हिंदी साहित्य के छायावाद युग की प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित कवयित्री महादेवी वर्मा की गद्य एवं पद्य की रचनाओं से उनके व्यक्तित्व के दो पहलू देखने को मिलते हैं। उनकी कविताओं का अध्ययन करने पर हम देखते हैं कि कविताओं में रहस्यवादी प्रवृत्ति और दुःखवाद की अभिव्यक्ति और भावुकता है। लेकिन गद्य में विचारक के रूप में उनका बौद्धिक पक्ष बहुत ही प्रखर है। महादेवी ने अपनी गद्य रचनाओं में भारतीय स्त्री-जीवन के अनेक अनदेखे पहलुओं पर प्रकाश डाला है। इसी कारण, स्त्री विमर्श के संदर्भ में उनकी गद्य रचनाओं का मूल्यांकन करना आवश्यक हो जाता है। महादेवी नारी-चेतना की भारतीय परंपरा पर विचार करनेवाली अद्वितीय विचारक रही हैं।  उनके विचार रेखाचित्र के माध्यम से ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ बनकर हमारे सामने उभरकर आते हैं। उनका यह संग्रह भारतीय नारी समस्याओं का जीवंत विवेचन है। उनकी एक कहानी में जो विचार व्यक्त हुए हैं  वह ‘एक पुरूष के प्रति अन्याय की कल्पना से ही सारा पुरूष-समाज उस स्त्री से प्रतिशोध लेने को उतारू हो जाता है और एक स्त्री के साथ क्रूरतम अन्याय का प्रमाण पाकर भी सब स्त्रियाँ उसके अकारण दंड को अधिक भारी बनाए बिना नहीं  रहती। इस तरह पग-पग पर पुरूष से सहायता की याचना न करने वाली स्त्री की स्थिति कुछ विचित्र सी है। वह जितनी ही पहुँच के बाहर होती है, पुरूष उतना ही झुँझलाता है और प्रायः यह झुंझलाहट  मिथ्या अभियोगों के रुप में परिवर्तित हो जाती है। 1
इस कथन से यही स्पष्ट होता है कि हमारे भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री-पुरूष की सामाजिक और मानसिक स्थिति का ऐसा सूक्ष्म विश्लेषण कर पाना किसी आम इंसान के बस की बात नहीं, अपनी व्यथा कथा को भारतीय महिलाओं को केंद्र में स्थापित कर महादेवी वर्मा ने अपने अनुभवों का सहारा लेकर उसको जागृत करने का प्रयास किया है। महादेवी वर्मा भारतीय नारी की सदियों से चली आ रही पुरातन परम्पराओं को तोड़कर आगे आने को प्रेरित करती थीं  आपका मानना था कि ‘नारियां  पुरूषों से प्रतिद्वंद्वी के रूप् में नहीं  अपितु सहयोगी के रूप् में प्रतिस्पर्धा करके आगे आये। 2 महादेवी जी नारी देह को प्रदर्शन की वस्तु समझे जाने को निकृष्ट मानती थी। वरिष्ठ और प्रसिध्द आलाचक मैनेजर पाण्डेय ने अपनी नवीन पुस्तक ‘अनभै साँचा’ के पूर्वार्ध में लिखा,जब भारत में तो क्या पश्चिम में भी साहित्य की स्वतंत्र-स्त्री-दृष्टि पर कोई खास बहस नहीं हो रही थी तब महादेवी वर्मा ने कहा था कि पुरूष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है परंतु अधिक सत्य नहीं, विकृति के अधिक निकट पहुँच सकता है परंतु यथार्थ के अधिक समीप नहीं।3
महादेवी वर्मा के स्त्री चिंतन में वे सब आशंकायें बताई गई हैं जो भूमंडलीकरण के इस दौर में घट रही हैं। स्त्री-श्रम को विश्व-स्तर पर लगातार मामूली सिध्द किया जा रहा है। हायर एण्ड फायर वाला सिध्दांत स्त्री-श्रमिकों पर सबसे पहले लागू किया जा रहा है। इस तरह के अस्थायी अर्थोपार्जन से उसकी जीवन स्थितियाँ भी बद से बदतर हुई हैं । महादेवी वर्मा जी स्त्री मुक्ति को अर्थ से जोड़ते हुए कहती हैं  कि ‘यदि  उन्हे अर्थसंबंधी वे सुविधाएँ प्राप्त हो सकें जो पुरूषों को मिलती आ रही हैं तो न उनका जीवन उनके निष्ठुर कुटुम्बियों के लिए भार बन सकेगा और न वे गलित अंग के समान समाज से निकालकर फेंकी जा सकेंगी, प्रत्युत वे अपने शून्य क्षणों को देश के सामाजिक तथा राजनीतिक उत्कर्ष के प्रयत्नों से भरकर सुखी रह सकेंगी। 4 आगे महादेवी वर्मा अपने निबंध ‘स्त्री के अर्थ-स्वातंत्र्य का प्रश्न’ में कहती हैं कि ‘आधुनिक परिस्थितियों में स्त्री की जीवन धारा ने जिस दिशा को अपना लक्ष्य बनाया है उनमें पूर्ण आर्थिक स्वंतत्रता ही सबसे गहरे रंगों में चित्रित है। स्त्री ने इतने युगों के अनुभवों से जान लिया है कि उसे सामाजिक प्राणी बने रहने के लिए केवल दान की ही आवश्यकता नहीं  है, आदान की भी है, जिसके बिना उसका जीवन जीवन नहीं  कहा जा सकता। वह आत्म-निवेदित वीतराग तपस्विनी ही नहीं , अनुरागमयी पत्नी और त्यागमयी माता के रूप में मानवीय  भी है और रहेगी। ऐसी स्थिति में उसे वे सभी सुविधाएँ, वे सभी मधुर भावनाएँ चाहिए जो जीवन को पूर्णता  प्रदान कर सकती है। 5
महादेवी वर्मा का नारी चिंतन व लेखन नारी की वेदना और आत्मपीड़ा की अभिव्यक्ति के साथ नारी स्वातंत्र्य पर जोर देता है। महादेवी वर्मा जब स्त्री स्वतंत्रता की बात करती हैं  तब सवाल यह उठता है कि वे कैसी स्वतंत्रता चाहती हैं स्त्री की ? स्त्री की स्वतंत्रता की चाह परिवार को तोड़ने की चाह नहीं  हो सकती, उसे जोड़ने की होनी चाहिए। जोड़ने के इस कार्य में पुरूष की भागीदारी उतनी ही है जितनी स्त्री की है। संवैधानिक रूप में स्त्री बिल्कुल पुरूष के बराबर है। लेकिन वास्तविक जीवन में प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। स्त्री-मुक्ति पर बात करने की, स्त्री की मुक्ति-कामना करने का मतलब परिवार से अलग होना या पति से अलग होना नहीं  है। विवाह-संस्था को बनाये रखने में स्त्री-पुरूष दोनों का समान दायित्व है। माता-पिता के रूप में, पति-पत्नी के रूप में। जीवन की सार्थकता तभी संभव है, जहां स्त्री और पुरूष एक दूसरे के साथ मिलकर सहयोग दें, परस्पर आत्म सम्मान के साथ जिएं। वर्तमान परिवेश में ऐसा सहयोग कहीं-कहीं धूमिल सा हो गया है। इस तथ्य को एक उदाहरण द्वारा महादेवी वर्मा लिखती हैं  कि बचपन से ही भिक्षुणी बनने की कामना की थी, परंतु जब सिलोन से आए विख्यात महास्थविर ने काष्ठ पर आँखों के सामने रखकर बात की तो उनकी प्रतिक्रिया थी, यह सब मुझे विचित्र तो लगा ही, क्रोध भी आया। जो गुरू अपने शिष्य को सीधे देख सकने की भी शक्ति नहीं  रखता, उसका शिष्यत्व स्वीकार करना हास्यास्पद ही नहीं , अपमान जनक भी है। मेरा मन विद्रोह कर उठा और मैं तुरंत उठकर चली आयी। 6
वास्वत में देखा जाए तो बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक के केंद्र में रहे ‘स्त्री विमर्श’ में विवाद का विषय रहा है कि यह स्त्री का सुरक्षित क्षेत्र है या लेखक होने के नाते पुरूष की भी भागीदारी की संभावना भी वहां है। स्त्री के अनुभव की प्रामाणिकता की बात जहां महादेवी वर्मा ‘शृंखला की कड़ियाँ’ में करती है, वहीं जान स्टुअर्ट मिल पुरूष के स्त्री विषयक ज्ञान को स्त्री अनुभवों के अभाव में अधूरा मानते है। जहाँ एक ओर पंकज विष्ट लेखन के संबंध में स्त्री पुरूष भेद को खत्म करने वाली बात को पुरूष मानसिकता व वर्चस्व को बनाये रखने की साजिश से जोड़ते है, वहीं स्टीफन हीथ पुरूष के स्त्रीत्ववाद को अन्ततः एक मर्दाना काम ही मानते है। दूसरी ओर स्त्री का स्त्री के लिए लेखन आत्मकथाओं की प्रवंचनाओं से जुडता है। स्त्री का स्त्री विषयक हो जाना तथा स्त्री लेखन को दोयम दर्जे का लेखन समझे जाने के खतरे भी कम नहीं  हैं। राजशेखर भी काव्य मीमांसा में स्त्री और पुरूष के रचना संसार को अलग-अलग खांचो में बाँटने से इंकार करते है –
‘पुरूषवत योषितो डपिं कवी भवेयुः
न स्त्रैणा पौरूष वा विभागमय पेक्ष में। 7
सन 1997 में आये इण्डिया टुडे की साहित्य वार्षिकांक में स्त्री लेखन के अधिकार क्षेत्र के बारे में लंबी बहस सुरक्षित है। जिसमें अधिकांश स्त्री रचनाकारों ने सिद्धांत: स्वीकार किया था। स्त्री की स्थिति पर केंद्रित समस्त लेखन में स्त्री-दृष्टि महत्वपूर्ण है जो दोनों स्त्री या पुरूष की भी हो सकती है क्योंकि स्त्री दृष्टि सहजात दशा न होकर अर्जित स्थिति है। स्त्रियाँ पुरूष दृष्टि से अपने संसार को देख सकती है और पुरूष स्त्री की स्थिति का भोक्ता न भी बन सके, उसका अधिवक्ता तो बन ही सकता है। स्त्री की तरह पढ़ना, स्त्री की तरह अनुभव करना लेखक अपनी बारीक संवेदना शक्ति से संभव बना सकता है जिसे कई बार भोक्ता पकड नहीं  पाता।
वास्तव में देखा जाए तो स्त्री साहित्य शक्ति के वरण की स्थापना की गयी है। समता, स्वतंत्रता, सौहार्द, वर्गहीन मानवतावाद के सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा की गयी है। स्त्री साहित्य के मूल में ऐसे जीवन मूल्य हैं जो पूरी मानव जाति के हित में है। आज के इस अपसंस्कृति के समय में जब जीवन विरोधी अमानवीय स्पर्धा और हिंसा पंख पसार रही है; स्त्री साहित्य एक उदार भाव से संवदेनाशीलता और संतुलन बुध्दि से युक्त होकर संबंधों की ऊष्मा, साहचर्य, प्रेम और सद्भाव का साहित्य रच रहा है। आज के चरित्रहीन समाज, भ्रष्ट राजनीति लालच की अर्धनीतियों, हिंसा की विकृतियों के विरूध्द पूरी मानवजाति के पक्ष में खड़ी स्त्री, विहंगम दृष्टि से अपने समय और समाज को देख परख रही है। विघटन की प्रक्रिया में मानवीय संवदेनाओं का ह्रास  हो रहा है। मानव मन के जटिल ताने-बाने में सबकुछ सफेद या स्याह नहीं  होता। स्त्री साहित्य आज उन्हीं जटिल मानवीय रिश्तों और स्थितियों की अपेक्षा जीवन को समग्रता में देखता-परखता है। इसलिए स्त्री साहित्य में आज के विखंडित, मनुष्य की सही पहचान होती है। अपनी गुणों से, धर्मपालन, सात्विक भावों, सदाशयता और आचरण की शुध्दता में स्त्री पुरूष से कहीं  अधिक श्रेष्ठ है। वह अधिक सहृदय धैर्यवान, धर्मपरायण, त्यागमयी, ममतापूर्ण और नैतिक है जबकि पुरूष स्वार्थी, आत्यलिप्त, भोग और लोभ में आसक्त, अधिक ऐंद्रिय और स्थूल वृत्तियों वाला जड़ प्राणी है जो अपनी सत्ता के आधिपत्य के लिए नित नए षडयंत्र रचता है। जड़ मूल्यों के कारण पुरूष वर्चस्व स्त्री को आहत करता रहा और अपनी श्रेष्ठता का दंभ भरता रहा।
साहित्य रचना के लिए आवश्यक सृजन और निर्माण शक्ति की विभूति ले नारी-पुरूष की तुलना में काव्य के अधिक समीप आती है क्योंकि भावनाओं की कोमलता और अभिव्यक्ति की कलात्मकता, दोनों ही नारी स्वभाव के प्रबल पक्ष है। एक ओर जहाँ शक्ति और शासन प्रिय पुरूष ने अधिकार, संघर्ष और भौतिक सफलताओं में ही जीवन का मूल्यांकन किया, वहाँ स्त्री ने समर्पण, सेवा और त्याग में अपने जीवन की सार्थकता मानी। सूक्ष्म भावना के प्रति जितनी पकड़ स्त्री लेखन में मिलती है उतनी पुरूष लेखन में नहीं । इतिहास इस तथ्य का साक्षी रहा है कि स्त्रियों के द्वारा रचित ऋग्वेद की ऋचाएँ, पुरूषों द्वारा बनाई हुई कविताओं से किसी भी प्रकार कम नहीं  हैं । यह दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि अनुभूति और भावनाओं की प्रतिमूर्ति होते हुए भी, सृजन की प्रतीक होते हए भी, भारतीय नारी साहित्य सृजन में प्रधान तो क्या यथेष्ठ भाग भी न ले सकी।

संदर्भग्रंथ:
1) स्त्री विमर्श और महादेवी वर्मा का साहित्य – डा.वंदना शर्मा
2) महादेवी वर्मा और उनकी दृष्टि: डाॅ.राजेंद्रकुमार गर्ग
3) महादेवी वर्मा का नारी विषयक चिंतन: डाॅ.रंजना तिवारी
4) महादेवी वर्मा के साहित्य में स्त्री विमर्श: डाॅ.जैन
5) स्त्री विमर्श के संदर्भ में महादेवी वर्मा के साहित्य का मूल्यांकन: डाॅ.वेद प्रकाश मिश्र
6) महादेवी वर्मा और स्त्री विमर्श: प्रदीप कुमार सिंह
7) महादेवी वर्मा: शृंखला  की कडियां – लोकभारती प्रकाशन

डाॅ.दीपक विनायकराव पवार
सहायक प्राध्यापक
हिंदी विभाग
दिगंबरराव बिंदु महाविद्यालय भोकर,
जिला नांदेड (महाराष्ट्र)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *