दस्तावेज दलित साहित्य प्रकाशन संस्था , दिल्ली -1989
7. डॉ . अंबेडकर कांग्रेस और गाँधी ने अछूतों के लिए क्या किया- अनु , जगन्नाथ कुरील समता साहित्य प्रकाशन लखनक 1988
8. डॉ . धर्मवीर डॉ . अंबेडकर और दलित आदोलन शेष साहित्य प्रकाशन , शाहदरा , दिल्ली -1990
9. शंकरानंद शास्त्री – युगपुरुष बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर अंबेडकर रिसर्च इस्टीट्यूट , दि . 1990
10. हिमांशु राय- युग पुरुष- बा सा भीम , अबेडकर- समता प्रकाशन दिल्ली -1990
11. भारतराम भट्ट- मनीषी अंबेडकर , साहित्य केन्द्र प्रकाशन , दिल्ली- 1986
12. बोरिस क्लूयेव- स्वतंत्र भारत – जातीय तथा भाषाई समस्या – अनु नरेश वेदी , प्रगति प्रकाशन , मास्को , 1986
13. मधु लिमये- अंबेडकर एक चिंतन अनु , अस्तराम कपूर , सरदार वल्लभ भाई पटेल , एज्यूकेशन सोसाइटी , न दि- 1989
14. डी . आर . जाटव- डॉ . अंबेडकर व्यक्तित्व एवं कृतित्व , समता साहित्य सदन , जयपुर , 1990
15. रामचंद्र वनौधा- अंबेडकर का जीवन संघर्ष , इलाहाबाद
16.डी.आर जारव – भारतीय समाज एवं संविधान , समता साहित्य सदन जयपुर 1989
17. बाबुराव वागुल – दलित साहित्यः उद्धेश्य और वैचारिकता . दलित साहित्य प्रकाशन , नागपुर
*( Endnotes )*
2. हिन्दी उपन्यासों में दलित वर्ग – कुसुम मेघवाल पृष्ठ -32
3. अंबेडकर गांधी और दलित पत्रकारिता पृ . 12
4. वही पृ. 13
5. अबेडकर गाँधी और दलित पत्रकारिता श्यौराज सिंह बेचैन , पृ . – 31
6. वही
7. वही पृ . 25
8. वही पृ. 14
9. वही पृ. 17
10. वही 19
11. अंबेडकर , गाँधी और दलित पत्रकारिता श्यौराज सिंह बेचैन , पृ . 24
12. वही पृ 25
13. स्वतंत्र भारत : जातीय तथा भाषाई समस्या पृ. 18 अनुवादक नरेश वेदी ( बोरीस क्लूयेव )
डॉ. माला मिश्र
एसोसिएट प्रोफेसर
अदिति महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय