वस्तुतः मानवाधिकर वे अधिकार हैं जो प्रत्येक मानव को मानव होने के नाते सामाजिक वातावरण में रहते हुए जीवन में विकास एवं उत्कर्ष के लिए प्राप्त होते हैं। मानव अधिकारों का उपयोग कर मानव अपनी शारीरिक आत्मिक एवं सामाजिक तथा अन्य उपयोगी आवश्यकताओं की निबंध के रूप से पूर्ति करके व्यक्तित्व का समग्र विकास करने में समर्थ हो पाता है। अतः यह स्वीकार करने में कोई भी नहीं है कि मानव के उत्थान एवं उत्थान एवं उत्कर्ष के लिए जो सुविधाएं और नियम, ईश्वर, समाज व राज्य की ओर से प्राप्त हैं उन्हें अधिकार कहते हैं।
सृष्टि प्रक्रिया के साथ-साथ विभिन्न विचारकों ने मानव के कर्म स्वभाव और विचारों तथा कार्य व्यापारों और अधिकारों की विवेचना की है। वेद अपौरूषत्व होने के करण संप्रदाय पंथ और मतों के अंतर से रहित है उनमें मानवता के विधायक तत्वों के विश्लेषण का वैज्ञानिक विवेचन है। मानव मन संकल्प वाला है और संकल्प कार्य करने की सामर्थ्य का आधार है। कार्य को आरंभ करने की सामर्थ्य का नाम अधिकार है यह अधिकार ईश्वर प्रदत्त है तथा सृष्टि के अनादि काल से ही प्रत्येक मानव को प्राप्त है यदि सृष्टि का कोई प्रयोजन नहीं होता तो सृष्टि सृजन निरर्थक होता। विवेचन से विदित होता है कि इसका श्रजन प्राणी मात्र सुखार्थ है। वे सृष्टि का संविधान है तो यह कैसे हो सकता है कि सृष्टि के सर्वोत्तम प्राणी मानव के अधिकारों का उसमें वर्णन ना किया गया हो।
मानव ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति होने के कारण विचारकों , दार्शनिकों का केन्द्र रहा है समय पर उत्पन्न हुए विभिन्न मनीषियों ने वैदिक शिक्षा से जीवन दृष्टि प्राप्त की है और संसार को जीवन दर्शन की सर्वोत्तम शिक्षा का संदेष दिया। वेद मानवीय मूल्यों का आदि प्रेरक है विश्व के मानव मात्र की संस्कृति है उसमें मानवाधिकार की संकल्पना है।
बीसवीं सदी के संसार में अत्यधिक उथल-पुथल हुई सन् 1914 से 1918 तक प्रथम विश्व युद्ध हुआ। जिसने मानव मात्र को विनाश के गर्त में गिरने का मार्ग प्रशस्त किया, तीस के दशक में आर्थिक मंदी का दौर प्रारंभ पर हुआ, जिसमें भुखमरी और बेरोजगारी बढ़ी फासीवाद ने जन्म लिया जिसका परिणाम हुआ द्वितीय विश्व युद्ध किस में भीषण नरसंहार हुआ। सर्वजन हिताय और बहुजन सुखाय की अवधारणा लुप्त हुई तथा परस्पर देशों की हार जीत के चक्कर में एक की पराजित हुआ और वह भी मानवता। सम्पूर्ण में मानवता की हार ने मानव के मन को झकझोर कर दिया।
मानव अस्तित्व और जीवन उपयोगी उपागमों की सुरक्षा पर संकट उपस्थित होने लगा। तब विश्व के मनीषियों ने चिंतन किया। व्यक्ति को वस्तु के रूप में देखने की प्रथा जर्जर हुई और वैश्विक स्तर पर चेतना जागृत हुई जिसके परिणाम स्वरूप संसार में फिर से शक्ति व्यवस्था कायम रखने के लिए प्रयास प्रारंभ हुआ और 24 अक्टूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ का जन्म हुआ। एक सार्वभौम संगठन ने मानवाधिकारों को प्राथमिकता प्रदान की और 10 दिसम्बर 1948 को महासभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकृत तथा उदघोषित किया।
मानवाधिकारों को 30 अनुच्छेदों में वर्णित किया गया जिसमें एक स्वर से घोषणा की गई कि सभी मानव के गौरव और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतंत्रता और समानता प्राप्त है। उन्हें अंतरात्मा की देन प्राप्त है ओर परस्तपर उन्हें भाईचारे के भाव से बर्ताव करना चाहिए। कोई भी गुलामी या दासता की हालत में न रखा जाएगा गुलामी प्रथा व गुलामों का व्यापार अपने सभी रूप में शारीरिक यातना दी जाएगी, और ना किसी के प्रति अपमानजनक व्यवहार होगा। प्रत्येक व्यक्ति को विचार और उसकी अभिव्यक्ति का अधिकार है तथा व्यक्ति के मानवीय अधिकारों के प्रति कुठाराघात नहीं किया जा सकेगा।
आधुनिक हिन्दी साहित्कारों में प्रेमचंद एक वैश्विक साहित्यकार हैं तथा उनका साहित्य आसमान पर चमकते एक ऐसे तारे हैं जिसकी चमक भी समाप्त नहीं हो सकती । उनके द्वारा बताए गये विचार एवं संदेश आज भी प्रासंगिक हैं उन्होंने जो कुछ भी दिल से लिखा। यही कारण है कि विश्व के सभी प्रमुख भाषाओं में उनकी कहानियों एवं उपन्यासों के अनुवाद किये गये और उन भाषाओं के असंख्य पाठकों पराधीन भारत के इस स्वाधीनताकामी प्रतिभाशील एवं ऊर्जावान कथाकार की ऐसी कथात्मक रचनाओं से साक्षात्कार हुआ, जिसमें दासता की जंजीरों में जकड़े हुए सोये भारत के जागरण की जीवंत कहानियाॅ कही गई थी। वे बड़े लेखक होने के साथ-साथ एक महान व्यक्ति भी है क्योंकि उनका साहित्य हमेशा सम्पूर्ण विश्व के लिए प्रेरणा स्रोत रहा।
प्रेमचंद्र जी को महत्वपूर्ण लेखक कहा जाए या फिर एक इंसान समझा जाए। इंसाफ का तराजू उठाने वाला जिस तरह आंखों पर पट्टी बांधकर आपने दोनों पल्लों को बराबर साधे खड़ा रहता है कुछ वैसा ही प्रेमचंद जी के साथ रहा है। वह इंसान बड़े हैं या लेखक यह कह पाना अति दुष्कर है क्योंकि उनकी कथा साहित्य आलोकत करने के उपरांत यही कहा जाता है कि यकीनन प्रेमचंद्र जी दोनों का मिश्रण थे तथी उनकी लेखनी मे सकारात्मकता का संगम अपनी छठा फैलाता आ रहा है।
प्रेमचन्द्र जी ने अपने साहित्य के माध्यम से उस समय देष में व्याप्त लगभग सभी समस्याओं पर प्रकाश डाला है। जैसे हिंदू मुसलमान की समस्या गरीब किसानों पर हो रहे जमीदारों के अत्याचार, नारी समस्या, रूढ़िवादी विचारधारा, जातिगत समस्याएं, दलित समस्या, विधवा विवाह समस्या और इन सब के पीछे मूल कारण मानवधिकारों का हनन, मानव को मानव ना समझ कर उसे अन्य वस्तुओं की तरह प्रयोग करना। प्रेमचन्द्र जी की प्रत्येक रचना अपने आप में मूक स्वर से मानव अधिकारों की कथा कहती हुई चलती है। उन्होंने समाज पर उड़ते गिरते पर्दे के भीतर झांककर यथार्थ को पहचाना और पिसी हुई मानवता तथा गिरते हुए मानव मूल्यों को अपने उपन्यासों एवं कहानियों में रूपांतरित करके जन-जन तक पहंुचाया क्योंकि उन्होंने जो कुछ देखा परखा और अनुभव किया उसी को अपनी कथा में सहज सरल प्रभावशाली एवं सुरूचिपूर्ण भाषा मेें लिख दिया।
मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा रचित कहानियों की संख्या 300 से अधिक है जो मानसरोवर के 6 भागों में संग्रहित है वर्ष 1916 में उनकी पहली कहानी पंच परमेश्वर प्रकाशित हुई उसके बाद शतरंज के खिलाड़ी, अलग्योझा, पूस की रात, सुजान भगत, कफन, धिक्कार, ठाकुर का कुआं, लांछन, मनोवृति, नमक का दरोगा आदि एक के बाद और पहचान हासिल की।
प्रेमचन्द्र जी ने समाज को अति निकटता से आका था और पाया था कि जब तक मनुष्य के मानवीय अधिकारों के प्रति जागरूकता नहीं आएगी तब तक समस्याओं का अंत नहीं हो सकता उन्होंने यथार्थवाद का आश्रय ग्रहण किया और जो अधिकार 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा सार्वजनिक रूप से प्रदान किए प्रेमचन्द्र जी उन्हीं मानवाधिकारों का दिग्दर्शन 1916 से कराते आ रहे थे उनकी प्रारंभिक कहानियों में आदर्श दिया गया है पंच परमेश्वर, ईदगाह, नमक का दरोगा, कहानियों का मूल उद्देश्य सच्चे का बोलबाला झुठे का मुंह काला है। जबकि पूस की रात और कफन तक आते-आते उनका दृष्टिकोण बदल गया अब जीवन के यथार्थ से जुड़ गए थे सद्गति, नशा, कफन जो उनकी यथार्थवादी कहानियां है कभी शोषण मुल्क व्यवस्था पर टिप्पणी करते है।
प्रेमचन्द्र जी ने पाया था कि मानव परिवार के सभी सदस्यों के जन्मजात गौरव और सम्मान तथा अविच्छिन्न अधिकार की स्वीकृति विष्व शांति न्याय और स्वतंत्रता की वास्तविक बुनियाद हैं यही नींव का पत्थर है जिस पर मानवता की गगनचुबी इमारत खड़ी की जा सकती है।
मुंशी प्रेमचन्द्र ने अपने अनुभव में पाया था मानव अधिकारों के प्रति उपेक्षा और घृणा के फल स्वरूप ही ऐसे बराबर कार्य हुए हैं जिसमें मनुष्य की आत्मा पर अत्याचार किया गया है उपन्यासकार के रूप में उनकी यही भावना मूर्त रूप ले कर उभरी उन्होंने समकालीन यथार्थ को बहुत कलात्मक ढंग से किया  साहित्य में जोड़ दिया उनके वर्षों के अनुभव संसार के भारतीय जीवन के यथार्थ को हम उनके उपन्यासों में प्रति फलित होते देख सकते हैं।
‘‘अनुच्छेद 22 मंे कहा गया है समाज के एक सदस्य के रूप में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सामाजिक सुरक्षा का अधिकार है अन्य वार्ता आवश्यक आर्थिक सामाजिक और संस्कृति की प्राप्ति का हक है‘‘
1. वही प्रेमचन्द्र जी के उपन्यासों कर्मभूमि और गोदान में किसी का दिग्दर्शन कराया गया है उपन्यास गोदान का मुख्य पात्र होरी अपने मानवीय अधिकारों से ही वंचित है वह आर्थिक सामाजिक व सांस्कृतिक तीनों हकों को प्राप्त करने के बजाय विदेषी सरकार जमीदान और महाजन के तिहरे पोषण में फस रहा है, पीस रहा है। प्रेमचन्द्र के मानवाधिकारों के हनन करता के रूप में राय साहब लाला पटेस्वरी दरोगा जी साॅन्गवाइन मगुरू सा और पंडित दातादिन को प्रस्तुत किया है। बिलारी गांव के समस्त किसान जिनके दुर्भाग्य की कहानी प्रेमचन्द्र ने कही है सभी उपने अधिकरों से वंचित हैं और आज भी प्रत्येक गांव समाज में होली की परंपरा को निर्बाध गति से आगे बढ़ा रहे हैं।
‘‘अनुच्छेद 5 में मानवाधिकार को लेकर कहा गया है कि किसी को भी शारीरिक यातना नहीं दी जाएगी और न किसी के प्रति निर्णय अमानुष एक या अपमानजनक व्यवहार होगा हर किसी को जीवन रक्षा व स्वाधीनता और व्यक्तिगत सुरक्षा का अधिकार है।‘‘
2. जबकि वास्तविक धरातल पर इसे फलीभूत होते नहीं पाया जा रहा है प्रेमचन्द्र जी ने सद्गति कहानी में दुखिया नामक पात्र की जो दशा चित्रित की है वह पढ़कर पाठक भीतर तक चिलबिला जाता है अतः लेखक ने स्पष्ट रूप से दिखाया कि दुखिया धार्मिक पाखंड और शोषण का शिकार बन कर मर जाता है देखो उस पर व्यंग भी करता है यही जीवन पर्यंत की भक्ति सेवा एवं निष्ठा का पुरस्कार था। यहीं लेखक ने महाजनी सभ्यता में मानवीय अधिकारों का हनन की गति से होता है। उसका वर्णन सवा सेर गेहॅू में किया है। वह शोषण का रूप इतना भयावह है कि कर्ज में लिए गए सवा सेर गेहूं को एक पीढ़ी तो चुका नहीं पाती दूसरी पीढ़ी भी चुका पाएगी इसमें संदेह है अतः आज के मानवीय अधिकार घोषणा पत्र में उल्लेखित अधिकार प्रेमचन्द्र द्वारा उठाए गए प्रश्नों को पूर्ण प्रभावित करते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है।
मानवाधिकार घोषणापत्र में अनुच्छेद 16 में जो अधिकार प्रदान किया गया है उसका संकेत प्रेमचंद्र जी ने अपनी कहानी धिक्कार में पहले ही कर दिया था। ‘‘अनुच्छेद 16 का गया है वयस्क स्त्री पुरूषों को बिना किसी जाति राष्ट्रीयता या मत की रूकावट के आपस में विवाह करने और परिवार बसाने का अधिकार है विवाह का इरादा रखने वाले स्त्री-पुरूष की पूर्ण और स्वतंत्र सहमति पर ही विवाह हो सकेगा।‘‘ प्रेमचन्द्र जी की मैं इंद्रनाथ नामक पुरूष मानी जो विधवा स्त्री से प्रेम करता है इौर उसके चचेरे भाई गोकुल की आज्ञा से मानी के साथ विवाह बंधन में बन जाता है लेकिन विवाह उपरांत जब मानी का चाचा वंषीधर उसे रेलवे स्टेषन पर मिलता है तो मानी को मिलने वाले इस अधिकार की धज्जियां उड़ा देता है।
3. ‘‘ लेखक ने लिखा है एकाएक उसके वंशीधर को देखा वह गाड़ी से निकल कर खड़ी हो गई और चाचा की ओर बढ़ी उसके चरणों पर गिरना चाहती थी कि वह पीछे हट गए और आंखें निकालकर बोले मुझसे दूर रहें अभागिन कहीं की। मुंह में कालिख लगाकर मुझे मौत भी नहीं आती है तूने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया तेरे लिए क्या गंगा में पानी नहीं है मैं तुझे ऐसी हरजाई समझता तो पहले ही दिन तेरा गला घोट देता। मुझे भक्ति दिखला ने चली है तुझ जैसी का मारना ही अच्छा है। पृथ्वी का बोझ कम हो जाएगा।‘‘
मनवाधिकार घोषणापत्र में अनुच्छेद 25 में आजीविका रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा जैसी मूलभूत आवश्यकताएं का वर्णन आया है। जबकि लेखक परिचय में कफन, बलिदान, ठाकुर का कुआं जैसी कहानियों के माध्यम से जन जागरण करता दिखाई देता है। ठाकुर का कुआं कहानी में तो अधिकारों के शोषण की सीमा का ही अतिक्रमण कर दिया है। जोखू नामक कृषक मनुष्य है पर गांव के जमींदार ठाकुर द्वारा उसका मूल्य पशु से भी बदतर है। तबी पानी जैसी मुक्त में मिलने वाली का उपयोग वह ठाकुर के भय से नहीं कर पाता और बदबूदार पानी पीने के लिए मजबूर होता है।
4. ‘‘ गंगी झुकी की घड़े को पकड़कर जगत पर रखें कि एकाएक ठाकुर का दरवाजा खुल गया शेर का मुंह से अधिक भयानक न होगा गंगी के हाथ से रखती छूट गई के साथ गढ़ा धड़ाम से गिरा ठाकुर साहब पुकारते हुए कि कौन है कुए की तरफ आ रहे थे ? और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी घर पहुंच कर देखा कि जोखू लोटा मुंह में लगाए वहीं मेला गंदा पानी पी रहा था।‘‘
मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान में मूल अधिकारों का प्रावधान किया गया है और अनुच्छेद 23 व 24 में शोषण के विरूद्ध बेगार प्रथा पर रोक लगाई गई है तथा समानता लाने के लिए नीति निर्देषक तत्वों की व्यवस्था अनुच्छेद 36 से 51 तक की गई है। यही नहीं मानवाधिकार घोषणापत्र के भाग अनुच्छेद 4 में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि कोई भी गुलामिया दासता की हालत में नहीं रखा जा सकता और किसी से बिना उचित मजदूरी नहीं कराई जा सकती प्रेमचन्द्र जी ने उपन्यास गोदान में इसी प्रथा का संकेत देते दिखाई पड़ते हैं राय साहब बेटा से कहते हैं।
5. ‘‘किसी को भी दूसरे के दम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है पर परजीबी होना लज्जा की बात है समाज की ऐसी व्यवस्था जिसमें कुछ लोग मौज कर रहे है लेकिन विचित्र है या शोषण करता वर्ग कि एक ओर तो या वर्ग अपने जीवन को देखकर दुखी है और दूसरी ओर इस स्थिति में भी अपने शोषणकारी चक्र को नहीं रखना चाहता। राय साहब गोरी के सामने या बखान कर ही रहे थे उन्हें पता चलता है कि बेगारी ने काम करने से मना कर दिया है या सुनते ही राय साहब के माथे पर बल पड़ गए और आंखे निकाल कर बोले चलो इन दोस्तों को ठीक करता हॅू कथनी और करनी में कितना अंतर है।‘‘
प्रत्येक व्यक्ति को आपने मातृभूमि पर बसने घूमने व पर श्रद्धा भाव रखने का अधिकार है और उसकी सुरक्षा का ध्यान में रखते हुए उसके प्रति समर्पण भाव रखना उसका कर्तव्य है उसके इन पर रोक लगाना या राष्ट्रप्रेम के लिए दंडित करना मानवीय अधिकारों का हनन है अनुभव कहानी में एक व्यक्ति को सजा हुई इसलिए हुई कि उसने गर्मी के तपते लोगों को शीतल जल पिलाया।
6. प्रियतम को 1 वर्ष की सजा हो गई और अपराध केवल इतना था कि 3 दिन पहले जेठ की तपती दोपहरी में उन्होंने राज्य के कई सेवकों को शरबत से सत्कार किया था मैं उस वक्त अदालत में खड़ी थी कमरे के बाहर ही राजनैतिक चेतना की भांति खड़ी रही थी। कमरे के बाहर सारे नगर की राजनैतिक चेतना किसी बंदी पशु की भाटी चित्कार कर रहे थे आवेष की लहरें समस्त शरीर को रोमांचित कर देती थी।
वर्तमान प्रासंगिकता की दृष्टि कसे देखा जाए तो हम पाएंगे कि मुषी प्रेमचन्द्र अपने कथा साहित्य के माध्यम से असंख्य पीड़ित और चर्चित व्यक्तियों के कल्याण के लिए अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा बनाए रखने के लिए राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के प्रोत्साहन आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक तथा मानवीय समस्याओं के समाधान में सहयोग के लिए विभिन्न राष्ट्रों में सामंजस्य स्थापित करने में केंद्र बिंदु की भूमिका अदा की है जिसमें विश्व में शांति तथा सुरक्षा कायम रह सके प्रत्येक मानव अपने अधिकारों को प्राप्त करें जीवन के लक्ष्य में शांति और सुख का उपयोग कर सकें।
मानवाधिकारों का संरक्षण होने के साथ-साथ उनके प्रति जनमानस की जागृति भी अति आवश्यक है अतः प्रेमचन्द्र जी इसमें भी पीछे है कफन कहानी में युवा माधव ने वार्तालाप द्वारा शोषण के विरूद्ध बिगुल बजाया है।
7. ‘‘घीसू खड़ा हो गया और उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला हां बेटा बैकुंठ में जाएगी किसी को सताया नहीं किसी को दबाया नहीं मरते मरते हमारे जिंदगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गई व न बैकुंठ जाएगी तो क्या वे मोटे मोटे लोग जाएंगे जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं और अपने पाप को धोने के लिए गंगा नहाते हैं।
उपन्यास गोदान में होरी कर्ज से मुक्ति पाने के लिए अपने पारिवारिक प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए सतत परीक्षण करता है वह सारे कष्टों और अन्याय को सहता है। किन्तु अपने जीवन क्रम से नहीं हटता एक मजदूर उससे पूछता है कि तुम बहुत कमजोर हो गए हो। तो होली का प्रतिउत्तर सब को प्रभावित करता है वह अन्याय के विपक्ष में शंखनाद है ओर अप्रत्यक्ष रूप से हमें समानता चाहिए की पुकार है और होली की पुकार लेखक की कलम से ऐसे ही की समता के अधिकार से परिणित हो गयी।
8. ‘‘तो क्या मोटा होने के दिन है वह मोटे है जिन्हें न इनकी सोच है न इज्जत की इस जमाने में मोटा होना बे हयाई है 100 को दुबला करके तब एक मोटा होता है। ऐसास मोटापन से क्या सुख तो जब है कि सभी मोटे हो प्रेमचन्द्र के साहित्य का उद्देश्य व्यक्ति में संस्कार उत्पन्न करना स्वीकार करते है यही कारण है कि उनके प्रारंभिक उपन्यासों का अंत आदर्शवादी ढंग पर और कहानियों में नैतिक मूल्यों तथा मानवता को विशेष महत्व दिया गया है उनके कथा साहित्य का मूल्यांकन करने के बाद स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि उनका कोई पात्र न तो सर्वगुण संपन्न है न देवता जैसे गुणों वाला और न ही दानवता कि साक्षात प्रतिमूर्ति हे उसका मुख्य कारण क्या कहा कि वे तो मानव को उसके समस्त गुण दोषों के साथ प्रस्तुत करना चाहते थे और इसलिए उनका चित्रांकन जीवन की वास्तविकता के निकट है।
वस्तुतः प्रेमचन्द्र हिन्दी साहित्य के ऐसे सर्वप्रथम कथाकार थे जिन्होंने जीवन की वास्तविकता को उसके निकट से झांक कर देखने का प्रयत्न किया और उनका देखा हुआ दीन दुखी प्राचीन एवं परंपराओं से नवयुग की चेतना से अपरिचित समाज ही भारत का वास्तविक समाज था संयुक्त राष्ट्र ने जिन अधिकारों की बात 50 वर्ष बाद की पर प्रेमचन्द्र जी की रचना अधिकारों की बात करती है जनमानस को इसके प्रति जागरूक करती है और देशकाल वातावरण की सीमा को लेकर आगे भी करती रहेंगी प्रेमचंद्र प्रासंगिक है और हर देशकाल में रहेंगे।

संदर्भ सूची – 
1. शिक्षा और समाज- राम सकल पांडे पेज 216 अग्रवाल प्रकाशन
2. आधुनिक इतिहास- अरिहंत प्रकाशन पेज 197
3. मानसरोवर भाग-1 कहानी धिक्कार पेज 175 बीवी प्रकाशन वाराणसी
4. मानसरोवर भाग-1 कानी ठाकुर का कुआं पेट 112 बीवी प्रकाशन वाराणसी
5. उपन्यास गोदान प्रेमचन्द्र पेज 38 सुमित्र प्रकाशन
6. मानसरोवर भाग – 1 कहानी अनुभव पेज 209 बीवी प्रकाशन वाराणसी
7. कहानी संकलन प्रेमचन्द्र कहानी कफन पेज 14
8. उपन्यास गोदन प्रेमचन्द्र पेज 308 सुतित्र प्रकाशन अशोक नगर इलाहाबाद

 

डाॅ. गरिमा जैन
अर्मापुर पी0जी0 काॅलेज
कानपुर

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