जीवन सदैव से ही आकांक्षाओं, उनकी पूर्ति के लिए होने वाली जद्दोजहद और उनके न पूरे होने से उत्पन्न होने वाले अभावों की आती-जाती लहरों का अथाह सागर है | स्थान,काल और देश के मुताबिक़ निर्मित होने वाली अनेक सभ्यताओं और संस्कृतियों के बीच विशिष्ट विचारधाराओं की उत्पत्ति और विकास हुआ | अपने समय की विशिष्ट परिस्थितियों के मध्य उस युग की ख़ास ज़रूरतों को समझते हुए ही अलग अलग भौतिक और आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ |
“हर तरफ, हर जगह बेशुमार आदमी ,फिर भी तन्हाहाइयों का शिकार आदमी
ज़िन्दगी का मुकद्दर सफ़र दर सफ़र, आखिरी सांस तक बेक़रार आदमी ”
निदा फ़ाज़ली के इस शेर के द्वारा इन्सान की अपने अस्तित्व को खोजने और बचाने के संघर्ष और द्वंद्व को समझ जा सकता है | अलग-अलग समय में, विविध स्थानों पर जीवन की परिस्थितियों के अनुसार अस्मिताओं के संकट उपस्थित होते रहे | अस्तित्त्ववादी विचारधारा भी इंसानी अस्तित्त्व की रक्षा की चिंता के लिए कारण हमेशा से होने वाले चिंतन मंथन के परिणामस्वरूप 1940-50 ईस्वी में अस्तित्त्व में आई जिसका प्रभाव 21शती के साहित्य में भी दिखाई पड़ता है | यह मानव केन्द्रित दृष्टिकोण है जो सम्पूर्ण जगत में मानव को सबसे अधिक महत्त्व प्रदान करता है | उसके लिए मनुष्य ही एकमात्र साध्य है | प्रकृति के बाकी उपादान केवल ‘वस्तू’ हैं | मनुष्य को महत्त्व देते हुए उसकी ‘आत्मनिष्ठता’ को सर्वोपरि रखा गया है न की उसकी ‘वस्तुनिष्ठता’ को | आधुनिक भाव-बोध के साथ एक बात बहुत ही स्पष्ट रूप में हमारे समक्ष आती है कि आधुनिकता मनुष्य को केंद्र में रखते हुए उसके मनो-रागों-विरागों को महत्त्व देती है और वह भी भाववादी विचारधारा से बिलकुल अलग,जो ईश्वर को केंद्र में रखती है | ऐसी दृष्टि-प्रक्रिया के मध्य विज्ञान,तकनीक और बुद्धिवादी विचारधाराओं ने मनुष्य को भी ‘वस्तु’ बना कर रख दिया | अस्तित्त्ववाद इस बात को महत्त्व देता है कि मनुष्य की पहचान उसके व्यक्तित्त्व के आधार पर होनी चाहिए | जब व्यक्तित्त्व की बात होती है तो यह प्रश्न उठता है कि उसकी पहचान कैसे हो ? अस्तित्ववाद की दो विचारधाराएं प्रचलित हुई ,इश्वार्वादी और अनीश्वरवादी जिनमे ‘सार्त्र’ जो कि अनीश्वरवादी हैं ,के अनुसार मनुष्य स्वतन्त्र प्राणी है | वह ईश्वर की सत्ता को नकारते हुए इस बात को स्थापित करता है कि मनुष्य खुद का निर्माता है क्योंकि वह स्वतंत्र है | ऐसे अनेक विचारको ने मनुष्य के व्यक्तित्त्व की स्वतंत्रता की बात की | उनके अनुसार स्वतन्त्र वह है जो स्वतंत्र रूप से चयन कर सके | स्वतन्त्र व्यक्ति वह है जो कई विकल्पों में से उपयुक्त का चयन करता है और वह भी अपनी अंतरात्मा के अनुसार | ‘कीर्केगार्द’ ने भी कहा है कि महान से महान व्यक्ति की महानता संदिग्ध रह जात्ती है ,यदि वह अपने निर्णय को अपनी आत्मा के सामने स्पष्ट नही कर लेता | ये ईश्वरवादी अस्तित्ववाद के प्रवर्तक थे जिनके अनुसार संसार में निरर्थक जीवन को सार्थक एवं सम्पूर्ण बनाने के लिए निष्ठा और ईश्वर में आस्था ज़रुरी है और वह प्रयास मनुष्य को खुद ही करना होता है | तो ईश्वरवादी विचारधारा भी जब मनुष्य के व्यक्तित्व की बात आती है तो उसकी ज़िम्मेदारी मनुष्य की अंतरात्मा पर ही डालता है | इस प्रकार दोनों ही प्रकारों में एक बात स्पष्ट है और वह यह कि मनुष्य ईश्वर ,समाज या उसकी अपनी बाईलोजी द्वारा संचालित न होकर स्वयं के द्वारा ही नियंत्रित है |
कन्नड़ भाषा के सशक्त लेखक गिरीश कर्नाड की रचनाओं में इसी अस्तित्त्व की खोज और उससे जुड़ी अभिव्यंजनाएं उपस्थित हैं | भारतीय समाज की विषम संरचनाओं में व्यक्ति और उसकी अस्मिता से जुड़े हुए प्रश्नों से जूझना इतना सरल नहीं होता | साहित्यकार को बड़ी ही सतर्कता के साथ मानवीय संवेदना की ऊर्जा को बचाते हुए विपरीत स्थितियों से बाहर आना होता है | व्यक्ति की अस्मिता की खोज वास्तव में समाज को सही दिशा देने का कार्य कर सकती है | गिरीश कर्नाड पाश्चात्य दर्शन से प्रभावित हैं | पश्चिमी साहित्य के स्वरूप को उन्होंने भारतीय ज़मीं के मानवीय संबंधों में टटोला और विश्लेषित किया | भारतीय अंग्रेज़ी ड्रामा में वे अस्तित्ववाद के महत्त्वपूर्ण प्रतिपादक थे | उनके नाटक ‘तुगलक’ और ‘हयवदन’ अस्तित्ववादी विचारधारा के उदाहरण हैं | ये दोनों ही नाटक अस्तित्ववादी विचार दर्शन से परिपूर्ण हैं | इनमें प्रस्तुत स्थितियाँ चुनाव की समस्याओं, व्यक्ति-स्वातंत्र्य एवं मानवीय क्षुद्रताओं को प्रस्तुत करती हैं |
समाज को सही दिशा देने का काम मौन होकर नहीं ,मुखर होकर किया जा सकता है | “गिरीश कर्नाड आधुनिक जीवन की विसंगतियों को मिथकों के अंत:बाह्य खंगाल द्वारा राह खोजने के आशावादी प्रयत्न करते रहे |” (समकालीन भारतीय साहित्य सित.अक्टू.2019,पृ.152) इसलिए उन्होंने अपने नाटकों में इतिहास से लेकर लोक प्रचलित कथाओं आदि की पृष्ठभूमि पर आधुनिक समाज की उलझनों और विषमताओं को प्रस्तुत किया | इब्सन और शॉ के रियलिस्टिक थिएटर से प्रभावित होकर गिरीश कर्नाड ने अपने नाटकों की कलात्मकता और लोकधर्मिता के समन्वय के साथ अनेक प्रयोग किये | रंगमंच लोक से निकट होने के कारण उसमे उभरते प्रश्नों और परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील हो जाता है | पर्रिवार्र्तन इतना आसान नहीं होता है, प्रचलित मान्यताएं को जब उनकी यथानुरूपता में अस्वीकार किया जाता है तब नयी व्यवस्था को प्रत्येक स्तर पर जूझना होता है | गिरीश कर्नाड अपने समय की जीवित सच्चाईयों से सरोकार रखने वाले रचनाकार हैं जिन्हें वे अपने सभी नाटकों में इन्हें उद्घाटित करते हैं | वास्तव में उनके सभी नाटक व्यक्ति स्वातंत्र्य और उसकी बहुआयामी मनोवृत्तियाँ वास्तव में अस्मिता को तलाशने का जरिया बन कर उनकी भावभूमि को अभिव्यंजित करते हैं | अस्तित्ववादी दर्शन अपने में निराशा, पीड़ा और अजनबीपन की स्थितियों को इसीलिए लिए होता है क्योंकि वह व्यक्ति की तलाश करता है | इनके नाटक ‘ययाति’ में व्यक्ति की कर्तव्यपरायणता और उसके महत्त्व को रेखांकित किया गया है | इसमें वे साफ बताते हैं कि नीति का अर्थ सामान्य जनता की रक्षा के लिए बाँधी गयी एक गाँठ है | ‘तुगलक’ हमारे समय के मॉडर्न क्लासिक के रूप में जाना जाता है | मनुष्य के जीवन में उत्पन्न होने वाली उन समस्याओं को उठाता है जो उसके जीवन दर्शन के कारण न केवल उन परिस्थितियों को बनाती है बल्कि उसके भविष्य को सुनिश्चित कर देती है | ‘हयवदन’ का नाट्य प्रयोग इस दिशा में अभूतपूर्व दिखाई देता है | यह नाटक ऎसी तकनीक को लिए हुए है जिसमे गिरीश कर्नाड असंगत, ऊटपटांग, बुद्धिविरुद्ध, बेतुके या हास्यास्पद स्थितियों को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि नाटक की समस्या सीधे दर्शकों तक पहुँच पाने में सफल होत्ती है | हिंसा, हास्य-व्यंग्य, प्रेम, रहस्य, द्वंद्वात्मक स्थितियों के इर्द-गिर्द जीवन के अंतर्विरोधों, संकटों, दबावों और तनावों आदि को स्त्री-पुरुष के संबंधों के बीच में पड़ताल करते हुए इस नाटक में अलग-अलग व्यक्तित्त्वों की खोज हुई है |
प्रसिद्द नाटककार निकोल कहते हैं, “Drama is a copy of life, a mirror of custom, a freedom of truth.” सामाजिक परिवेश की सारी कुत्सित प्रवृत्तियाँ एवं अमानवीय संघर्ष कथ्य का केंद्र बिंदु हैं | स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध पर नए दृष्टिकोण से देखते हुए वे दैहिक एवं मानसिक सम्बन्ध के द्वंद्व को और उससे उपजे तनाव को खोलने का प्रयास ‘हयवदन’ नाटक में करते हैं | इस कथानक में भी एक पैरडाईम शिफ्ट दिखाई देता है | जो जीवन में घटित हो रहा है उस यथार्थ को सीधे नाटक की वस्तु से जोड़ा गया है | स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के विविध आयाम जो सामान्य तौर पर इतने महत्त्वपूर्ण नहीं समझे जाते लेकिन जीवन के असंतुलन के लिए ज़िम्मेदार होते हैं ,उन्हें पहचानने की प्रक्रिया इस नाटक में दिखाई देती है | इसकी वस्तु मनुष्य की उस खोज को लिए हुए है ,जो लगातार पूर्णता की तलाश में है | यह पूर्णता जिसे वह इस अपूर्ण और अधूरे संसार में प्राप्त करना चाहता है | सभी मनुष्य कहीं न कहीं इसी असंगत स्थिति का शिकार हैं और अपनी अपूर्णता के साथ जूझ रहे हैं |
स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के लिए सुनिश्चित मानकों की पड़ताल :-
नाटक के मूल अर्थ में प्रतीको के माध्यम से नए रूपक पैदा करने में गिरीश कर्नाड दक्ष हैं | वे समकालीन जीवन की विसंगतियों के कारण सामाजिक व्यवस्था की तर्कहीनता को प्राचीन कथाओं, लोक परम्पराओं आदि में इस तरह से पिरो देते हैं कि पता ही नहीं चलता कि वे किसी प्राचीन कथा फलक पर रच रहे हैं | ‘हयवदन’ नाटक की वस्तु ‘कथासरित्सार’ से ली गयी है | कथानक का ताना-बाना थॉमस मैन की कहानी ‘Transposed Heads’ से प्रेरित होकर बनाया गया है | इसमें कपिल और देवदत्त नामक चरित्र इसी कहानी की प्रेरणा से रचे गए हैं | यह कहानी भी तर्कसंगत संरचना को परिभाषित करती है जो मनुष्य की अस्मिता को सही मायनों में परिभाषित करती है |”सामाजिक दायित्वबोध से उपजी वृहद कैनवास पर अपने विचारों के भाव-सत्य की कूची से तमाम अवरोधों को तोड़ते हुए समाज को आईना दिखाने का काम कथानक करता है |”(समकालीन भारतीय साहित्य-सित-अक्तू.2019-पृ.153)नाटक में व्यक्त सत्य और जीवन के सत्य का सम्बन्ध किस रूप में देखा जाता है,यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है | ऐसी मानसिक कुंठाओं की निर्मितियों को हम आधुनिक समाज में भी परख पाते हैं | देवदत्त और कपिल गहरे मित्र होते हुए भी अपने अपने व्यक्तित्त्व के अभावों से पीड़ित और त्रस्त हैं | इन अभावों की पूर्ति वे एक दूसरे के व्यक्तित्त्वों में पाते हैं और खुद को अपनी अस्मिता / अस्तित्वहीनता के द्वंद्व से सदैव तनावग्रस्त पाते हैं | विशेष रूप से तब ,जब उनके जीवन में पद्मिनी का प्रवेश होता है | पुरुष केन्द्रित समाज समाज में स्त्री हमेशा गौण रही है परन्तु इस नाटक में गिरीश कर्नाड की कथावस्तु में पैरडाइम शिफ्ट तब दिखाई देता है जब आत्मविमुग्ध देवदत्त और मस्त मलंग कपिल पद्मिनी की उपस्थिति से अपना मूल्यांकन करने लगते हैं | इस स्वाभाविक मनोवृत्ति को हमारे समाज में भले ही अनदेखा कर दिया जाता रहा है क्योंकि पुरुष का वर्चस्व शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से हमेशा ही स्वीकार्य रहा है, परन्तु इस अस्मिता की पहचान के इस आधारभूत सत्य को कर्नाड ने इस नाटक में प्रस्तुत किया |
इसका सीधा सम्बन्ध स्त्री-पुरुष के अंतर्संबंध है जिसके माध्यम से वे जीवन का यथातथ्य निरूपण विशेष कलात्मक ऊर्जा और सतत्त प्रवाह की शैली में करते हैं | इसमें उनकी सजग आत्म साक्षात्कार शैली में ‘प्रामाणिक अनुभूति’ का भी परिचय मिलता है |
पद्मिनी का देवदत्त और कपिल के जीवन में आना वास्तव में उनके लिए अस्मिता के संकट जैसी स्थिति को उत्पन्न कर देता है | उनके बीच हीनता तब घर करती है जब पद्मिनी को कपिल से प्रेम हो जाता है | सामान्यत: एक पुरुष और कई स्त्रियों से उसके सम्बन्ध को बड़े ही सहज रूप में मान लिया जाता है परन्तु इस नाटक में उसी पुरुष के अहमतुष्टि के उपादान के रूप में जब एक स्त्री उपस्थित होती है तो स्थिति जटिल हो जाती है | तब अस्मिता का संकट उत्पन्न हो जाता है | समाज की वर्चस्वप्रधान शक्तियां तभी तक शक्तिशाली रहती हैं जब तक उन्हें पोषित करने वाली समर्पित भावनाएं उपस्थित हों | यद्यपि पद्मिनी देवदत्त की पत्नी के रूप में उसके मस्तिष्क अर्थात ज्ञान-बुद्धि को पसंद करती है फिर भी वह कपिल की सुगठित देह की सदैव प्रशंसक रहती है | उसे उसके शरीर की उत्कंठा रहती है | स्त्री की आकांक्षाएं इच्छाएं इतने मुक्त भाव से साहित्य के धरातल पर विचरती हुई कम ही दिखायी देती हैं | इस नाटक में स्त्री तमाम स्थितियों की धुरी बन कर उपस्थित हुई है | साथ ही देवदत्त और कपिल भी अपनी स्वाभाविक मनोवृत्तियों के विशुद्ध धरातल पर खड़े हुए हैं | इन तीनो के ही चरित्र कहीं से भी अराजक या अनैतिक नहीं हैं न ही इनमें किसी प्रकार की जटिलता नहीं है | परन्तु ये मनुष्य देह और मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए विचारों की संकीर्णताओं और दुर्बलताओं को प्रस्तुत करते हैं | समाज की मान्यताएं और आदर्श इनकी स्वाभाविकता से टकरातीं हैं तब इनके समक्ष जटिलताएं उत्पन्न हो जाती हैं और तब वे उसका निदान अपने स्व के त्याग से करते हैं | यहाँ मानवीय महत्त्वाकांक्षा की अपूर्णता भी उतनी ही तीव्रता से प्रतिबिंबित हुई है |
जब काली मंदिर में देवदत्त और कपिल दोनों ही अपने शीश काट देते हैं, पद्मिनी बहुत अधिक दु;खी हो जाती है | इसके लिए वह स्वयं को ज़िम्मेदार मानती है | उसे लगता है कि उसने बहुत बड़ा अपराध किया है और समाज अब उसे चरित्रहीन वेश्या समझेगा | इस स्थिति में वह मर जाना चाहती है तो काली माँ स्वयं प्रकट होकर उसे यह वरदान देती है कि दोनों मित्रों के शीश उनके धड़ों से जोड़ने पर वह दोबारा जीवित हो जाएंगे | इस स्थिति में पद्मिनी से एक भारी भूल हो जाती और वह दोनों मित्रों के शीश एक-दूसरे के धड पर लगा देती है | वह बौखलाई हुई स्थिति में यह गल्ती कर बैठती है और अब यह उसके लिए और भी असंगत स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि अब वह किसे अपना पति समझे | इससे व्यक्ति और रिश्तों की पहचान पर एक बड़ा प्रश्न चिह्न लग जाता है | यह नाटक त्रिकोणीय प्रेमकथा से सर्वथा भिन्न मनोवृत्ति के साथ संघर्षमूलकता के साथ उपस्थित होता है | “देह से पुरुष और स्त्री के जीवन के आंतरिक संघर्ष द्वारा अभेद्य संवेदना को भेदा है |” (समकालीन साहित्य:सित.-अक्तू.2019,पृ.155) प्रतीकात्मक रूप से अस्मिता की तलाश में यही द्वंद्व और आत्मसंघर्ष मौजूद होता है | गिरीश कर्नाड ऐसे ही जटिल विषयों को वैचारिक स्तर पर लाकर हमारे मानसिक बदलाव को रेखांकित करने के लिए नाटक की रचना का अनिवार्य तत्त्व मानते हैं | स्त्री-पुरुष की सत्ता भिन्न न होकर संतुलित समन्वय में है , इस बात को विचारों से निकाल अनुभूति के स्तर पर लाने की क्षमता इस नाटक में दिखायी पड़ती है |
अस्मिता का संकट : अपूर्णता से पूर्णता की ओर यात्रा :-
इस नाटक को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे कर्नाड इस भौतिक और अपूर्ण जगत और उसमें उत्पन्न स्थितियों में मनुष्य के असंतुष्टियों के कारण तलाशने का प्रयास कर रहे हैं | मानवीय संवेदना की गहरी समझ की अभिव्यक्ति भले ही व्याकुलता और बेबसी को लिए हुए है लेकिन अंतर के दर्द को गहन चेतना का विषय बनाने का सफल प्रयास इस नाटक में बखूबी देखा जा सकता है | जीवन के निश्छल प्रवाह के साथ जीवन की निस्सारता को समझना या फिर उसी में भटकते रहना, मनुष्य को ऎसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है, जहां वह अपनी ही पहचान खो बैठता है | मनोवैज्ञानिक धरातल पर उन्होंने ‘हयवदन’ के सभी पात्रों का चरित्र विश्लेषित किया | जब देवदत्त और कपिल के सर एक दूसरे के धड पर लग जाते हैं तो तब इस अपूर्णता को बहुत ही गहरे में महसूसा जा सकता है | यहाँ मानवीय महात्त्वाकांक्षा की अपूर्णता भी उतनी ही तीव्रतर रूप में परिलक्षित होती है | एक स्थान पर देवदत्त कहता है ,”प्यार क्या है ,किसको प्रेम करते हैं हम, मनुष्य को प्रेम करते हुए हम उसकी देह को प्रेम करते हैं या फिर बुद्धि को प्रेम करते हैं |” (हयवदन-पृ. ) इन पात्रों में द्वंद्व एवं आत्मसंघर्ष की अभिव्यक्ति में ईमानदारी है | बिना किसी लाग-लपेट के इस नाटक के पात्र अपने संवेगों को समझते हुए अपने निज की तलाश में जुटे हुए प्रतीत होते हैं और वह भी भाव-संवेगों पर नियंत्रण खोये बिना | इस नाटक में गिरीश कर्नाड का उद्देश्य मानवीय संबंधों की भौतिक अनिवार्यताओं को खंडित किये बगैर स्त्री-पुरुष के समन्वित स्वरूप का विचार संप्रेषित करना रहा है | महत्त्वाकांक्षाएं क्यों उत्पन्न होती हैं और कैसे वह व्यक्ति के स्व या पहचान पर प्रश्नचिह्न लगा देती हैं ,इसे इस नाटक में बखूबी देखा जा सकता है |
नाटक के सूत्रधार भागवत (जो एक प्रकार से जीवन को संचालित और नियंत्रित करने वाली गतियों के प्रतीकात्मक रूप में उपस्थित हुआ है) के अनुसार शरीर के सभी अंगों का संचालन चूँकि मस्तिष्क करता है इसलिए जिस धड़ पर देवदत्त का शीश है वही पद्मिनी का पति होगा | सामाजिक मानदंडों पर यह समाधान सर्वथा उचित था परन्तु किसी की भी संतुष्टि का कारण नही बन सका | समय बीतने के साथ ही कुछ समय में देवदत्त के शीश ने देह पर नियंत्रण करना आरम्भ कर दिया और धीरे धीरे कपिल की बलिष्ठ देह जिसे पद्मिनी बहुत पसंद करती थी की स्फूर्ति क्षीण होने लगी | अब पद्मिनी की असंतुष्टि फिर से पहले की तरह बढ़ने लगी | उधर कपिल जो जीवन के नियमों के आगे नतमस्तक था सब कुछ छोड़ कर और पद्मिनी को भुला कर जंगल में रहने लगता है धीरे-धीरे उसने भी देवदत के शरीर को परिवर्तित कर दिया था | आनंद और शांति की तलाश में पद्मिनी उससे मिलने जंगल जाती है तब उसकी सारी स्मृतियाँ ताज़ी हो जाती हैं | ये स्थितिया वास्तव में यह सोचने पर विवश कर देती हैं कि एक नियमबद्ध जीवन में कैसे अस्मिता का संकट और महत्त्वाकांक्षाओ का पनपना एक दूसरे के पूरक के रूप में सभी के साथ चलते हैं | इस दुविधा को नाटक में प्रस्तुत इस गीत के माध्यम से समझा जा सकता है ,”नदी जानती है केवल प्रपात का खिंचाव , वह किलकती है, घास को गुदगुदाती है ,”इस गीत में नदी पनीले सांप, काकमगोड (डरा हुआ कौआ)जैसे कई जीवंत चित्र प्रस्तुत हुए हैं जिनसे उस अस्तित्ववान स्थिति मुखर होकर उठती है |
इस नाटक की अवांतर कथा का मुख्य पात्र हयवदन भी इसी अपने अस्तित्व की खोज में स्वयं को पूर्ण करना चाहता है | अन्त में वह एक पूर्ण घोड़ा बन जाता है, मनुष्य नहीं | गिरीश कर्नाड ने इस नाटक के माध्यम से यह बताया है कि पूर्णता एक भ्रम है या कि अपूर्ण संसार में पूर्णता को प्राप्त करने का प्रयास वास्तव में भ्रम को पालना है या कभी न खत्म होने वाला संघर्ष | मनुष्य की पहचान या उसका अस्तित्व एक अबूझ पहेली है | शायद उसकी बुद्धि की परिपक्वता ,सूक्ष्मता या खुद में विश्वास की असीमता ही उसे लगातार दिग्भ्रमित कर अपूर्ण बनाती है | जबकि पशु-पक्षी अपनी सीमित चेतनता और क्षमताओं में कदाचित परिपूर्णता को प्राप्त कर लेते हैं | इसीलिए नाटक के अंत में हयवदन पूर्ण ‘मनुष्य’ नहीं अपितु पूर्ण ‘घोड़ा’ बन जाता है और उस ‘पूर्ण’ घोड़े को देख कर अपूर्ण इच्छाओं की उत्पत्ति के रूप में पद्मिनी और देवदत्त का पुत्र ,जो अब तक मनो शून्य में था ,वः कुछ न बोलता था ,अब घोड़े से बातें भी करता है और खूब प्रसन्न होकर्र उसकी साथ खेलता भी है |
इस नाटक की समस्या यह है की मनुष्य के अस्तित्व की खोज जटिल संबंधों में की जाती है | जो भी सबंध संसार की परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं ,वे कभी भी पूर्ण नही होते हैं या मनुष्य उनके द्वारा पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता | बिना किसी आध्यात्मिक विचार के ठोस जीवन के धरातल पर गिरीश कर्नाड ने इस तथ्य को बखूबी प्रस्तुत किया है | अस्त्तित्ववादी चिंतन जैसे गूढ़ दर्शन का सरलीकृत रूप किस प्रकार से मनुष्य के गहरी संवेगों के माध्यम से अभिव्यंजित हो उठता है ,इसे हयवदन से समझा जा सकता है | नाटक के आरम्भ में गणेश वंदना के उत्सव के द्वारा आरम्भ के परंपरागत विधान का अनुसरण करते हुए भी इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है | हाथी का शीश के मनुष्य के धड पर ,टूटे हुए दांत और बेडौल पेट किसी न किसी अपूर्णता को दर्शाता है | जिधर से भी देखो वे अपूर्णता और अधूरेपन की प्रतिमूर्ति के अवतार नज़र आते हैं | लेकिन प्रत्येक शुभ कार्य से पहले उनकी वन्दना उस कार्य की शुभता और पूर्णता के लिए अवश्य होती है | वे इस संसार की अपूर्णता के तत्व के प्रतीक हैं |
आरम्भ की यह वन्दना अपने आप में नाटक के मुख्य विषय वस्तु की ओर संकेत करती है | भागवत के संवाद द्वारा दर्शक नाटक के मुख्य विषय से परिचित हो जाते हैं | आयरिश लेखक Beckettion के अब्सर्ड की तरह इस नाटक के मूल प्रतिपाद्य को माना गया है | ‘हयवदन’ के सभी पात्र अपूर्ण हैं | वे सभी वह होना चाहते हैं या उन्हें होना पड़ता है , जो वे हैं नहीं या जो उनके अनुकूल नही | देवदत्त का मस्तिष्क और कपिल की देह एक-साथ मिल कर पूर्णता को प्राप्त करना चाहते थे पर उनका प्रयास विफल रहा | पद्मिनी को भी अपनी पूर्ण संतुष्टि के असफल प्रयासों के बाद अपने को ख़त्म करना पड़ता है |
इस प्रकार इस नाटक की यह प्रतिध्वनि निकलती है की जीवन और मनुष्य की सृष्टि ही अपूर्णता की कारण और अपूर्ण रहने के लिए ही नियत है कदाचित इसलिए मनुष्य की प्रमुख प्रवृत्ति असंतुष्टि है |
सन्दर्भ सूची :-
1. हयवदन ,गिरीश कार्नाड- राधाकृष्ण प्रकाशन
२. समकालीन भारतीय साहित्य, सितम्बर-अक्टूबर 2019-साहित्य अकादेमी
3. विकिपीडिया
डॉ. अनुपमा श्रीवास्तव
जीसस एंड मेरी कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय