महादेवी वर्मा छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती है निराला ने हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती की कहां है छायावाद के कवियों ने अपने समय की वास्तविक यथार्थ से प्रभावित होकर अपनी अभिव्यक्ति दी है महादेवी अपनी रचनाओं में पाया अंतर्मुखी रही है उन्होंने अपनी काव्य में व्यथा रहस्य भावना को मुखरित किया है महादेवी को अलौकिक अप्रिय से मिलन की इच्छा नहीं है उद्वेलित किया है उनके काव्य में तुलसी के आवरण मैं ही इसकी अभिव्यक्ति हुई है उदाहरणार्थ बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं
छायावादी काव्य एक संवेदनशील काव्य रहा है महादेवी वर्मा के काव्य में उनका व्यक्तित्व बहुमुखी संपन्न दिखाई देता है उनकी जीवन दृष्टि मानवीय गुणों से संपृक्त और संवेदनाओं से अनुप्राणित है उनके काव्य में समस्त प्राणी जगत के प्रति करुणा उमड़ पड़ती है छायावादी युग में मुक्ति के लिए सोनी शोरूम पर संघर्ष किया जा रहा था इनमें नारी भी अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष कर रही थी उनकी कविता में नारी की अभिमानी रूप की अभिव्यंजना हुई है महादेवी के गीत काव्य में संवेदना सहस दर्शन होता है
वेदना भाव
महादेवी की कविता में दुख और करुणा का भाव दर्शनीय है वेदना के विभिन्न रूप उनके काव्य में उपस्थित हुए हैं उनकी कविता में यह स्वीकार करने में भी सब कुछ नहीं करती की वह नीर भरी दुख की बदली है
महादेवी की वेदना का उद्भव स्थान निश्चित तौर पर कौन सा है कहना और संभव नहीं है उनके एक गीत की पंक्ति है
शलभ मैं शॉप में वर हूं
किसी का निष्ठुर हूंl
उनके पूरे काव्य में वेदना की अनेक बिंब बिखर पड़े है,
जिनसे उनके अंतर्मन में पलती पीड़ा का दर्शन होता हैl
एकाकीपन
महादेवी वर्मा के काव्य में एकाकीपन उ�महादेवी ने दुखों को आध्यात्मिक स्तर पर ही अपनाया l भारतीय संस्कारों में पली महादेवी करुणा भाव में पूर्ण रूप से डूबी है l किसी दार्शनिक की तरफ से वह कह उठती है-
‘ विजन वन में बिखरा कर राग l
जगा सोते प्राणों की प्यास;
ढालकर सौरभ में उन्माद
नशीली फैलाकर विश्वास
लुभाओ इसे न मुग्ध वसंत!
विरागी है मेरा एकांत!
और मैं क्यों पूछूं यह तुम अंदर यह विरह निशा
कितनी बीती क्या शेष रही?
करुणा:
महादेवी के काव्य में करुणा का प्रभाव भी देखा जा सकता है –
“अश्रु कन से डर सजाया त्याग हीरक हार,
भीख दुख की मांगने जो फिर गया प्रति द्वार
शूल जिसने फूल चंदन किया संताप,
सुनो जगाती है उसी सिद्धार्थ की पदचाप,
करुणा के दुलारे जाग l”
चिंता:
महादेवी वर्मा ने केवल मनुष्य के प्रति ही चिंता व्यक्त नहीं की बल्कि पक्षियों के प्रति भी चिंता प्रकट की है-
‘ पथ ना भूले एक पग भी
घर में खोए लघु विहग भी
स्निग्ध लो की तूलिका से
आं क सबकी छा ह उज्जवल l’
महादेवी वर्मा ने अपने स्वयं के दुख, अपनी वेदना को भी अभिव्यक्त किया है-
‘मेरे बंधन नहीं आज प्रिय,
संस्कृति की कड़ियां देखो
मेरे गीले पलक पूछो मत,
मुरझाई कलियां देखो l’
शोषितो की उपेक्षा से दुखी :
महादेवी वर्मा शोषित की उपेक्षा से दुखी होकर उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करती है-
” कर दिया मधुर और सौरभ
दान सारा एक दिन l
किंतु रोता कौन है,
तेरे लिए दानी सुमन l”
” कह दे मां क्या देखें l
देखें खिलती कलियां या
प्यासे सूखे अधरों को
तेरी चीर – योवन सुषमा
या जर्जर जीवन देखूं l”
महादेवी वर्मा के काव्य की आलोचना करने वाले कहते हैं कि महादेवी वर्मा के काव्य पटल पर मिलने वाले वेदना के रंग उनकी वयक्तिक व्यथा की अभिव्यक्ति है l उन पर पलायन वादी होने का भी लगाया गया l लेकिन प्रश्नों के उत्तर डॉ. भोलानाथ यादव के कथन से स्पष्ट होते हैं-
‘ आत्मवादी कवि या कलाकार अंतर्मुखी अवश्य होता है पर इस रूप मैं महादेवी भी अधिक प्रबल है, किंतु उनके अंतर्मुखी चिंतन में जहां मिलन, तृप्ति- तृप्ति, आशा – निराशा की हल्की गहरी लहरिया मचलती रहती है, वहां जीवन के अनेक उद्बोधन गीत भी फूट पड़ते हैं, करुणा और मानवता की अनगिनत ध्वनि या भी मुखर हो उठी है l”
राम विलास शर्मा के शब्दों में-‘ “महादेवी वर्मा की करुणा व्यक्ति परख अथवा आत्मगत ही नहीं है, वह बहिर्मुखी एवं समाज परख भी है , जिसका प्रमाण उनकी आधुनिक गद्य रचनाएं बंगाल के दुर्भिक्ष से संबंधित काव्य संकलन की भूमिका आदि है l”
महादेवी वर्मा मृत्यु को भी अंत अथवा दुखद नहीं मानती l उनकी दृष्टि तो_
‘अमरता है जीवन का रुहस
मृत्यु जीवन का चरम विकास,
मृत्यु तो नियति है,
जो आनंद के ही 100 द्वार खोल देती है,
सृष्टि का है यह अमिट विधान l
एक मिटने से सो वरदान l’
विरह वेदना:
वेदना और पीड़ा महादेवी जी की कविता का प्राण रहे हैं l वेदना के विभिन्न रूपों की उपस्थिति महादेवी वर्मा के काव्य की प्रमुख विशेषता रही है l उनके काव्य में आत्मा परमात्मा के मिलन ,विरह तथा प्रकृति के व्यापार उनकी छाया स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है l महादेवी वर्मा दुख को वेदना की संज्ञा देती है l’ जो सारे संसार को एक सूत्र में बांधने की क्षमता रखती है l
महादेवी वर्मा कहती है,” मुझे तो दुख के दोनों ही रूप प्रिय है l एक वह, मनुष्य के संवेदनशील मन को सारे संसार से एक अविच्छिन्न बंधनों में बांध देता है और दूसरा वह, जो काल और सीमा के बंधन में पढ़े असीम चेतना का क्रंदन हीं अभिव्यक्त हुआ है l वह वेदना सामान्य लोक रुदय की वस्तु नहीं है इसलिए ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उनकी सच्चाई में ही संदेह व्यक्त करते भी है लिखा है,” इस वेदना को लेकर उन्होंने रुदय की ऐसी अनुभूतियां सामने रखी है जो लोकोत्तर है l
कहां तक वे वास्तविक अनुभूतियां हैं , और कहां तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना यह नहीं कहा जा सकता l”
डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी तो उनके काव्य की पीड़ा को मीरा के काव्य पीड़ा से भी बढ़कर मानते हैं l कवि निराला ने उन्हें” हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती” भी कहा है l
प्रेम:
महादेवी के गीतों का अधिकारी के विषय प्रेम है l पर प्रेम की सार्थकता उन्होंने मिलन के उल्लास पूर्ण क्षणों से अधिक विरह की पीड़ा की तलाश की है l मिलन के चित्र उनके गीतों में आकांक्षी तौर संभावित, तथा कल्पना मिश्रित हो सकते थे पर बिरहा अनुभूति को भी उन्होंने सूक्ष्म, नीगुड प्रतीकों, और धुंधले बिंबो के माध्यम से ही अधिक अंकित किया है l
महादेवी वर्मा का कविता संग्रह ‘ संध्या गीत’ नीरजा के भाव का परिपक्व रूप मिलता है l यहां न केवल सुख दुख का बल्कि आंसू और वेदना का, मिलन और विरह का, आशा और निराशा का, तथा बंधन मुक्ति आदि का समन्वय है l
महादेवी वर्मा जी की कविता में वेदना और निराशा का भाव प्रचुर मात्रा में दिखाई देता है l अपनी कविता में इन्होंने मन की पीड़ा को बिना किसी संकोच के व्यक्त किया है l इस प्रकार की विराट प्रियतम के प्रति विराट वेदना व्यक्त करती हैं l ऐसा लगता है कि कवियत्री को अपने प्रियतम से बिछुडे हुए अनंत काल हो चुका है l उससे मिलने की बेचैनी ही लगातार उनकी कविता में व्यक्त होती है l उन्होंने लिखा है कि,
” इस आशा से मैं उसमें बैठी हूं निष्फल सपने गोल,
कभी तुम्हारे सष्मित अधर्म को छू वे होंगे अनमोल l”
यहां ऐसा लगता है कि कवियत्री अपने प्रिय की स्मृति में और उनसे मिलन की आशा में जी रही है l मिलन के निष्फल सपनों को देख रही है की कभी ना कभी उसका दीदार अवश्य होगा l
अकेलापन:
विरह वेदना के इस क्रम में लगातार अकेलापन की शिकार होती जाती है जिसकी अभिव्यक्ति उनकी कविता में होती है-
” अपने इस सुनेपन की मैं हूं रानी मतवाली
प्राणों का दीपक जलाकर,करती रही दिवाली l”
मानवतावाद:
महादेवी वर्मा जी की वेदना केवल वैयक्तिक स्तर पर ही नहीं दिखाई देती बल्कि उसका एक मानवतावादी पक्ष भी है l उसकी वेदना कई स्थानों पर अपने सामाजिक सरोकार के साथ साक्षात्कार करती है l
दीपक का बुझना महादेवी को कभी नहीं भाया l
वे बुझे हुए दीपको को फिर से जलाने का निरंतर संकल्प करती है l
‘सब बुझे दीपक को जला लू,’ गीत में बुझने पर ही नहीं ‘सब’ पर असाधारण बल दिया है l मरण का पर्व दीपावली बन जाए यह उनकी भावना रही है l दीपशिखा में जिस दीपक की कल्पना की गई है वह घर का दीप न रहकर मंदिर का दीप बन जाता है l इस काव्य संग्रह में विश्व की पीड़ित मानवता को अमरता का संदेश देने का उपक्रम है l
नारी संवेदना:
महादेवी जी के काव्य में नारी संवेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है l महादेवी वर्मा की कविता का मूल्यांकन करते हुए आचार्य नंददुलारे वाजपेई इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि” स्त्रियों चित् सात्विकता ही महादेवी के काव्य की सार्वत्रिक क विशेषता है l इससे उनके काव्य को एक सुंदर कांति मिलती है l वाजपेई मीरा और महादेवी की कविता में कोई
स्त्रियोचित पीड़ा की समानता नहीं ढूंढ पाते l
निष्कर्ष:
महादेवी वर्मा के काव्य में व्यक्त वेदना व्यक्तिगत ना होकर समस्त रूप में है l उनकी वेदना मानवतावादी भाव भूमि पर खड़ी है l उनके काव्य में सभी प्रकार की संवेदनशीलता का दर्शन होता है l उनके कार्य में सुख- दुख, आशा- निराशा, प्रेम -विरह, मानवतावाद, नारी संवेदना, अकेलापन, मानवी पीड़ा का दर्शन होता है l एक संवेदनशील कवियत्री के रूप में महादेवी वर्मा को पहचाना जाता है l वह शोषित की पीड़ा को देखकर अपनी अपनी कविताओं के माध्यम से दुखी जनों में नई आशा, आनंद का संचार करती है |
संदर्भ सूची:
1. यामा – महादेवी वर्मा
2. नीरजा – महादेवी वर्मा
3. निहारिका – महादेवी वर्मा
4. संध्या गीत – महादेवी वर्मा
5. दीपशिखा – महादेवी वर्मा
6. संधिनी – महादेवी वर्मा
डॉ. भगत गोकुल महादेव
संभाजी कॉलेज , मुरुड
जिला, लातूर