1. घर जलता रहा और वे ज़िद पर अड़े रहे,
संभाल ना सके चार मित्र भी,
और वे अनजान भीड़ में पड़े रहे,
बड़ा गुमान था हमें इस बात का कि, वे मित्र है हमारे,
पर जब आया कयामत का दिन, गुजर गया दोस्तों का कारवां,
और वे दोस्ती छोड़ शैतान के पीछे खड़े रहे।
ना जाने क्यों दो दिल, दो दिमाग लेकर घूमते हैं वे,
हम तो एक दिल में ही कांटे छाठ बगिया सजाते रहे।
दिल कहे ए दोस्त ना भूल रे बातें, वे रात भर की मुलाकातें,
जब साथ बैठ दो निवाले खाए थे कभी दोस्तों की झूठी थाली से,
जिसके सुख में सुख भोगा जिसके दुख में, कंधों पर हाथ रखा था कभी,
वही दोस्त आज फिर मनाने हैं,
रख अहम को किनारे पर,
ना जाने यह बातें यह अफसाने कौन तुम्हें बताएगा।
जिंदा रहे तो मिलते रहेंगे जिंदगी भर,
मरे, हम तो कौन तुम्हारे लिए आंसू बहाए गा।
माना कभी कायम ना रहा साथ किसी का किसी के लिए यह भी एक हकीकत है,
पर जब सवाल आता है दोस्ती का तो जीवित हो उठते हैं कथाओं और इतिहास से,
और सज जाती है फिर से महफिल दोस्तों की बातों से।
2. वक्त अब खाली है, खुल रहे हैं कोरे पन्नों की डायरी,
कुछ ख्याल शब्दों के घोड़े बन उतर रहे हैं सफेद मैदानों में,
ना किसी काम के बंधन की फ़िक्र, ना अब किसी माया का मोह,
ना नेताओं की नेतागिरी, ना पुलिस का डर,
ना धर्म कोई, ना कोई जात-पात,
बस एक कलम, एक स्याही और एक कोरा सफेद मैदान।
जिस्म को छूकर बहती हुई सर्द हवाओं के बीच गुनगुनी धूप का एहसास,
धूल काफी पड़ चुकी थी यादों की किताबों पर,
कुछ पन्ने पीले पड़ चुके थे जिन्हें पलटा नहीं था मैंने कभी,
कुछ पन्ने फाड़े जा चुके थे कभी गम में, कभी गुस्से में,
कुछ अधूरे से धुंधले चेहरे थे जिनके नाम अब याद नहीं, कुछ नाम भी थे जिनके चेहरे अब याद नहीं,
अच्छी-बुरी, नई -पुरानी, यादों की लाइब्रेरी में ढूंढ़ता, मन मेरा बिता हुआ किस्सा कोई।
3. हकीकत बयान करने में भी डर लगने लगा है,
देखो इंसान, इंसान से डरने लगा है,
कल तक थे जो मिलने को बेचैन,
आज वो अपनों से हाथ मिलाने से कतराने लगा है,
आज इंसान, इंसान से डरने लगा है।
हर जगह एक सन्नाटा सा पसरा हुआ है,
घर में बंद आदमी पिंजरे का पंछी सा लगने लगा हैं,
ना बातें आपस में अब कोई भी, चारों तरफ खौफ का मंजर सा लगने लगा है,
कैसे कटेंगे ये दिन- रात, सोच- सोच कर आदमी, जिंदगी से मायूस दिखने लगा है,
आज इंसान, इंसान से डरने लगा है।
लाशों के ढेर से लगी हुई है जहाँ−तहाँ,
छूने से भी कतरा रहा है इंसान आज यहाँ,
जो जिंदे हैं गरीब मजदूर वे भूखे नंगे होकर निकल रहे हैं सड़कों पर,
वोट लेकर जो सत्ता पाने के लिए थे आपस में लड़े,
वह सत्ता पक्ष वो विपक्ष राजनीति की चादर ताने है सो रहे।
यह भयावह मंजर भी तो आदमी ने खुद चुना है,
इंसान को मारने के लिए इंसान ने वायरस का जाल गुनाह है,
हो रहा है वह हैवान सा, खा रहा है सब कुछ, हर कुछ,
बंद होने लगे हैं अब मंदिरों के भी सभी दरवाजे,
हो चुके हैं अंतर्ध्यान त्रिलोकीनाथ भी, नहीं अब वे भी किसी की सुनने वाले,
देखो अब ईश्वर फिर से प्रकृति के साथ न्याय करने लगा है,
फिर से एक प्रलय सी मचाने में लगा है,
इंसान चारदीवारी में बंद और जानवर बाहर घूमने लगा है,
आज इंसान, इंसान से डरने लगा है।