भारत गाँवों का देश है,यहाँ 70 प्रतिशत से ज्यादा लोग गाँवों में रहते है,और 60 प्रतिशत से ज्यादा लोगों का जीवन कृषि पर निर्भर है,लेकिन फिर भी क्यों गाँव और किसान जीवन कविताओं में कम होते जा रहें है।आज गाँव अपने सार से रहित एक मार्केट फ्रेंडली विकाऊ माल है,अष्टभुजा शुक्ल को दुनिया के बाजार में बदलते जाने का पता है, उन्हें पता है कि यह पूंजी की दुनिया है ,यहां सम्बन्धों का कोई मतलब नहीं है। प्रेम का कोई मूल्य नहीं बस बेचने-खरीदने का वह रिश्ता है,
गाहक है भगवान यहाँ का
भक्त यहाँ विक्रेता
कलियुग बीता
यह उतरआधुनिक काल का त्रेता
इस वैश्वीकरण के दुनिया में अपना स्वत्व अपना मूल्य अपना गाँव बचाना मुश्किल है । यह एक दुर्दांत काल है, ऎसे में अष्टभुजा शुक्ल की कविता पूर्णं रूप से ग्राम्य जीवन में रची-बसी हुई है,चाहे पद-कुपद ,चैत के बादल या फिर दुःस्वप्न भी आते है, सभी में ग्रामीण जीवन और लोक रंग की झलक मिलती है।
“अष्टभुजा शुक्ल की कविताएँ ग्रामीण जीवन की जटिलता” (शुक्ल 20) को प्रस्तुत करती है।ये जटिलताएँ कवि की[1] कल्पना का हिस्सा नहीं है । जिन संघर्षों और समस्याओं को कवि ने देखा और जिया है उन्हीं का वर्णंन उन्होंने अपनी कवितओं में किया है । ग्रामीण जीवन ऊपर से जैसा दिखाई देता है ,वह पुरी तरह वैसा ही नहीं है । ग्रामीण जीवन प्रायः बंधा समाज है एक बंधे समाज का जीवन ज्यादा पेचीदा और जकड़ा हुआ होता है । अष्टभुजा शुक्ल न केवल गँवई समस्याओं से अवगत कराते है । चैत के बादल काव्य –संग्रह की पहली ही कविता में अष्टभुजा शुक्ल ग्रामीण –जीवन की जटिलता के दर्शन करा देते है । कवि प्रश्न करता है कि यदि कोई दुकानदार अपने श्वार्थ सिदि के लिए एक बोरी यूरिया में एक बोरी नमक मिला देता है,जिससे किसान की उपज उसकी लागत की आधी रह जाती है फिरः-
किसान की
किस पीढी का बच्चा
सोने की कटोरी में
दूध भात खाएगा
एवं किस युग के किस चरण सें,
रामराज्य अथवा समाजवाद आएगा ।
लोक के विश्वासों, संस्कारों और ग्रामीण की निरक्षरता के कारण विकृतियाँ, ग्रामीण जीवन में प्रवेश करने लगती है । सन्तोषा कविता में ग्रामीण समाज की इन्हीं विकृतियों का वर्णंन किया गया हैः-
एक बेटे की आश में
लगातार आठ बेटियाँ पैदा करता रहा
सन्तोषा का बाप ……….।
भूख गरीबी और साहूकारों के पैरों तले दबे किसानों के पास आत्महत्या करने के अलावा कुछ नहीं रहता । आज भी ऐसे अनेक गाँव है जहाँ पर आए –दिन किसानों को अपने दुःख –दर्द से मुक्ति के लिए आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ता है .।
सड़ी हुई आलू
और खेतों में अपने हाथों जलाए गए गन्नों के साथ
आत्महत्या के ऊपर मँडरा रहा है
इत्र में भी भीगी रूमालें हलकान हैं
कि वह किसानों का देश या श्मशान है…….
ग्रामीन जीवन से पशु –पक्षी भी जुड़े हुए हैं, अष्टभुजा शुक्ल का कविताओं में पशु-पक्षी अपने सम्पूर्णं स्वभाव के साथ आते हैं | कवि की दृष्टि इतनी सूक्ष्म है कि परजीवी क्रीड़ा भी उनकी दृष्टि में बच नहीं पाई
बड़े आगमजानी होते है
ये किलने
ठोक बजाकर खोज लेते हैं
ताजा खून वाले प्राणी
मुँह की तुम्भी उनकी त्वचा में भिड़ाकर
लूटते है आनन्द
जीवन भर
अष्टभुजा गाँव और प्रकृति के रूमान के बजाय विडंबनात्मक परिवर्तन को लक्ष्य करते है।चैत के बादल इसी तरह की विडम्बना है,इस कविता को ध्यान से देखने पर उनकी अर्थ –छवियाँ सीमित देश ,काल ,से हमारे समय तक फैलती और गहराती चली जाती है ।
कविता बहुत गहराई से यह दिखाती है कि सौंदर्यँ हमारे जीवन की ठोस जरूरतों से जुड़ा है । वह उपयोगी होकर ही सुंदर हो सकता है कि, यह उपयोगिता सौँदर्यं का सार है । अष्टभुजा समय सापेक्ष बादलों के दोनों पक्षों को सामने रखते है,और इस मुहा-मुही से दोनोँ स्थितियों को अर्थक्षम बनाते है। दूसरे शब्दों में वे फ्लैश-बैक में लौट कर हमारे समय की विडम्बना को और भी स्पष्ट सघन करते दिखते हैं —
माघ में
जब सींचना था
तब नहीं लौके
जब बयाना हो गई घर की मसूर
जब फसल पक कर हुई तैयार
तब फूँकने खलियान
आयें हैं
चौधराहट दिखाने
चैत के ।
कहन कविता में किसान का सहज उद्गार है जीवन को दुःखद बनाने वाली परिस्थितियों के प्रति सहज उद्गार है,सहज प्रतिक्रिया है,और उसे सुखद और सौंदर्यं–पूर्णं बनाने बाली परिस्थितियों के प्रति भी। यहाँ सौंदर्य जीवन से जुड़ाव की सहज प्रतिक्रया है ,बादल भी किसानों को नुकसान पहुचाँने आए इसलिए वे दबे पाँव सन्न मारे आते हैं –
मुँह अन्हारे
सन्न मारे
गाँव में माया पसारे
कहाँ से उतरा गये
भडुए अंधी ये चैत के बादल
इनकी कविता में सभी अपने पूरे संदर्भ के साथ आता है, इस कारण ठेठ से देशज शब्द भी या तत्सम् शब्द भी आपको कहीं से असहज नहीं लगेंगे | शब्द बड़े ही सहज ढंग से आपके अंदर घुलते–मिलते जाएँगें । इनमें भाषा का इतिहास –भूगोल जितना विस्सृत है, इससे आगे बढ़ के वचन–भंगी का जो पकड़ पाने की जो सघन क्षमता है । वह उनकी पीढ़ी में किसी और के पास नहीं है कविता में ठेठ देशज शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ तत्सम् शब्दों तक का प्रयोग हुआ है, गाली से लेकर इस्तकबाल तक की मुद्रा किसान चैत के बादलों पर विफर पड़ता है । उन्हें गाली देता है तो वह शरद ऋतु के बादलों को बहुत सम्मान के साथ याद भा करता है-
शरद ऋतु में
तालाबों की सतह से उठेगी भाप
जो पशु –पक्षियों के लिए
होगी चाय का विकल्प
अष्टभुजा जी के कविता संग्रह से पता चलता है कि इनके बोध का भूगोल गाँव से लेकर बड़े कस्बों या छोटे-शहरों तक फैला है । इनकी चेतना का इतिहास 90 के बाद तेजी से बड़े गाँवो पर उदारीकरण और बाजार के आर्थिक और सांस्कृतिक दबाबों से निर्मित है, कवि सारे दबाबों के प्रति बेहद सजग है।
गाँव पर कविता और गाँव की कविताएँ दो अलग-अलग बातें है। 90 के बाद हिन्दी कविता में गाँव पर किवताओं की बढ़ोतरी हुई है।इसे वैश्वीकरण की प्रक्रिया में एक शरण की तरह समझा जा सकता है।
जिसमें आत्महत्या करता हुए इंसान गरीबी और प्रकृति आदि के विषय में या तो वर्णंण है या फिर एक किस्म की भावुकता इन्हें पढ़ते हुए भाषिक सर्जनात्मकता का अभाव यह बताता है कि –कविता का गाँव की वस्तुगत यर्थाथ –से कोई संबंध नहीं –
अष्टभुजा जी लिखते हैः-
कविता की खेती में जितने सुख हैं
खेती की कविता में उतने ही दुःख और असमंजस
अष्टभुजा शुक्ल जिस भी बिषय पर कविताएँ लिख रहे हैं । वहाँ गाँव और किसानी के छोटे –छोटे उपादान विविध तरीकों से रचित –पुर्नरचित होते रहते हैं
चेहरा छीले गए खलियान की तरह
माथ दो मेघखंड
मुछें उगी हुई फसल
यह गांव भी कविता है,जिसके आते ही कविता की संरचना बदलने लगती है, शुक्ल की कविताओं की संरचना और उसकी भाषा कई स्तरों पर हिन्दी कविता की सामान्य संरचना को तोड़ती है उसे अपर्याप्त सिध्द करती है, ऐसा गाँव के यथार्थ से उपजे नए तरह के बोध के कारण होता है अष्टभुजा शुक्ल इसे समझते हैः-
थोड़ी सी बनेली हबा
और एक आदिवासी कुल्हाड़ी
लाना चाहता था
लेकिन रैक्सीन का बैग
फट जाने के डर से
एक छेदना तक नहीं लाया वहाँ से
अष्टभुजा शुक्ल के विचारों से साफ जाहिर होता है कि वे ग्रामीण समाज के प्रति प्रतिबद्ध हैं, उनकी रचना के केंद्र में जो विचार है ,वे प्रगतिशील विचारधारा को परिपुष्ठ करते हैं । कवि की यही प्रगतिशीलता उन्हें प्रासंगिक बनाती है । इनकी कविताएँ गाँवों में छोटे-छोटे परिवर्त्तनों और उससे जीवन –संवेदना पर पड़ने वाले प्रभाव को पकड़ने में सक्षम है।
प्रियंका झा