कहानी अपने विकसित रूप में 55 के आसपास दिखती है उस वक्त देश राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से ढेर सारी चुनौतियों गुजर रहा था। आज़ादी के बाद देश की जनता उम्मीद लगाई थी कि उनका जीवन बेहतर होगा लेकिन जल्द ही उनका इन वादों से मोहभंग हो गया। तत्पश्चात देश की सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में कई ऐसे भूचाल आये। सत्ता पर प्रश्न लगे। 1984 सिख दंगा ऐसा ही था जिसने सामाजिक सौहार्द के बीच दरार पैदा की। दंगे की लपट अभी कम नहीं हुई थी कि भारतीय राजनीति में बाबरी मस्जिद की ऐतिहासिक घटना से पूरे देश में साम्प्रदायिक तनाव फैल गया। आज़ादी के बाद देश को कई उतार-चढ़ाव से गुजरना पड़ा। आज जब भूमंडलीकरण के दौर में चारों तरफ़ चकाचौंध पसरा है, जहां आदमी को बेसुमार भौतिक सुख-समृद्धियों की कृत्रिम भूख पैदा की जा रही है, दूसरी तरफ अपने गिरफ्त में लेते हुए आदमियत को खत्म किया जा रहा है संवेदनहीनता की भावना पैदा हो रही है। जहां करुणा, दया जैसी महान इंसानियत के गुण समाप्तप्राय हैं। आज पूरी तरह कॉरपोरेटपरस्ती का दौर आ गया है। वहीं नवउदारवादी, भूमंडलीकरण, उत्तर आधुनिकता के दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक संकट के साथ नए विमर्श भी उभरकर सामने आए हैं। इस परिवेश भावभूमियों, परिस्थितियों को बेहद गहराई, समग्रता में अपनी कहानियों में पिरोने व अभिव्यक्त करने वाले समकालीन कथाकारों में उदय प्रकाश एक बड़ा नाम है जिनकी कहानियों में समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक संकट की पहचान तथा डूबते द्वीप के प्रतिरोध की मुखर आवाज सामने आती है।
समकालीन समाज में व्यक्ति और संस्कृति का संस्थानीकरण अपने चरमोत्कर्ष पर है। टेक्नोलॉजी की दुनिया में मनुष्य को अर्थवत्ता, गरिमा और अपराजेयता का एहसास कराने वाले सभी परंपरागत सांस्कृतिक माध्यम व्यर्थ घोषित किये जा रहे हैं। भूमंडलीकरण के दौर में उनकी उपयोगिता समाप्त हो गयी है। विश्व बाजार एक नियति है जिसमें मनुष्य नगण्य और गरिमाहीन होने के लिए बाध्य हो गया है।
उदय प्रकाश का कथा साहित्य का फलक व्यापक है। उनकी रचनात्मक संवेदना शहरों तक सीमित नहीं है बल्कि गांव के उन सुदूर इलाकों तक पहुंचती हैं जहां पर देश की मूल जनजातियां निवास करती हैं। उनके कथा संचार से गुजरना समकालीन भारतीय सामाजिक संरचना, व्यवस्था से गुजरना है जो करोड़ों वंचित समुदायों की अंतरात्मा की आवाज है। उनकी कहानियां उस पीड़ा और अनुभव और जादुई यथार्थवाद के प्रयोग से और मुखरित किया है, सम्प्रेषणीय बनाया है तथा इनमें रोचकता व आकर्षण पैदा कर दी हैं। उनकी कहानियों का अध्ययन करते समय कड़वे यथार्थ का अनुभव हुआ।उदय प्रकाश की कहानियों में समकालीन समाज और संस्कृति पर मंडराते खतरे, साहित्य और संस्कृति की चुनौतियों, तर्क, इतिहास, कहानी, संस्कृति के डूबते प्रतिरोध की मुखर आवाज सामने आती है।
सभ्यता के विध्वंस की उपनिवेशवादी रणनीतियां में देखा गया है कि पूर्व आधुनिकता के समय जो यह मानते थे कि ब्रिटिश न आये होते तो यहां औद्योगीकरण न हुआ होता, यह बात नहीं थी। मध्ययुग में औद्योगीकरण की निर्माण हो रहा था, जैसे ही उपनिवेशवाद आया उसको झटके से नष्ट कर दिया। औपनिवेशिक आर्थिक नीति लागू किया और यहां के हथकरघा, कृषि उद्योग, शिल्प आदि को पूरी तरह चौपट कर दिया और यहां की स्मृतियों को कैसे नष्ट करने की कोशिश की गयी, जिसपर एडवर्ड सईद, अमर्त्य और सखाराम गणेश देउस्कर आदि ने गहराई से विचार-विमर्श किया है। औपनिवेशिक नीतियों पर ही नवउपनिवेशवाद, भूमंडलीकरण का तंत्र आधारित है। भूमंडलीकरण या उपभोक्तावादी संस्कृति सबसे पहले लोगों के दिमाग पर कब्जा कायम करता है। पूरी दुनिया में शक्तिशाली राष्ट्रों का गरीब मुल्कों के ऊपर सांस्कृतिक राजनीतिक आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने की औपनिवेशिक रणनीति अब भी थोड़े से बदले रूप में बदस्तूर जारी है जिसको एडवर्ड सईद नवउपनिवेशवाद के रूप में देखते हैं और इसे सबसे खतरनाक बताते हैं। इधर बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अस्मिताओं के उभार में प्रमुख रूप से स्त्री, दलित और आदिवासी विमर्श केंद्र में आये हैं। जिसको कथाकार उदय प्रकाश अपनी कहानियों में नायकत्व की भूमिका में रखते हैं। इस अध्याय में उभरते अस्मिताओं के विविध पक्षों का भी अध्ययन किया गया है।
औपनिवेशिक शासन, भौतिक स्थानों पर कब्ज़ा, देशी जनता के मन-मस्तिष्क की पुनर्रचना तथा स्थानीय आर्थिक इतिहासों को पश्चिमी परिप्रेक्ष्य में संग्रथित करके स्थापित और मजबूत होता है। इन बातों से ही वह औपनिवेशिक ढांचा खड़ा होता है जो कि औपनिवेशिक अनुभव के भौतिक, मानवीय और आध्यात्मिक पहलुओं को समेटे रहता है। देशी संस्कृतियों का अवमूल्यन और देशी अभिव्यक्तियों को खामोश करके ही उपनिवेशवाद अपनी विचारधारात्मक वैधता को स्थापित करता है। औपनिवेशिक सामाजिक संकट और हिंदी साहित्य का विहंगावलोकन किया गया है। पश्चिमी देशों और अमेरिका का आर्थिक और भू-राजनैतिक वर्चस्व तीसरी दुनिया के भौगौलिक इलाकों के प्रत्यक्ष नियंत्रण समाप्त होने के बाद भी बना रहा। 1980 के दशक में भूमंडलीकरण, निजीकरण के नीति पर विचार, भूमंडलीकरण और उत्तर आधुनिकता के दौर में उपभोक्तावादी संस्कृति और बाज़ारवाद समकालीन कथा साहित्य के आलोक में आए और उस पर लिखा जाने लगा।इन विषयों पर अच्छी पकड़ के साथ गहराई से लिखने वाले उदय प्रकाश हाई थे।
ये हिंदी के ऐसे प्रमुख गद्य लेखकों में से हैं जिन्होंने कहानी को विश्व स्तर पर पहुंचाया है। इब्बार रब्बी के अनुसार वे हिंदी के मार्खेज हैं। उनकी कहानी समकालीन और भूमंडलीकरण के दौर में हमें अधिक आकर्षित करती है। पाठक वर्ग को सोचने और विचलित करने पर मजबूर करती है। उदय प्रकाश का साहित्यिक चिंतन व्यापक है। उदय प्रकाश उपेक्षित दलित, पिछड़े, आदिवासी उत्पीड़ित सामाजिक अस्मिताओं का विश्लेषण करते हैं।
समकालीन पाठकों व आलोचकों के बीच उदय प्रकाश सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव के लिए बेचैन, संवेदनशील वैचारिक साहित्यकार के रूप में है। उदारीकरण के दौर में उनकी कहानियों के माध्यम से समाज के विकृत रूप की शिनाख्त की गयी है।
उदय प्रकाश अपनी कहानियों में समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं को इंगित करते हैं बल्कि उसके निवारण का प्रयास भी करते हैं। वे ऐसे साहित्यकार हैं जो सभी को यह संदेश देना चाहते हैं- आदमी, मरने के बाद कुछ नहीं सोचता। आदमी, मरने के बाद कुछ नहीं बोलता। कुछ नहीं सोचने और कुछ नहीं बोलने पर आदमी, मर जाता है। ऐसे ही समकालीन भारतीय व्यवस्था पर सदियों से वर्चस्व जमाये प्रत्येक क्षेत्र में स्थापित ताकतों से सीधे मुठभेड़ करते हैं। उनकी कहानियों में सांस्कृतिक विद्रूपता और प्रतिरोध की अनुगूँजें तथा उनके कथा-केंद्र में हाशिए के विमर्श (सबार्ल्टन का नायकत्व) निम्नवर्ग के जीवन संघर्ष को बेहद सृजनात्मक तरीक़े से प्रस्तुत किया गया है उनका जीवन संघर्ष ,उनका पसीना,उनकी ग़रीबी,ताकत,मजबूरियाँ सबकुछ बेहद बारीकी और ख़ूबसूरती से अभिव्यक्त किया गया है।
कहानियों में कथा विन्यास, जादुई यथार्थवाद, घटना प्रधानता,मिथक, इतिहास, स्मृति तथा भाषा की लोकधर्मिता, प्रतीक, बिंब, प्रतीक सांकेतिकता, फैंटेसी, व्यंग्य का उपयोग व्यापक रूप में है। उदय प्रकाश अपने रचनाकर्म में जादुई यथार्थवाद का प्रयोग करते हैं जो कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर ढकेल दिए गए लोगों की कहानियों-गल्पों के साथ जुड़ा हुआ है।उनका प्रतिनिधित्व करता है।हिंदी कथा-साहित्य में उदय प्रकाश जादुई यथार्थवाद की परंपरा को बढ़ाते हैं।कहानी के प्रचलित मुहावरे/मापदंडों को तोड़ते हैं। सामाजिक समस्याओं पर तटस्थता के साथ दृष्टि डालते हुए समकालीन कथाकारों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
उदय प्रकाश की चर्चित कहानी ‘टेपचू’ जो कथा-संग्रह दरियाई घोड़ा में संकलित है। जिसमें ‘टेपचू’ की जिजीविषा देखकर मन विचलित और आश्चर्य चकित हो जाता है।
“ट्राली-स्ट्रेचर में टेपचू की लाश अंदर लायी गयी। डॉ वर्गिस ने लाश की हालत देखी। जगह-जगह थ्री-नाट-थ्री की गोलियां धँसी हुई थी। पूरी लाश में एक सूत जगह नहीं थी, जहां चोट न हो।
उन्होंने अपना मास्क ठीक किया, फिर उस्तरा उठाया। झुके और तभी टेपचू ने अपनी आंखें खोलीं। धीरे से कराहा और बोला,- “डॉक्टर साहब, ये सारी गोलियां निकाल दो। मुझे बचा लो। मुझे इन्हीं कुत्तों ने मारने की कोशिश की है।” डॉक्टर वर्गिस के हाथ से उस्तरा छूटकर गिर गया। एक घिघियाई हुई चीख उनके कंठ से निकली और वे ऑपरेशन रूम से बाहर की ओर भागे।” लेखक ने इसी जिजीविषा को (टेपचू के जीवन को) मजदूर के जीवन से जोड़ते हुए कहा है कि- जीवन की वास्तविकता किसी भी काल्पनिक साहित्यिक कहानी से ज्यादा हैरतअंगेज होती है।
उदय प्रकाश की कहानियाँ भारतीय समाज और संस्कृति की तह तक जाती हैं उनकी जड़े अपने वक्त से अपने समाज से गहरे जुड़ी हुई हैं।समकालीन कहानी की उनकी कहानियाँ नींव भी हैं और शिखर भी।कहना न होगा कि किस्सगोई को उदय प्रकाश ने अपने अनुभवों अपनी कला साधना अपने जादुई भाषा की ताकत से बेहद समृद्ध किया है।उन्हें समकालीन हिंदी कहानी का प्रेमचंद प्रेमचंद कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
आधार ग्रंथ
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8. उदय प्रकाश, मेंगोसिल, पेंगुइन, 2006
9. उदय प्रकाश, मोहनदास, वाणी प्रकाशन, 2006
10. उदय प्रकाश, वारेन हेस्टिंग का साँड, वाणी प्रकाशन
निबंध संग्रह
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2. उदय प्रकाश, नयी सदी का पंचतंत्र, वाणी प्रकाशन, 2008
सहायक ग्रंथ
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पत्र-पत्रिकाएं
1. नया ज्ञानोदय, संपादक- प्रभाकर श्रोत्रिय, अंक 34, दिसंबर 2005
2. कसौटी, संपादक- नंदकिशोर नवल, सह-संपादक, अपूर्वानंद, अंक 05
3. वागर्थ, संपादक- एकांत श्रीवास्तव, अंक 147, अक्टूबर 2007
4. व्यंग्य यात्रा, संपादक- प्रेम जनमेजय, जनवरी-मार्च, 2005, अप्रैल-जून, 2005, संयुक्तांक, वर्ष 01, अंक 2,3
5. समकालीन भारतीय साहित्य, (भूमंडलीकरण विशेषांक), संपादक- सुनील गंगोपाध्याय, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, अहार कृष्णमूर्ति, वर्ष 32, अंक 156 (जुलाई-अगस्त 2011)
6. समकालीन भारतीय साहित्य, संपादक, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, वर्ष 34, अंक 171, जनवरी-फरवरी, 2014
7. आलोचना, प्रधान संपादक- नामवर सिंह, संपादक- अरुण कमल, सहस्राब्दी अंक छियालीस, जुलाई-सितंबर, 2012
8. आलोचना, संपादक- अपूर्वानंद, अंक 53-54, भारतीय जनतंत्र का जायजा

 

दीपक कुमार जायसवाल
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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