(शीर्षकंगल इल्लात्त कवितकल – शीर्षकहीन कविताएं)

(1)                                                     मैंने फूलों को उछाला

पर काँटे बनकर वे मेरी ओर आये

वे काँटे मेरे दिल की गहराईयों में उतरे

उस लहू में नये फूल खिले

मैं वसंत बन गया

इस फूल की खुश्बू तुम्हें पीड़ा देती है

अब मैं उस पीड़ा को

अपना गीत बनाऊँगा

(2)                                         एक ही शब्द से तू ने मेरे मन को नापा

एक ही स्वर में राग को ढूँढा

निराशा ने तुम को खुद से ही अलग किया

घटाओं से मैंने, अपने आकाश को

ढाँका

दुःख के इस आषाढ़ में

घने बादलों की वर्षा के बाद

आस्मान के साफ होने पर ही सही

क्या, तुम इस इन्द्रधनुष को पहचान सकोगी?

(3)                                                        तेरी मुस्कान से

बिखरे अक्षरों को चुनकर

पिरो-पिरोकर, याद करते-करते

मैं बैठा रहा।

अक्षरों के ताल

मन में नशा बने, आँखों में आँसू बने

बन गयी जिह्वा पर कविता

अब मैं जान गया हूँ

प्रणय और कविता कैसे दर्द बनती है।

 

डॉ. प्रिया ए.
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग, के.जी. कॉलेज
पाम्पाडी, कोट्टयम, केरल

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