फिल्म और साहित्य दोनों ही मानवीय सम्वेदनाओं को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम है। पुस्तकों में स्त्रियों की दशा-दुर्दशा को हम शताब्दियों से पढ़ते-सुनते आए हैं। फिल्मी परदे के चकाचौंध में भी स्त्रियों की कमोबेश वैसी ही स्थिति है। भारतीय फिल्म उद्योग सौ वर्ष से भी अधिक सफर तय कर चुका है। इस यात्रा में इसके तकनीक, पटकथा, संवाद, नृत्य-संगीत में निरंतर बदलाव और सुधार होता गया किन्तु, फिल्मों में स्त्री की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। यद्यपि स्त्री को केन्द्र में रख कर अनेक फिल्मों का निर्माण एवं प्रदर्शन हुआ है किन्तु, पुरूष-प्रधान फिल्मों की अपेक्षा इनकी संख्या बहुत कम है। स्त्रियाँ आज भी फिल्मी परदे के हाशिए पर हैं। अधिकांश फिल्में पुरूष-प्रधान ही हैं। इन पुरूष-प्रधान फिल्मों में अभिनेत्रियों की भूमिका सजावट मात्रा के लिए होती है।
फिल्मों में स्त्री की भूमिका की ओर दृष्टिपात करें तो पचास और साठ के दशक में हिन्दी फिल्म उद्योग में कई प्रतिभाशाली अभिनेत्रियाँ आईं। उन फिल्मों में अभिनेत्रियों की भूमिका अत्यन्त संक्षिप्त तथा नायक का दिल बहलाने मात्रा तक ही सीमित था। इन अभिनेत्रियों को नायक की माँ, बहन, भाभी, पत्नी अथवा प्रेमिका के परंपरागत ढाँचे में ही फिल्मी परदे पर प्रस्तुत किया जाता था। स्त्री-प्रधान अच्छे पटकथा के अभाव में अभिनेत्रियों की अभिनय-प्रतिभा का समुचित तरीके से इस्तेमाल नहीं हुआ।
सत्तर के दशक में फिल्मों में स्त्रियों की स्थिति बद से बदतर होती चली गई। अभिनेत्रियों की भूमिका नाच-गाकर नायक तथा दर्शकों को रिझाने मात्रा तक रह गई। फिल्मों में पुरूष नायकों का वर्चस्व रहा। फिल्म नायक के कंधें पर ही चलती थी। लेकिन, इसी दौर में श्याम बेनेगल जैसे फिल्म निर्देशक उभर कर सामने आए जिन्होंने स्त्री-केन्द्रित विषयों और स्त्री चरित्रा-चित्राण पर आधरित फिल्में बनाईं। इस युग में स्त्रियाँ नई संभावनाओं तथा बदली हुई छवि के साथ परदे पर अवतीर्ण हुईं। श्याम बेनेगल ने अंकुर, निशांत, भूमिका, मंडी जैसी सार्थक फिल्मों का निर्देशन कर प्रबुद्ध दर्शकों को चिन्तन करने के लिए नई दृष्टि प्रदान की। इन फिल्मों के माध्यम से स्मिता पाटिल और शबाना आज़मी जैसी अभिनेत्रियों ने अपने कला-कौशल का लोहा मनवाया। स्त्री-चरित्रा श्याम बेनेगल का प्रिय विषय रहा है। इसी क्रम में उन्होंने आगे के दशकों में हरी-भरी और जुबैदा जैसी स्त्री-प्रधान फिल्में बनाईं।
अस्सी के दशक से स्त्री-केन्द्रित पिफल्मों के निर्माण और प्रदर्शन में कुछ तेजी आई। इस दशक में चक्र, अर्थ, बाजार, मिर्च मसाला जैसी स्त्रियों के जीवन से संबंधित फिल्में प्रदर्शित हुईं।
नब्बे के दशक में निर्मित-प्रदर्शित फिल्मों जैसे रूदाली, बैंडिट क्वीन, आस्था में स्त्रियाँ परंपरा से अलग भूमिकाओं में दिखाई पड़ीं। इसी दशक में आगे फिज़ा, अस्तित्व, लज्जा, पिंजर, चमेली, चांदनी बार, डोर और फैशन में स्त्री-चरित्रा के विभिन्न आयामों को फिल्मी परदे के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। इन फिल्मों को प्रबुद्ध दर्शकों तथा पिफल्म समीक्षकों द्वारा अपार सराहना प्राप्त हुई।
दो हजार तथा उसके बाद वर्तमान दशक में भी स्त्री को केन्द्र में रखकर लगातार अनेक फिल्में बन रही हैं। इनमें द डर्टी पिक्चर, हीरोइन, पिफर मिलेंगे, इंग्लिश विंग्लिश, क्वीन जैसी सार्थक तथा सोद्देश्य फिल्मों का निर्माण एवं प्रदर्शन जारी है।
किन्तु, इन तमाम फिल्मों में परदे पर दिखाई जा रही स्त्री और यथार्थ जीवन जीने वाली स्त्रियों की भूमिकाओं में जमीन-आसमान का अन्तराल है। फिल्मी परदे पर दिखाई जा रही स्त्री की छवि वैसी ही नहीं है जैसी कि वह ;स्त्राी अपने वास्तविक जीवन में है। फिल्मी स्त्राी निर्माता-निर्देशक के मस्तिष्क की उपज है। वह जैसी स्त्री को अपनी कल्पना में देखता है या देखना चाहता है वैसी स्त्री सायास गढ़ कर परदे पर उतारता है। ‘‘भारतीय मंच व परदों पर स्त्री की छवि सहज नहीं बल्कि पुरूषों की पसंद के आधर पर सायास गढ़ी जाती है। जिस मायने में औरत का चित्रण भारत के कमर्शियल थिएटर या सिनेमा जगत में किया जाता है। उस मायने में कोई अभिनेत्री जन्म से औरत नहीं होती। मंच व परदे पर स्त्री के रूप में स्वीकार्य तभी होती है जब पहले औरत के रूप में उन्हें गढ़ लिया जाता है।’’1
भारतीय फिल्में व्यक्ति और उसके अस्तित्व से जुड़े मुद्दे उठा रही हैं। किन्तु, स्त्री-केन्द्रित जिन फिल्मों का निर्माण हो रहा है उनमें सही मायने में किस स्त्री की भूमिका को दिखाया जा रहा है? ‘‘फिल्म का शीर्षक व्यक्ति और अस्मिता की पहचान से संबंधित प्रश्न उठाता है। यहाँ किसकी भूमिका की बात हो रही है? अपने पेशे के अन्तर्गत निभाई गई नायिका की विभिन्न भूमिकाओं की या नारी की भूमिका की? नारी की उस भूमिका की जो समाज ने उसके लिए निश्चित निर्धरित कर रखी है?’’2 इस दृष्टि से फिल्मों में नायिकाओं द्वारा निभाई जा रही स्त्रियों की कहानी भी संदिग्ध हो जाती है।
आज अभिनेत्रियाँ अपनी प्रतिभा के बल पर ख्याति और पैसा अर्थात नाम-दाम दोनों कमा रही हैं। फिल्मों की चमचमाती दुनिया में अपने पैर जमाने के लिए अभिनेत्रियों को कड़ी मेहनत के साथ ही इस क्षेत्रा से जुड़ी विभिन्न चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। इन अभिनेत्रियों का वास्तविक जीवन में परिवार और समाज में स्वयं को स्थापित करने तथा सहज-सुखद जीवन का सपना प्रायः मृग-तृष्णा बन कर रह जाता है। ‘‘भारतीय सिनेमा में कई…. फिल्में नारी चेतना की संवाहक हैं। लेकिन अभिनेत्रियों का व्यक्तिगत जीवन ही विवशता का पर्याय बन गया है।’’3 निर्देशक की इच्छानुसार कम कपड़े पहनने और उत्तेजक दृश्यों को करने के कारण सामाजिक रूप से उच्छृंखल और बेशरम होने का दाग भी उन्हें ढोना पड़ता है।
सामान्य लड़कियों की ही तरह अभिनेत्रियाँ भी गृहस्थी बसाने का सपना देखती हैं। फिल्म उद्योग में विवाह के पश्चात् अभिनेत्रियों का ‘कैरियर’ लगभग समाप्त हो जाता है। इस आशंका के कारण अधिकतर सपफल अभिनेत्रियाँ विलम्ब से विवाह करती हैं। विवाह के पश्चात् फिल्मी दुनिया की व्यस्तता और थकान के कारण परिवार में पूरा समय नहीं दे पातीं। इसका असर उनकी गृहस्थी और निजी जीवन पर पड़ता है।
जो अभिनेत्री युवावस्था में करोड़ों दर्शकों के हृदय पर आधिपत्य जमाए रहती है, वही उम्र बढ़ने पर प्रायः एकाकी और उपेक्षित जीवन जीने के लिए बाध्य होती है। आशा पारिख, रेखा, परवीन बॉबी, ज़ीनत अमान, तब्बू, प्रीति जिंटा – ये तमाम नाम इसी कड़ी में जुड़ते हैं। फिल्म संसार से बाहर के व्यक्तियों से उनका रिश्ता नहीं जुड़ पाता अथवा वे जोड़ना नहीं चाहतीं। बाहरी दुनिया में उनके प्रशंसक तो होते हैं किन्तु, अपना कोई नहीं होता। यह बात इस धरणा को पुष्ट करता है कि आम व्यक्ति फिल्मी परदे पर नाचती -गाती बिंदास या तेज-तर्रार विद्रोहिणी को देख कर अभिभूत होता है लेकिन, यथार्थ जीवन में वह पारंपरिक, शांत-गंभीर तथा बेजुबान स्त्री को स्वीकार करता है। समाज का यह दोतरफा सोच स्त्रियों के जीवन को कुंठित कर रहा है। फिल्मी परदे पर बिंदास तथा स्वतन्त्र निर्णय लेने वाली अभिनेत्रियाँ अपने वास्तविक जीवन में पारिवारिक दबाव के चलते घुट रही हैं। अमिषा पटेल, करिश्मा कपूर जैसी सुन्दर और प्रतिभा सम्पन्न अभिनेत्रियों का जीवन उनके ‘कैरियर’ के उठान पर ही पारिवारिक झंझटों में उलझकर अंधकार में डूब गया।
नारी चेतना की संवाहक के रूप में हम जिन फिल्मों के उदाहरण देते हैं, उन्हीं फिल्मी अभिनेत्रियों का उनके ही फिल्म उद्योग में विभिन्न स्तरों पर शोषण हो रहा है। फिल्म उद्योग में अभिनेताओं की तुलना में अभिनेत्रियों को अत्यन्त कम पारिश्रमिक मिलता है। परदे पर अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध लड़ने वाली ये अभिनेत्रियाँ यथार्थ में अपेक्षाकृत कम पारिश्रमिक पर ही समझौता करती हैं। पुरूष अभिनेता फिल्मों में मार-धड़ और ‘स्टंट’ दृश्यों को करता है, इसमें उसे अधिक मेहनत और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है – आज के दौर में यह तर्क भी अर्थहीन हो गया है। आधुनिक युग की फिल्मों में अभिनेत्रियाँ नाचने-गाने के साथ ही ‘स्टंट’ दृश्यों में भी दिखाई दे रही हैं। अनेक स्त्री-केन्द्रित फिल्मों की व्यवसायिक सपफलता ने इस धरणा को भी नकार दिया कि नायक के कंधे पर चलने वाली पिफल्म ही मुनाफा करा सकती है। ऐसी स्थिति में अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के मध्य आर्थिक स्तर पर होने वाला भेद-भाव न्यायसंगत नहीं लगता। फिल्मी परदे पर विद्रोह करने वाली ये नायिकाएँ इस असमानता के विरूद्ध आवाज क्यों नहीं उठाती हैं? कई बार तो अपने कठोर परिश्रम से अर्जित आमदनी को नियोजित और नियन्त्रित करने का अधिकार भी उनके पास नहीं रहता। परिवार द्वारा यह स्वतन्त्रता भी अभिनेत्रियों को नहीं दी जाती।
फिल्मों में सुंदर दिखाई देने के लिए अभिनेत्रियों का शारीरिक रूप से छरहरी ;ज़ीरो साइज होना भी आवश्यक हो गया है। इसके लिए ये अभिनेत्रियाँ तरह-तरह के तरीके अपनाती हैं। इसमें सबसे घातक है – ‘डायटिंग’। जिस पेट को भरने के लिए संसार का समस्त क्रिया-व्यापार चल रहा है, ये अभिनेत्रियाँ भर-पेट भोजन भी नहीं करतीं। भोजन पर अत्याधिक नियंत्रण शारीरिक दुर्बलता के साथ ही मानसिक तनाव का भी कारण बनता है।
इसके अतिरिक्त ‘आम’ हो जाने के डर से ये अभिनेत्रियाँ सार्वजनिक स्थलों पर जाने से कतराती हैं। जिसके कारण अनेक बार जीवन के सहज आनन्द से ये वंचित रहती हैं। अपनी निजता बनाए रखने का प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार है। अभिनेत्रियों के निजी जीवन से जुड़ी खबरें भी सार्वजनिक चर्चा का विषय बन जाती हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाएँ अपना वितरण बढ़ाने के लिए अभिनेत्रियों के व्यक्तिगत जीवन से जुड़े सच्चे-झूठे समाचारों को बढ़ा-चढ़ा कर प्रकाशित करते हैं। प्रतिक्रिया स्वरूप जो मानसिक संत्रास इन अभिनेत्रियों को भोगना पड़ता है, वह अत्यधिक पीड़ादायक है।
कुल मिलाकर स्त्री-स्वातन्त्रय या स्त्री-चेतना को लेकर जो फिल्में प्रदर्शित होती हैं, वे सैद्धान्तिक उद्ध्रण बन कर ही रह जाती हैं। व्यवहारिक जगत में इन फिल्मों का रंच-मात्रा भी नहीं आता है। ये फिल्में सही अर्थों में तब सफल मानी जाएंगी जब इन्हें व्यवहारिक स्तर पर आत्मसात किया जाएगा। फिल्म संसार से संयुक्त स्त्रियों पर समाज का दोहरा मानदंड लागू होता है। परदे पर वे जिस स्त्री चरित्रा को जीवंत करती हैं, वास्तविक जीवन में उससे सर्वथा भिन्न होती हैं। ‘‘अंततः तमाम सफलता, पुरस्कारों, अवॉर्ड के बाद अभिनेत्री का असली जीवन वैसा बन जाता है जैसे परदे पर उनके प्रशंसक नहीं देखना चाहते।’’4 एक ही जीवन में दो विपरीत भूमिकाओं को जी रही ये अभिनेत्रियाँ पूरी निष्ठा और लगन के साथ अपना काम करती जा रही हैं।
संदर्भ –
1. साहित्य और सिनेमा, संपादक – पुरूषोत्तम कुंदे, सिनेमा मेें नारी चेतना, लेखन – डॉ. मैत्री सिंह ठाकुर, प्रथम संस्करण- 2014, पृष्ठ 109
2. सिनेमा के सौ बरस, संपादक – मृत्युंजय, स्त्री चरित्रा का विश्लेषण, लेखक- विजय शर्मा, संस्करण-2008, पृष्ठ 229
3. साहित्य और सिनेमा, संपादक – पुरूषोत्तम कुंदे, सिनेमा में नारी चेतना, लेखक – डॉ. मैत्री सिंह ठाकुर, प्रथम संस्करण- 2014, पृष्ठ 109
4. वही, पृष्ठ – 110
5. गूगल शोध
अर्चना उपाध्याय
एसोसिएट प्रोपफेसर, हिन्दी विभाग
श्याम लाल महाविद्यालय,सांध्य
दिल्ली विश्वविद्यालय