दिल्ली विश्वविद्यालय कॉलेज कैंपस में फॉर्म भरने और नामांकन की भागमभाग हलचल थी और अधिति पूर्व दिशा में पेड़ की छांव तले एकांत में बैठी मन की गुत्थियां सुलझाने में व्यस्त थी| मानो बीते क्षणों के इतिहास को मन ही मन खंगाल रही हो| यही तो भाता ही रहा है उसे! एकांत में बैठ आत्मालाप करना| इससे बड़ा सुख उसके लिए कुछ ना था| वही जानती,क्या पाती थी? इस क्षण से वह या क्या देती इस क्षण को वह| तभी कहीं से भागती हुई एक लड़की उसके सामने आ खड़ी होती है| दूधिया सा गोरा चिट्टा रंग, पतला-दुबला शरीर, छोटी-छोटी आंखें,चश्मे से बाहर देखती अधिति की ओर..अधिति पूछ बैठी-
“जी कहिए”, कोई बात??
वह हड़बड़ाती हुई बोल पड़ी-
फॉर्म कहां भरा रहा है? मैं बहुत देर आई हूं, कल आना संभव नहीं पता नही…
मन ही मन कुछ कहकर रूक जाती है और सहसा बोल उठती है-
वो फॉर्म……
उसकी बात समझ अधिति ईशारा करते हुए कह उठती है-
सीधे जाकर बाएं मुड़ जाईयेगा और हां अभी समय है आप हड़बड़ाइये मत, पहले जाकर जेरॉक्स करा लिजिए अन्यथा आपको परेशान होना पड़ेगा| वह हड़बड़ाकर चली गयी,अधिति उसे देखती भर रही| लड़की है या तूफान, वह समझ न पाई| वह इन दिनों एक उपन्यास में डूबी थी,शीर्षक था “मुझे चाँद चाहिए” वही बैठ घास पर पढ़ती रही| पढ़ते-पढ़ते मानो स्वयं वर्षा बन महसूस कर रही हो उसकी पीड़ा,उसका संघर्ष….दोपहर हो आया था,धूप तेज हो चुकी थी, पर उसे ध्यान न रहा| लौटते वक्त साफिया ने सोचा कि उससे मिलती जाऊं, धन्यवाद भी दे दूंगी तभी साफिया की नजर तपती धूप में पुस्तक में डूबी अधिति को देख स्तब्ध रह गयी और कह उठी-
कितनी धूप है, तुम्हें धूप नहीं लग रही| काली नहीं हो जाओगी|
अधिति ने हंस भर दिया, फिर ठहरकर बोली-
तुम्हारी तरह सुंदर होती तो पक्का फिक्र करती, इस काले वर्ण को क्या सोचना|
साफिया “हद है” कहकर उसपर डपटी और हाथ पकड़ छांव में ले जाकर बिठाया| अधिति अवाक् भाव से उसे देखती भर रही| किसी अजनबी के लिए इतनी फिक्र, इतना अपनत्त्व| साफिया उसके मन के भाव समझ बोल पड़ी-
ऐसे मत घूरो,मैं भी इंसान हूं, मेरे भीतर भी संवेदनाएं है, बस लोग समझ नहीं पाते|
अधिति के मुंह से निकल पड़ा, मतलब???
मतलब, कुछ नहीं| तब तुमने मेरी मदद की, जिसके लिए शुक्रिया| खैर है खुदा का कि मैं समय पर थी, वरना पता नहीं क्या होता|
अधिति ने टोका- मैंने क्या किया??? सब तुमने ही तो किया| मैंने बस रास्ता बताया और दोनों घंटो भर बात करते रहें| इस सामान्य बातचीत में भी कुछ था, सामान्य से परे… जिसने दोनों को मित्रता के धागे में बांध दिया| जहां यकी हो गया था कि वह कह सके अपने-अपने मन की बात| फिर क्या था! बातचीत का सिलसिला चल पड़ा| साफिया कॉलेज बहुत कम आती है पर जब आती अधिति से मिले बगैर ना जाती| अधिति भी साफिया के बारे में बहुत कुछ न जानती, पर जितना जानती पर्याप्त था| अब अधिति भी खाली समय में एकालाप के साथ मित्रलाप का समय निकालने लगी| साफिया को अधिति का संघर्ष भाता था और अधिति साफिया के भीतर की आग को समझने लगी थी और यह भी कि वह पढ़ाई के लिए कुछ भी कर सकती है, कुछ भी| प्रतिभावान वह थी, यह भी स्पष्ट था| एक दिन साफिया आते ही बोल पड़ी कि-
मैं तुम्हारे लिए कुछ बना कर लाई हूं, खाओगी ना??
अधिति ने खुश होकर कहा-
अरे वाह पहले लाओ, फिर पूछ लेना|
साफिया खुश होकर टिफिन बढ़ाई और कहा यह है दलिया| फिर तुरंत हाथ पीछे खींच लिया|
अधिति बोल पड़ी- यह क्या, नहीं खिलाओगी??
उसने सकपका कर कहा-
तुम्हें एक बात पता नहीं है, मैं मुस्लिम हूं….. । कोई मेरे घर की चीज नहीं खाता| मैं तुम्हें बिना बताए….
अधिति ने डांट लगाई-
धत तेरी के, मैं लोगों का नहीं अपना जानती हूं| तुम मेरी दोस्त हो और सबसे अच्छी दोस्त! इसके अलावा मुझे कुछ नहीं जानना| अब दो मुझे खाना है|
साफिया ने मुस्कुराकर टिफिन आगे बढ़ाया| दोनों एक दूसरे के हाथों से खाये और इस धर्म ने उनके संबंधों को और भी पाक कर दिया| फिर तो उन्हें आदत हो गई एक दूसरे की| अब अधिति को वह शांत एक तरफ कैंपस में अकेले बैठना भी ना भाता था| भाता था तो उसके एकांत को भरने वाली वह नटखट, चुलबुली, प्यारी सी साफिया, पर अचानक उसका कॉलेज आना बंद हो गया| कई माह बीत गए| अधिति परेशान, चिंतित लाख कोशिशों पर भी संपर्क ना साध सकी| अंतिम सत्र की परीक्षा थी, परीक्षा हेतु प्रवेश की भीड़ में सहसा एक लड़की से टकरा बैठी, वो धीमे स्वर में बोल पड़ी-
माफ कीजिएगा|
इस बार स्वर परिवर्तित थे पर वह पहचान कर बोल पड़ी-
साफिया??
साफिया ने पलटकर देखा, तो शब्द न थे| बस आंखों से कुछ बूंद अश्रु टपक पड़े| परिस्थिति को भाप अधिति ने इस बात पर परीक्षा के बाद बात करने की बात कहकर उसे परीक्षा कक्ष तक ले गयी और परीक्षा पर ध्यान केंद्रित करने को कहा, दोनों ने परीक्षा दी| कैसी परीक्षा थी? ज्ञात नहीं| उत्तीर्ण होना था या ….पर जीवन की परीक्षा से हिम्मत हार रही थी साफिया| परीक्षा समाप्त होते ही साफिया अधिति से लिपटकर फूट-फूट कर रो पड़ी| वह शांति से पढ़ना चाहती थी| अपने मन की हर बातों को उसने बताया| हम छह बहन तीन भाई हैं| बचपन से ही अपनी जरूरतों को सीमित करती आई ताकि बाकी जरूरतें पूरी हो सकें, और लोग भूल ही बैठे कि मैं भी उनकी जिम्मेदारी हूं| होश संभालते सिलाई ही आसरा रहा मेरी पढ़ाई का, पर मेरी प्रतिभा ही अभिशाप बन गयी| सारे भाई बहन चिढ़ने लगे और रौब भी…
अपमान, लांछन, अपशब्द और कभी-कभी दो चार हाथ जीवन के हिस्से थे, पर मां की मृत्यु ने मेरी जिंदगी नरक बना दी| अब वह मेरी पढ़ाई के खिलाफ हैं |आज भी छिपकर आई हूँ परीक्षा देने| मैं पढ़ाई नहीं छोड़ सकती,यही मेरे जीने का सहारा है इसीलिए एक रास्ता चुना है|
तुम मेरी मदद करोगी??
अधिति ने हामी भर दी, वह भी चाहती थी इस परिस्थिति से साफिया को मुक्त करने की| अपने कुछ कपड़े, किताबें और कुछ पैसे वह अधिति के घर रख गई और कुछ दिनों बाद समय देखते ही दिल्ली शहर छोड़ कर चली गई| अधिति दुखी थी, पर संतोष था उसे| बिना कुछ बताए साफिया जा चुकी थी….|
वक्त की मार गहरी होती है, उससे बलवान कोई नहीं| वह सिखा ही देता है डगमगाते कदमों को मजबूती से ज़मीन पर टिकाए रखना| कांटो के दुर्गम मार्ग पर भी चलना| गुदड़ाये से जीवन को सीलना और कभी जाकर भाग्य से मिलना| कुछ ऐसा ही हुआ वक्त बीतता गया पर साफिया की यादें अधिति की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी थी| अब वह साफिया के जीवन की गुत्थियों पर विचार करने लगी, पर अब ना अचानक किसी के आने की उम्मीद थी और न कोई आस| जो किसी अपने का अहसास कराएं| इन दिनों अधिति लखनऊ यूनिवर्सिटी में सहायक प्राध्यापिका के पद पर कार्य कर रही थी| जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर आ गई थी| निरंतरता,व्यस्तता और उलझन| साफिया थी तो मात्र उसके एकांत क्षणों में! मुस्कुराती-सी| एक बार वहां पास के ग्रंथालय में जाना हुआ| अधिति पुस्तकें ढूंढने में व्यस्त थी| तभी, एक मीठी आवाज ने मनको की चुप्पी को तोड़ा-
मैं कुछ मदद करूं???
अधिति का ध्यान टूटा| उसने कहा-
नहीं,धन्यवाद! मैं ढूंढ लूंगी|
पर पलट कर देखने का साहस ना था| मन कह रहा था कि साफिया है| पर हमेशा हर जगह, वह कैसे|
नहीं-नहीं! वह नहीं होगी| फिर सोचने लगती है-
काश वाकई वह होती| वह होती तो मैं पहले उसे खूब डाटती| न पता दिया और न ही कोई सम्पर्क….
उससे उसकी ही शिकायते करती फिर लिपट कर रोती| कहती इतने वर्षों की व्यथा, फिर अपनी अपनी कथा| मना करने पर भी वह लड़की पुस्तक ढूंढने लगी और कहने भी लगी-
धन्य भाग इस पुस्तकालय का, कोई तो आया| वर्षों से पड़ी-पड़ी धूल पड़ गई है| अब कौन आता है किताबें पढ़ने| सब डिजिटल हो गया है! काश समझ पाता कोई मोल इन कागज के पन्नों पर.. स्याही से लिखे..शब्दों.. भावों..विचारों.. के साकार रूप इन पुस्तकों को| जो मात्र पुस्तक नहीं| अधिति अब खुद को रोक न सकी| आशंका से पलट कर देखा, तो वह स्थिर रह गई| एकटक ताकती भर रह गयी| सब कुछ स्थिर सा हो गया था| मानो कह रहे हों, मन की व्यथा, पीड़ा व दंश! विगत वर्षों के| साफिया ने अधिति के हाथों को अपने दोनों हाथों में लेकर उसे चूम लिया और कुछ बूँद स्वतः गिर पड़े उसकी हथेलियों में| मानो वह प्रमाण हो मन की निष्ठा का, फिर उसे गले लगाकर रुंधे स्वर में बोली-
मुझे यकीन क्यों नहीं हो रहा कि तुम मेरे समक्ष हो अधिति |
अधिति स्वयं को रोक न पाई और वह भी रो पड़ी| शांत उस वातावरण में थे तो केवल रोते दो स्वर और स्वरों से अभिव्यक्त दो कथाएं| जो सधे अपने अस्तित्व की राग सुना रहे थे| साफिया अब उस लाइब्रेरी की इंचार्ज थी| पिछले वर्ष जनवरी माह में ज्वाइन किया है| पास के ही फ्लैट में रह रही थी| खाली समय में बच्चों को पढ़ाने का कार्य कर रही थी, संस्था का नाम था “जीवनज्योति” वाकई ज्योति बन आलोकित ही तो कर रही थी औरों के जीवन को| स्वयं की समाप्ति में भी एक प्रारब्धयुक्त प्रारंभ छिपा था| यह भी सकुचाते हुए कहा कि- उसने भय से अपना पता नहीं दिया कि घरवाले जबरन ढूंढ़ते हुए न पहुँच जाए| उसने बताया कि अब्बू की मौत की खबर सुनते ही मैं खुद को रोक ना पाई और घर चली गई थी| तीन दिन ठहरना हुआ| एक दिन भाईसाहब और बहने कह पड़ी- जो तुम कर रही हो वह सब छोड़ दो| यह इस्लाम के खिलाफ है| खुदा तुम्हें कभी ज़न्नत नहीं देगा| हमारे धर्म में लड़कियों का यह सब करना शोभा नहीं देता| हम पिछली बातों को भूल जाएंगे| उसने ना में हामी भरी और घरवालों के अंतिम शब्द वाक्य थे-
अभी चली जाओ यहां से| हम समझ लेंगे कि तुम मर गई हो हमारे लिए| फिर वहाँ लौट कर वह कभी नहीं गयी| अब वह अकेली थी किन्तु उसे संतोष था इस कर्म पथ को चुनकर….. | अधिति ने भी अपना मन हलका किया| बड़ा कठिन होता है विगत जीवन की स्थितियों-परिस्थितियों,भावों-अनुभवों को कुछ शब्दों में, कुछ वाक्यों में, कुछ क्षणों में कह पाना| वैसा ही आभास कराना जो हमें आभासित हुआ हो, जो हमने जीया हो, जिसे हमने जाना हो, जिसे हमने भोगा हो| पुनः मिलने की सांत्वना देकर और पुस्तकें लेकर अधिति चल पड़ी| बाहर निकलकर वह एक बेंच पर आकर बैठ गई| मानो यकीन दिला रही हो खुद को, अंदर जो हुआ वह सत्य था| प्रसन्नचित और व्यथित दोनों प्रकार के उमड़ते भावों को जैसे संतुलित कर रही हो| साफिया के माध्यम से झांक रही थी वह अपने भी मन को| कुछ ऐसी ही परिस्थिति तो है मेरे साथ भी| अलग होकर भी अधिक साम्य है हमारे जीवन में| क्या यह मेरी और साफिया की कथा है या स्त्री की आड़ में जाने कईयों की और अपनी पीड़ा को आत्मनिर्भरता की आड़ में छिपाए हंस रहे हैं हम खिलखिलाकर| तभी, ड्राइवर आता है-
मेम साहब काम हो गया?? चलेंगी क्या??
अधिति खुद को संभालती-
हां.. चलिए, मैं आती हूं|
एक बार पीछे मुड़कर, मुस्कुरा कर चल पड़ती है अपने गंतव्य की ओर| इस बार वह अकेली नहीं थी|