ईषावास्यमिदं सर्व यत्किंचित जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुन्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।
-इषोपनिशद् मंत्र
ईश्वर ने उपहार स्वरूप प्रकृति की समस्त वस्तु उपभोग के लिए संसार के सभी मनुष्यों को प्रदान किया है। मनुष्यों को चाहिए कि प्रकृति-प्रदत्त वस्तुओं का आवश्यकतानुसार उपभोग करे तथा लोभ में आकर प्रकृति का दुरूपयोग न करे।
पर्यावरण का स्वभाव परिवर्तनशील है। यह स्वनियंत्रण एवं स्वपोषण के मूल सूत्र से गतिमान होता है। पर्यावरण के भीतर अथाह संसाधनों का भण्डार है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य की आवश्यकताएँ एवं लोलुपता भी उत्तरोत्तर बढ़ती चली गई। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसने विभिन्न वैज्ञानिक आविष्कारों का सहारा लिया परिणामस्वरूप प्रकृति से दूर होकर कृत्रिमता की तरफ मुड़ गया। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन तथा वैज्ञानिक आविष्कारों ने पर्यावरण को प्रदूषित तरने का कार्य किया। मनुष्यों की बढ़ती लालसाओं तथा सुख-सुविधाओं की चाह के कारण प्रकृतिक संसाधनों का ह्रास, अधिक कचरा, अधिक प्रदूषण तथा अधिक जटिल परिस्थितियों का निर्माण हो रहा है।
वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण वृक्षों को लगातार काटते जाना और औद्योगिकरण है। भवन निर्माण तथा काष्ठ से निर्मित सजावटी सामान एवं फर्नीचर आदि बनाने के के लिए प्राणवायु प्रदान करने वाले वृक्षों को धड़ल्ले से काटा जा रहा है। वायु को स्वच्छ एवं प्रदूषण मुक्त रखने के लिए सबसे पहले जंगलों एवं वृक्षों को काटना बंद करना होगा। इसके साथ ही अधिकाधिक वृक्षारोपण करना होगा। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में जितना संभव हो सके वृक्ष अवश्य लगाए। इससे पेड़ों की संख्या धीरे-धीरे सामान्य हो जाएगी। तब, स्वतः ही हवा स्वच्छ होगी, ग्लोबल-वार्मिंग एवं ग्रीन-हाउस प्रभाव कम हो जाएगा। काॅलोनियों तथा भवनों के निर्माण बनाते समय पेड़-पौधें के लिए अतिरिक्त स्थान छोड़ना चाहिए, जहाँ बाद में वृक्षारोपण किया जाना चाहिए। कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएँ की रोकथाम के लिए कोयला तथा लकड़ी को ईधन की तरह प्रयोग करने के बदले नवीन तथा उन्नत तकनीक के प्रयोग को बढ़ावा देना होगा। कारखानों को आवासीय क्षेत्रों से दूर स्थापित करना चाहिए। सड़कों पर यातायात के साधन बढ़ते चले जा रहे हैं। दस लीटर पेट्रोल के उपयोग से लगभग बीस किलोग्राम कार्बन डाई ऑक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है। वाहनों की बढ़ती संख्या को नियंत्रित तथा उनके सही रख-रखाव से भी प्रदूषण को बढ़ने से रोका जा सकता है। पेट्रोल के स्थान पर प्राकृतिक गैस से वाहन चलाना अच्छा विकल्प है। धूम्रपान की आदत को छोड़कर स्वास्थ्य तथा वायु-प्रदूषण दोनों को बचाया जा सकता है। बंद कमरों में रूम-फ्रेशनर्स या एयर-प्यूरिफायर की जगह छोटे पौधें रखें। इससे आर्थिक बचत के साथ वायु-प्रदूषण के रोकथाम में मदद मिलेगा।
रेडियोधर्मी प्रदूषण सर्वाधिक खतरनाक है। परमाणु ऊर्जा के लिए किए जाने वाले परमाणु विस्फोटों से अनेक तरह की रेडियोधर्मी किरणें उत्पन्न होती है, जो वातावरण में प्रदूषण फैलाती हैं। मानव जाति पर इनका अत्यन्त हानिकारक प्रभाव होता है। परमाणु-संयंत्रों में सुरक्षा के सुदृढ़ तरीकों को अपनाकर, परमाणु हथियारों के निर्माण तथा प्रयोग को प्रतिबंधित करके इस प्रदूषण को रोकना चाहिए।
स्वच्छ जल दिनोंदिन दुर्लभ होता चला जा रहा है। अगर हमने पानी की कमी को समय रहते नहीं पहचाना तो भविष्य में पृथ्वी का अस्तिव ही खतरे में पड़ जायेगा। पानी को बचाने के लिए तथा इसमें बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिये सभी को जागरूक होना चाहिए। सभी को पानी के बचत की आदत डालनी चाहिए। रोजमर्रा के कामों में जितना कम पानी खर्च हो, उतना ही करे। घरों से निकले वाला गंदा पानी तथा कारखानों से निकलने वाले रसायनों को सीधे नदियों में न बहाया जाए। शहरों तथा गाँवों में भूमिगत जल का स्तर चिंताजनक रूप से गिरता जा रहा है। अतः आवश्यकता से अधिक बोरिंग के निर्माण पर रोक लगाना चाहिए। इसके अतिरिक्त वर्षा के जल को एकत्रित कर उसके सही समायोजन के द्वारा जल-संकट से काफी हद तक छुटकारा पाया जा सकता है। कृषि में सबसे अधिक खर्च सिंचाई के लिये ही हो रहा है। नहरों की खुदाई औरी जेट-पंप समस्या समाधान के लिये पर्याप्त नहीं है। वर्षा के जल का संचयन और उसके माध्यम से कृषि का स्वावलम्बन बहुत हद तक सफलता दे सकता है। पानी, बीज, खाद के साथ परिश्रम, साझाा एवं साहचर्य के मूल-मंत्र के द्वारा गाँवों को पुनः हरा-भरा एवं समृद्ध बनाया जा सकता है।
वैश्विक स्तर पर प्रतिदिन कई हजार लोग गाँवों से निकलकर शहर की ओर पलायन करते चले जा रहे हैं। विकासशील देशों में यह समस्या सबसे ज्यादा गंभीर है। यह आंकड़ा अभी और बढ़ने की संभावना है। शहरीकरण की योजना एवं गांवो से पलायन की गति, इस बात की और संकेत कर रहे है कि सदी के मध्य तक आते-आते भारतवर्ष में भी गाँव मिट जाएंगे। अधिकतर गाँव, बड़े कस्बे में तथा कस्बे, नगरों में परिणित हो जाएंगे। इसका एक बहुत बड़ा कारण पानी, बिजली एवं अन्य जीवनोपयोगी सुख-साधनों की कमी है। शहरों में जनसंख्या का दबाव बढ़ने के कारण भीड़, कचरा एवं प्राकृतिक संसाधनों की मांग-आपूर्ति के मध्य असंतुलन उत्पन्न होगा। भारत में अनियोजित नगरों की संख्या कई गुना बढ़ जाएगी। इस वैश्विक समस्या को बढ़ने से रोकना नामुमकिन है, किन्तु इसकी रफ्तार को सीमित किया जा सकता है। इसके लिए हम गाँवों में अधिकाधिक जीवन के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करें। नगरों को बसाने के पूर्व सुनियोजित खाका तैयार कर लें। नगरों में शुद्ध जल तथा शुद्ध वायु की पुख्ता व्यवस्था करें जलस्त्रोतों की उपलब्धता एवं क्षमता के साथ इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि नगर के किस हिस्से में कल-कारखाने हों तथा किस हिस्से में आवास की व्यवस्था हो।
तीन आवश्यक कदम जो पर्यावरण संरक्षण में सहायक है- 1. कम उपयोग करना, 2. पुनरावर्तन करना और 3. पुनः उपयोग करना। हमें भोग-विलास और दिखावे के लिए वस्तुओं को खरीदना तथा इस्तेमाल करना बंद करना होगा। अनावश्यक वस्तुओं के निर्माण तथा प्रयोग से बचना होगा। जीवन के लिए जितना आवश्यक हो, सिर्फ उन्हीं वस्तुओं का निर्माण, खरीद एवं उपयोग करना चाहिए। यदि ध्यान दें तो अधिकतर चीजों की पुनरावृत्ति की जा सकती है। काँचा, प्लास्टिक, कागज तथा धातु-इन सभी वस्तुओं को पुनरावर्तन के पश्चात दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है। खाली बोतल, शीशे की अन्य वस्तुए, प्लास्टिक के खिलौने, धातु के बर्तन, पुराने तथा रद्दी हो चुके अखबार एवं दूसरे कागज, गत्ते सभी कुछ पुनरावर्तन के पश्चात पुनः उपयोग के लिए तैयार किए जा सकते हैं।
धन कमाने की लालसा में सब्जियों, फलों एवं अनाजों में जहरीले रसायनों का छिड़काव किया जा रहा है, जिससे कि उनका उत्पादन भी बढ़े तथा उनकों लंबे समय तक संरक्षित किया जा सके। अधिक रसायनों के छिड़काव से भूमि की प्राकृतिक उर्वरता विनष्ट होकर भूमि बंजर बनती जा रही है। खेतों में रसायनिक खाद के स्थान पर पारंपरिक जैविक खाद का प्रयोग करें। इससे मृदा संरक्षण के साथ ही हमारे स्वास्थ्य पर भी अच्छा प्रभाव पड़ेगा। मनुष्य अनेक जानलेवा बीमारियों से मुक्त होगा।
बिजली के दुरूपयोग को रोकने की दिशा में भी हमको प्रयत्नशील होना चाहिए। उपयोग करने के बाद बिजली के उपकरणों को बंद कर दें, इससे न सिर्फ आर्थिक लाभ होगा अपितु ऊर्जा को भी बचाया जा सकता है। घरों तथा दफ्तरों में एलईडी बल्ब लगाएँ। सौर-ऊर्जा का प्रयोग किसी वरदान से कम नहीं है, इसका अधिकाधिक फायदा लेने में समझदारी है।
समस्या से ही समाधान का रास्ता निकलता है। संसार के सभी विकसित एवं विकासशील देश कचरे का सही ढंग से निष्पादन करें। प्रतिदिन पैदा होने वाले कचरे का निवारण बुद्धिमत्तापूर्वक करें तो बहुत-सी समस्याएँ पैदा ही न हों। इस कचरे का प्रयोग खाद बनाने में किया जा सकता है, उस खाद से भूमि को उपजाऊ बनाकर उससे लाखों टन अतिरिक्त अनाज के पैदावार को बढ़ाया जा सकता है। यह अनाज देश को खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाएगा जिससे भुखमरी और गरीबी के समाधान में मदद मिलेगी। कचरा के समुचित प्रबंधन से अतिरिक्त गैस प्राप्त किया जा सकता है, जो रसोई घर से लेकर औद्योगिक प्रतिष्ठानों तक को समृद्ध बना सकता है।
कुछ छोटे किंतु कारगर तरीके है, जिनसे पर्यावरण-क्षय को रोका जा सकता है। प्रयोग करें एवं फेंकें, इस सोच एवं व्यवहार को समाप्त करने के लिए स्थायी एवं टिकाऊ उत्पादों को बढ़ावा दें। पाॅलिथीन से बनी थैलियों की उपेक्षा कपड़े एवं बने थैलों का उपयोग करें।
प्राकृतिक रूप से पृथ्वी पर रहने वाला प्रत्येक मनुष्य अविभाज्य पृथ्वी का नागरिक है। अस्तु, पर्यावरण-संरक्षण के पुनीत कार्य में सभी देशों तथा सभी व्यक्तियों की समान भागीदारी होना आवश्यक है। पर्यावरण को बचाने के लिए अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर कानून बनाने की आवश्यकता है। इस दिषा में अनेक राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन किया जा रहा है, यह एक सराहनीय प्रयास है। पर्यावरण नियंत्रण हेतु नीति एवं कानून बनाना जितना आवश्यक है, उससे अधिक आवश्यक है उसका कड़ाई से पालन करना।
समाज में यह एक अघोशित धारण बन चुकी है कि पर्यावरण के संरक्षण का सारा दायित्व सरकार या कुछ विशेष संस्थाओं का है। यह धारणा उचित नहीं है। वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति बढ़ते हुए प्रदूषण तथा पर्यावरण क्षय को रोकने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। सभी व्यक्तियों को जागरूक तथा सतर्क होना पड़ेगा। वह समय आ गया है, जबकि पर्यावरण के प्रति सभी लोग अपने अधिकार के साथ कर्तव्यों को भी समझें तथा उसका पालन करें अन्यथा भविश्य की पीढ़ियाँ शुद्ध वायु और निर्मल जल के लिए भी अभावग्रस्त स्थितियों से जूझेंगी। पर्यावरण की समस्या से निपटने के लिए पूरे विश्व को एक-साथ आगे बढ़ना होगा क्योंकि यह संकट किसी स्थान-विशेष या राष्ट्र-विशेष का न होकर सम्पूर्ण विश्व का है। विकसित देशों को आगे बढ़कर विकासशील तथा अल्प-विकसित देशों को आर्थिक तथा तकनीकी सहायता प्रदान करना होगा ताकि वे अपने आवश्यकताओं को पूरा करते हुए पर्यावरण-संकट से उबरने में आत्मनिर्भर हो सकें।
विकास मनुष्य का सहज स्वभाव एवं आवश्यकता है। किंतु इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि विकास की प्रक्रिया पर्यावरण-विनाश का कारण न बने। विकास की राह पर आगे बढ़ते हुए पर्यावरण या प्रकृति की अनदेखी पृथ्वी एवं प्राणियों के अस्तित्त्व को संकट में डाल सकती है। प्रकृति एवं प्रगति परस्पर एक-दूसरे पर आधारित व पूरक हैं। अतः दोनों में सामंजस्य बनाए रखना अनिवार्य है। स्मरण रहे कि प्रकृति सुरक्षित है तभी जीवन भी सुरक्षित है।
संदर्भः-
1. भारत में पर्यावरण के मुद्दे, संपादक-महेश रंगराजन, अनुवादक-रीता श्रीधर, प्रथम संस्करण-2010 पियर्सन इंडिया, दिल्ली।
2.The Human Footprint on Environment: Issues in India, Vipul Singh, 2012, Macmillan Publishers, India.
3. पर्यावरण अध्ययन एक परिचय, लेखक- अरूण कुमार मौर्य एवं अन्य, प्रथम संस्कमरण-2015, बुक एज़ पब्लिकेषनस् दिल्ली।
4. पर्यावरण अध्ययन, इराक भरूचा, दूसरा संस्करण-2015, ओरियंट ब्लैकस्वाॅन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली।