कुल्हड़ में गर्मी ड़ाल सर्दी को सुढ़क लेती थी
वाष्प अपने पारदर्शी गर्दन से  गटक लेती थी
नहाकर,जब भी आती थी वह मुंडे़र पर यारों
भींगी जुल्फों से, पानी की बूंदें झटक देती थी ।

फिर तो  उनकी गलियों के  मुसाफिर  हो गए
ऐसे भटके कि   दुनियां से  गैरहाजिर हो गए
आंखों में अश्क भर  जब जब  मुस्कुराता था
जमाने को  लगता था   हम मुहाजिर  हो गए ।

तितली के पंख औ मौसम की पहली बारिश
शीतल हवा के सिहरन में  चाय की ख्वाहिश
मेरे बेहिसाब इश्क़ की   इकलौती वारिस थी
किसी उम्रकैदी को ज्यूं जीने की आजमाइस ।

उतारा था  हथेलियों पर  मुट्ठी भर  आसमान
मुस्कुराये थे  फिर से मेरे,  सोए हुए  अरमान
ना जाने   किसकी  बद्दुआ  लग गई   हमको
बिखरकर   रह गया  मेरे  सुकून का  सामान ।

बहुत रोया हूं फुरकत में  अब रो नहीं सकता
रंजिशों को दी माफी  इन्हें मैं बो नहीं सकता
जागते जागते  आंखें मेरी   पथरा गई हैं यार
तुम कहोगे तो भी मैं    अब सो नहीं  सकता ।

मनीष सिंह “वंदन”
आदित्यपुर, जमशेदपुर

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *