महादेवी  वर्मा छायावाद की कवयीत्री है । उनके के काव्य में रहस्यवाद दिखाई देता है इसलिए महादेवी वर्मा को  आधुनिक मीरा कहा जाता है । अतः उनके काव्य में आत्मा परमात्मा के मिलन, विरह तथा प्रकृति के कार्यव्यापारों की छाया स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है । वेदना और पीड़ा महादेवी के काव्य के प्राण रहे । महादेवी का समस्त काव्य पीड़ा भरा है । महादेवी वर्मा को पीडवाद और रहस्यवाद की कवयीत्री कहा जाता है । वह स्वयं लिखती है,” दुख मेरे जीवन निकट का ऐसा काव्य है, जिसमें सारे संसार को एकसुत्र में बांधने की अपूर्व क्षमता है । मीरा के काव्य में वर्णित वेदना लौकिक वेदना से अलग अध्यात्मिक वेदना है । उसी लिए सहज और सवेज्ञ हो सकती है,जिसमें उस अनुभूति क्षेत्र में प्रवेश किया हो । वैसे महादेव वर्मा उस वेदना को,उस दुख की संज्ञा देती है, जो सारे संसार को एक सूत्र में बांधने की क्षमता रखता हो ।“ 1 किंतु विश्व को एक सूत्र में बांधने वाला दु:ख सामान्यतः लौकिक दु:ख ही होता है जो भारतीय साहित्य की परंपरा में करूणरस का स्थायीभाव होता है । महादेवी वर्मा ने इस दु:ख को नहीं अपनाया है । वह कहती है,” मुझे दोनों ही दु:ख के रूप प्रिय है,एक वह जो मनुष्य के संवेदनशील मन को सारे संसार से एक अविच्छिन्न बंधनों में बांध देता है,और दूसरा वह जो काल और सीमा के बंधन में पड़े हुए असीम चेतना का कृदंत है ।“2 महादेवी के काव्य में पहले प्रकार का नहीं दूसरे प्रकार का कृदंत ही अभिव्यक्त हुआ है । संभवतः इसलिए रामचंद्र शुक्ल ने उनकी सच्चाई में ही संदेह व्यक्त करते हुए लिखा है,” इस वेदना को लेकर उन्होंने रद्द है कि ऐसी अनुभूतियां सामने रखी जो लोकोत्तर है, कहां तक वे वास्तविक अनुभूतियां है और कहां तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना यह नहीं कहा जा सकता।“3 इसी आध्यात्मिक वेदना की दिशा में प्रारंभ से अंत तक महादेवी के काव्य की सुख और विस्तृत भाव अनुभूतियों का विकास और प्रसार दिखाई पड़ता है । डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी तो उनके काव्य की पीड़ा को मीरा की काव्य पीड़ा से भी बढ़कर मानते हैं ।

            महादेवी वर्मा समस्त मानव जीवन को निराशा और व्यथा से परिपूर्ण रूप में देखती थी । वह अपने को नीर भरी दुख की बदली कहती थी,” मैं नीर भरी दुख की बदली, विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना ,परिचय इतना इतिहास यही, उमड़ी थी कल मिट आज चली ।“

महादेवी वर्मा के प्रेम वर्णन में ईश्वरीय विरह की प्रधानता है । उन्होंने आत्मा की चिरंतन विक्रेता और ब्रह्म से मिलने की आतुरता के बड़े सुंदर चित्र संजोए हैं । वह कहती है,

                        “मैं कन कन में डाल रही अली आंसू के मिल प्यार किसी का ।

                           मैं पलकों में पाल रही हूं यह सपना सुकुमार किसी का ।“

          “अग्नि रेखा “ में दीपक को प्रतीक मानकर अनेक रचनाएं लिखी गई है । साथ ही अनेक विषयों पर भी कविताएं है , महादेवी वर्मा का विचार है कि अंधकार से सूर्य नहीं दीपक बुझता है । वह कहती है,

        “ रात के इस सघन अंधेरे में जूझता सूर्य नहीं जूझता रहा दीपक,

            कौन-सी रश्मि कब हुई कंपीट कौन आंधी वहां पहुंच पाई ,

             कौन ठहरा सका उसे पल भर कौन सी बुक कब बुझ पाई ।“

                                      महादेवी वर्मा का आधुनिक कविताओं में औरों से भिन्न अपना एक विशिष्ट और निराला स्थान है ।  इस विशिष्टता के दो कारण हैं, एक तो उनका कोमल ह्रदय नारी होना और दूसरा अंग्रेजी और बंगाला के रोमांटिक और रहस्यवादी काव्य से प्रभावित होना । इन दोनों कारणों से एक और उन्हें अपने आध्यात्मिक प्रियतम को पुरुष मानकर स्वाभाविक रूप में अपना स्त्री जीवन चित्र अनुभूतियों को निवेदित करने की सुविधा मिली । दूसरी ओर प्राचीन भारतीय साहित्य और दर्शन तथा संत युग के रहस्यवादी काव्य के अध्ययन और अपने पूर्ववर्ती तथा समकालीन छायावादी कवियों के काव्य से निकट का परिचय होने के फलस्वरूप उनकी काव्य अभिव्यंजना और बौद्धिक चेतना शत प्रतिशत भारतीय परंपरा के अनुरूप बनी रही । इस तरह उनके काव्य में जहां कृष्णभक्ति काव्य की भावना गोपियों के माध्यम से नहीं सीधे अपनी आध्यात्मिक अनुभूति की अभिव्यक्ति के रूप में प्रकाशित हुई है, वही सूफी पुरुष कवियों की भांति उन्हें परमात्मा को नारी के प्रतीक में प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता नहीं पड़ी है । महादेवी वर्मा के काव्य में निम्नलिखित विशेषताएँ दिखाई देती है ।

प्रकृति चित्रण :- अन्य रहस्यवादी और छायावादी कवियों के समान महादेवी जी ने भी अपने काव्य में प्रकृति के सुंदर चित्र प्रस्तुत किए हैं । उन्हें प्रकृति में अपने प्रिय का आभास मिलता है और उससे उनके भावों को चेतना प्राप्त होती है । वे अपने प्रिय को रिझाने के लिए प्रकृति के उपकरणों से अपना श्रृंगार करती हुई कहती है,

                                              ” शशि के दर्पण में देख देख मैंने सुलझाएं तिमिर केश,

                                            गूथे चुन तारक पारिजात अवगुंठन कर किरणें अशेष।“

                                               छायावाद और प्रकृति का अन्योन्याश्रित संबंध रहा है । महादेवी जी के अनुसार छायावाद की प्रकृति घटक उपाधि से भरे जल की एकरूपता के समान अनेक रूपों से प्रकट एक महाप्राण बन गई । स्वयं चित्रकार होने के कारण उन्होंने प्रकृति के अनेक भव्य तथा आकर्षक चित्र साकार किए हैं । महादेवी वर्मा जी की कविता के दो कोन है, एक तो उन्होंने चेतना में प्रकृति का स्वतंत्र विश्लेषण किया है । वह कहती है ,

                           ” कनक से दिन मोती सी रात सुनहरी सांग गुलाबी,

                          प्राप्त मिटाता रंगता बारंबार कुंजक्का वह चित्र आधार?” अथवा

                             तारक में बंधन शीशफूल पर शशि की नूतन रश्मि वाला,

                                    सीट आवंटन धीरे धीरे उतर क्षितिज से वसंत रजनी!”

                           दूसरा प्रकृति को भाव जगत का अंग मानकर उन्होंने मुख्यतः रहस्य साधना का चित्रण किया है । कवयीत्री को अनंत के दर्शन के लिए क्षितिज के दूसरे छोर को देखने की जिज्ञासा है । उन्होंने समस्त भावनाओं और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति प्रकृति के माध्यम से की है । ‘शांति गीत ‘ में वे अपने जीवन की तुलना चांद, गगन से करती है और वह कहती है,” चांद गगन मेरा जीवन यह क्षितिज बना धुंधला विराग,

                           नवम अरुण मेरा सुहाग छाया सी काया वितराग ।“

भावना, कल्पना और पीड़ा :- महादेवी वर्मा की सृजन प्रक्रिया विशुद्ध भावात्मक रही है । उनकी धारणाओं को योग के विभिन्न वाद परिवर्तित नहीं कर सके हैं । उन्होंने किसी एक दर्शन को केंद्र नहीं बनाया । जीवन अथवा समाज के लिए उपयुक्त समझा, उसे आत्मसात कर लिया । महादेवी जी विशुद्ध रूप से भारतीय संस्कृति की पोषक होने के कारण उनकी समस्त काव्य कृतियों में उनका प्रभाव परिलक्षित होता है ।  वह छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद को मानती है और प्रकृति को उसका साधन मानती है । छायावाद ने मनुष्य और प्रकृति के इस संबंध में प्राण डाल दिए, जो प्राचीन काल से बिंब प्रतिबिंब के रूप में चला आ रहा था । जिसके कारण मनुष्य को प्रकृति अपने दुख में उदास और दुख में पुलकित जान पड़ती थी,उन्होंने छायावाद का विवेचन करते हुए प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध का प्रतिपादन विशेष रूप से किया है । उनके साथ ही उन्होंने सूक्ष्म या अंतर की सौंदर्य वृद्धि के उद्घाटन पर बल दिया है । महादेवी की कविता अनुभूति से परिपूर्ण है । सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताएं दार्शनिकता के बोझ से दब सी गई है, किंतु महादेवी वर्मा के काव्य में ऐसी बात नहीं उसमें दार्शनिकता  होते हुए भी वह सर्वत्र भावना प्रधान है ।  महादेवी वर्मा के काव्य में संगीतात्मकता का विशेष गुण है । वह गीत लेखिका है, गीतों की लहरों पर उनका अद्भुत अधिकार हर जगह दिखाई देता है । वह महादेवी माधुरी भाव की उपासिका है । ब्रह्मा को उन्होंने प्रियतम के रूप में देखा है । अपने प्रेम पात्र के लिए उन्होंने प्रिय संबोधन दिया है । उनके गीत उज्जवल प्रेम के गीत है ।उनके द्वारा अपने अंदर की जिस सात्विकता का उन्होंने परिचय दिया है, वह उनकी काव्य गरिमा का आधार स्तंभ है । जब जीवन में दिव्य प्रेम की मधुर संगीत के रागिनी झंकृत हुई तब कवयीत्री के मन में उसने अपने सपनों को जन्म दिया वह कहती है,

              ” इस ललचाए आंखों पर पहरा था जब व्रीडा का, साम्राज्य मुझे दे डाला उस चितवन ने पीड़ा का ”

           चीर तृषित आत्मा युग से सर्व विश्वव्यापी परमात्मा से मिलने के लिए व्याकुल हो रही है । महादेवी वर्मा की वेदना अनुभूति संकलन आत्मानुभूति की सहज अभिव्यक्ति है । ‘मिलन का मत नाम लो मैं बिरहा में चीर हूं ‘ कह कर वह इसी विरह को जीवन की साधना मानती है । उन्होंने पीड़ा की महत्ता ही घोषित नहीं कि उसका सुखद पक्ष भी स्पष्ट किया है । उनके सुख का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है । जब दु:ख अपनी अंतिम सीमा तक पहुंच जाता है, तब वही दु:ख सुख का रूप धारण कर लेता है । इसलिए महादेवी वर्मा कहती है,” श्रद्धेय यही जलने का ठंडी विभूति हो जाना है पीड़ा की सीमा यह दुख का चीर सुख हो जाना ।“

               छायावादी कहे जाने वाले कवियों में महादेवी जी ही रहस्यवाद के भीतर रही है । उस अज्ञात प्रियतम के लिए वेदना ही उनके ह्रदय का भाव केंद्र है,जिससे अनेक प्रकार की भावनाएं टूट टूट कर झलक मारती रही है । वेदना से उन्होंने अपना स्वाभाविक प्रेम व्यक्त किया है । उसी के साथ में रहना चाहती है ,उसके आगे मिलन सुख को भी वे कुछ नहीं मानती । वह कहती है कि,” मिलन का मत नाम ले ‘ इस वेदना को लेकर उन्होंने ह्रदय की ऐसी अनुभूति सामने रखी है, जो लोकोत्तर है । कहां तक वे वास्तविक अनुभूतियां है और कहां तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना है यह नहीं कहा जा सकता । एक पक्ष में अनंत सुषमा दूसरे पक्ष में अपार वेदना महादेवी के काव्य में दिखाई देती है, जिनके बीच उसकी अभिव्यक्ति होती है । यह दोनों दो और एक ही संस्कृति की चित्र पट्टी है ।“4

                 महादेवी वर्मा दु:ख को जीवन की पूर्ति तथा प्रेरणा तत्व मानती है । उनकी दृष्टि में वेदना का महत्व तीन कारणों से है ,वह अंत करण को शुद्ध करती है, प्रिय को अधिक निकट लाती है, और प्रियतम की शोभा भी उसी पर आधारित है । अतः उनके काव्य में दु:ख के तीन रूप मिलते हैं, वर्णनात्मक, करुनात्मक और साधनात्मक । महादेवी वर्मा  राष्ट्रवाद को स्वीकार नहीं करती । उन्होंने दु:ख को मधुर्भाव के रूप में स्वीकार किया है,जिसमें वह अलौकिक प्रिय के लिए दीप बनकर जलना चाहती है । महादेवी वर्मा कहती है ,”मधुर मधुर मेरे दीपक जल युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल प्रियतम का पथ आलोकित कर ।“

                             महादेवी वर्मा के अनुसार दु:ख जीवन का ऐसा काव्य है,जो समस्त विश्व को एक सूत्र में बांधने की  क्षमता रखता है । उनका दु:ख यष्टि परखना होकर समझती पर रख रहा है उन्होंने कहा है कि व्यक्तिगत सु:ख विश्व वेदना में खुलकर जीवन को सार्थकता प्रदान करता है और व्यक्तिगत दु:ख विश्व सुख में खुलकर जीवन को अमरत्व प्रदान करता है । “ उनका मानना है कि, मेरे हंसते अधर नहीं जग की आंसू लड़ियां देखो,

                          मेरे गीले पलक छुओ मत मुरझाई कलियां देखो ।“

महादेवी वर्मा का रहस्यवाद  :-  छायावादी काव्य में एक अध्यात्मिक आवरण तथा छाया रही है । अतः रहस्यवाद छायावादी कविता के प्रवृत्ति विशेष के लिए प्रयुक्त किया गया है । महादेवी जी के अनुसार रहस्य का अर्थ वहां से होता है जहां धर्म की इति है, रहस्य का उपासक ह्रदय में सामंजस्य मूलक परम तत्व की अनुभूति करता है और वह अनुभूति पर्दे के भीतर रखते हुए दीपक के समान अपने प्रशांत आभास से उसके व्यवहार को स्निग्धा देती है । महादेवी वर्मा की रुचि सांसारिक भोग की अपेक्षा आध्यात्मिकता की ओर अधिक दर्शित होती है ।  ऋषि अनुभूति की पांच अवस्थाएं उनके काव्य में लक्षित होती है । जिज्ञासा, आस्था, अद्वैत, भावना, प्रयानुभूति,विरहानुभूति महादेवी जी ने उस परम तत्व को देखने की, जानने की निरंतर जिज्ञासा रही है । वह कुतूहल से पूछती है,” कौन तुम मेरे ह्रदय में कौन मेरी कसक में नीत मधुरता भरता अलग शीट ? ” आत्मा और परमात्मा के अद्वैत तत्व के लिए बीन और रागिनी का प्रतीक उनकी अभिनव कल्पना एक सुंदर उदाहरण है । उनकी यह भावना कोरे दार्शनिक ज्ञान या तत्व चिंतन पर आधारित नहीं है,अपितु उनमें राधे का भावात्मक योग भी लक्षित होता है ।

महादेवी वर्मा के काव्य की भाषा शैली :-  महादेवी वर्मा की कुछ प्रासंगिक कविताएं ब्रजभाषा में है किंतु बाद का संपूर्ण रचना संसार खड़ी बोली हिंदी में है । महादेवी वर्मा की खड़ी बोली संस्कृत  मिश्रित है । वह मधुर कोमल और प्रवाह पूर्ण है । उसमें कहीं भी निरसता और कर्कसता नहीं है । वैसे महादेवी वर्मा की भाषा सरल है किंतु सूक्ष्म भावनाओं के चित्रण में वह संकेतात्मक होने के कारण कहीं-कहीं अस्पष्ट सी भी हो गई है । शब्द चयन अत्यंत सुंदर है किंतु भाषा में कोमलता और मधुरता लाने के लिए कहीं कहीं शब्दों का अंग भंग आवश्यक मिलता है । जैसे आधार का आधार अभिलाषाओं का अभिलाषी आदि । महादेवी वर्मा की शैली में निरंतर विकास होता रहा है ।‘ निहार’ काव्य संग्रह में उनकी शैली प्रारंभिक अवस्था में है । इस प्रारंभिक अवस्था की शैली में भाव कम है शब्द अधिक । ‘निर्जा ‘ काव्य संग्रह की शैली में भाव और भाषा की समानता है । ‘दीपशिखा’ काव्य संग्रह में उनकी शैली पूर्ण हो गई है  और थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कहने की क्षमता आ गई है । भावों को मूर्त रूप देने में महादेवी जी अत्यंत कुशल थी । उन्होंने अपनी कविताओं में प्रति को और संकेतों का असर अधिक लिया है । अतः उनकी शैली कहीं कहीं कुछ जटिल और दूर हो गई है और पाठक को कविता का अर्थ समझने में कुछ परिश्रम करना पड़ता है ।

रस ,छंद ,अलंकार, शिल्प और प्रतीक  :-  महादेवी की कविता वियोग श्रृंगार प्रधान है । वियोग के जैसे रहस्यमयी  चित्र उन्होंने अंकित किए हैं, वैसे अत्यंत दुर्लभ है ।  करुण रस की अभिव्यंजना भी उनके काव्य में हुई है । उनके काव्य में सभी छंद मात्रिक है और वे अपने आप में पूर्ण हैं । उनमें संगीत और लय का विशेष रूप से समावेश है । अलंकार योजना अत्यंत स्वाभाविक है और अलंकारों का प्रयोग भाव की तीव्रता प्रदान करने में सहायक सिद्ध हुई है ।“6 उपमा रूपक अलंकारों की अधिकता है । शब्दालंकारों  की ओर महादेवी वर्मा की विशेष रूचि प्रतीत होती, फिर भी उनके गीत उनकी व्यवस्था साहित्य साधना के परिणाम है ।  अतः कला गीतों के सभी सेल्फी के गुणों से युक्त है । उनके काव्य में छायावादी कविता के सिर्फ विधान का सफल रूप दिखाई देता है । गीतिकाव्य के तत्व अनुभूतिप्रणवता अध्यक्ष अध्यक्ष आत्मा भी व्यक्ति संक्षिप्त का भवन विविधता आदि उनके काव्य में पूर्णत: दर्शित होते हैं । उन्होंने स्वयं कहा है सुख-दुख की भावावेशमयी अवस्था का विशेष गिने-चुने शब्दों में वर्णन करना ही गीत है । अभिव्यक्ति की कलात्मकता लाक्षणिकता स्थूल के स्थान पर सूक्ष्म मानव का ग्रहण कोमलकांत पदावली, कल्पना का वैभव, चित्रात्मक  प्रतीक विधान, बिम्ब  योजना आदि कला तत्वों का उनकी अष्मिता में पूर्ण अभिनिवेश है । उनकी शिल्प प्रतिभा अनुपम है । उनके अंतस का कलाकार कला के प्रति सर्वदा सचित्र रहा है । उदाहरण के लिए ,”निशा को धो देता राकेश चांदनी में जब अलके खोल, कली से कहता हूं मधुमास बता दो मधु मदिरा का मोल ।“

                 संक्षेप में कहा जा सकता है कि महादेवी वर्मा रहस्यवाद की प्रमुक कवयित्री है । महादेवी के काव्य में प्रकृति चित्रण बेजोड़ रूप में चित्रित हुआ है । इसके साथ ही उनके कव्य में पीड़ा का चित्रण ,रस ,अलंकार, बिम्ब ,प्रतीक योजना ,गेयता ,संगीतात्मकता ,कल्पनात्मकता ,चित्रात्मकता आदि का प्रयोग महादेवी वर्मा ने अपने काव्य में किया है ।

संदर्भ सूची :

1) महादेवी वर्मा-रश्मि-पृष्ठ क्रमांक. 7

2) धीरेंद्र वर्मा – हिंदी साहित्य का इतिहास ,वाराणसी ज्ञान मंडल लिमिटेड, पृष्ठ  क्रमांक. 719

3) आचार्य रामचंद्र शुक्ल – हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा काशी, पृष्ठ क्रमांक 40 ,87

4) प्रोफेसर  सुखदा वांजपे  – पुष्पक अर्धवार्षिक पत्रिका, अंक हैदराबाद ।   पृष्ट क्रमांक. 116 ,117

5) भाषा रत्नाकर –  नवीन प्रकाशन मंदिर, इलाहाबाद 1968  – पृष्ठ क्रमांक. 312

                                                                          प्रा. डॉ. विष्णु गोविंदराव राठोड
   महात्मा गांधी विद्यामंदिर संचालित, कला, विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्यालय                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       मनमाड  तह – नांदगाँव जिला – नासिक

 

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