ऋंगवेरपुर के राजा गुहराज निषाद को संसार भगवान श्रीराम सखा के रूप में जानता है । गुहराज निषाद जी को कहार, भील, केवट, मल्लाह, मांझी, कश्यप आदि समाज के लोग बड़े ही आदर के साथ पूजते हैं । निम्न जाति के निषाद राज के यहां भगवान श्री राम, सीता माता व भाई लक्ष्मण के साथ ठहरते हैं । श्रीराम गुहराज निषाद को अपने चरणों से उठाकर सीने से लगा लेते हैं । उस निषादराज को जिसे उच्च समाज के लोग (निषाद जाति को) इतना निम्न समझते थे कि अगर किसी पर इनकी छाया भी पड़ जाये तो अपने ऊपर जल सींचकर शुद्ध होते थे ।
बहुत कम लोग जानते होंगे कि भगवान श्रीराम ने गुहराज निषाद की तुलना भरत से की थी । आखिर क्या विशेषता थी उस निम्न जाति के निषाद राजा की, जिसे श्रीराम ने इतना अधिक महत्व दिया ?
गुहराज निषाद ने समझा कि भगवान श्रीराम अयोध्या से निष्कासित कर दिए गये हैं, तो उन्होंने अपना सारा राजपाट भगवान श्री राम के चरणों में अर्पित कर दिया । उन्होंने कहा – ‘आप चलिए मेरे राज्य सिंहासन पर आसीन होकर मुझे कृतार्थ कीजिये ।’
“यह सुधि गुह निषाद जब पाई । मुदित लिये प्रिय बंधु बुलाई ।
लिये फल मूल भेंट भरि भारा । मिलन चलेउ हिय हरष अपारा ।।
करि दंडवत भेंट धरि आगे । प्रभुहिं विलोकत अति अनुरागे ।
सहज सनेह विवस रघुराई । पूछेउ कुसल निकट बैठाई ।
नाथ कुसल पद पंकज देखे । भयऊं भाग भाजन जन लेखे ।
देव धरनि धनि धाम तुम्हारा । मैं जनु नीचु सहित परिवारा ।
कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ । थापिय जनु सब लोग सिहाऊ ।”
ऐसा था निषाद का प्रेम मय पूर्ण समर्पण और त्याग । निस्वार्थी गुहराज ने अपना सर्वस्व प्रभु श्री राम के चरणों में भेंट कर दिया । निषाद राज जी ने उस रात भगवान राम के ठहरने व विश्राम की सारी व्यवस्थायें एक शीशम वृक्ष के नीचे कर दीं ।
“तब निषाद पति उर अनुमाना । तरु सिंसुपा मनोहर जाना ।
लैं रघुनाथहिं ठाऊॅं देखावा । कहेउराम सब भाॅंति सुहावा ।”
गुहराज निषाद जी ने जगह-जगह अपने विश्वास पात्र पहरुओं को लगा दिया, ताकि रात्रि में श्रीराम की सुरक्षा की जा सके । श्रीराम ने रात्रि विश्राम के बाद केवट (निषादराज) की नाव के माध्यम से गंगा पार की । प्रभु श्रीराम के जाने पर गुहराज निषाद का मुख सूख गया । वह तो श्री राम के चरणों को छोड़कर कहीं जाना ही नहीं चाहते थे, परंतु जैसे-तैसे श्रीराम ने गुहराज को समझाया ।
“तब प्रभु गुहहिं कहेऊ घर जाहू । सुनत सूख मुख भा उर दाहू ।।
दीन वचन गुह कह कर जोरी । विनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी ।।
नाथ साथ रह पंथ दिखाई । करि दिन चारि चरन सेव काई ।।
जेहि वन जाइ रहब रघुराई । परनि कुटी मैं करब सुहाई ।।
तब मोहि कहॅं जसि देव रजाई । सोई करिहऊॅं रघुबीर दोहाई ।।
सहज सनेह राम लखि तासू । संग लीन्ह गुह हृदय हुलासू ।।”
भील जाति अथवा निषाद समाज में जन्में गुहराज ने राम, सीता और लक्ष्मण का अतिथि सत्कार करके अपने पूरे समाज को गौरवान्वित कर दिया । हमेशा से नदियों के किनारे बसने वाले इस निषाद /मल्लाह की आजीविका नाव ही रही है । और उसी नाव से पूर्णतः निशुल्क श्री राम जी को गंगा पार कराई । अधिकांशत: लोग अपने व्यवसाय के प्रति कोई यारी दोस्ती नहीं निभाते, परंतु गुहराज ने मित्रता के आगे व्यवसाय, राजपाट सब कुछ त्याग दिया । इसीलिए वनवास की चौदह वर्ष की अवधि पूर्ण कर श्रीराम अयोध्या वापिस लौटे और राजपाट ग्रहण किया । उस समारोह में केवट/ गुहराज को ससम्मान आमंत्रित किया गया ।
“पुनि कृपाल लियो बोल निषादा । दीन्हें भूषण वसन प्रसादा ।
जाहु भवन मम सुमिरन करहू । मन क्रम वचन धर्म अनुसरहू ।
तुम मम सखा भरत सम भ्राता । सदा रहेहु पुर आवत जाता ।
सुनत वचन उपजा सुख भारी । परेउ चरन भरि लोचन बारी ।
चरन नलिन उर धरि ग्रह आवा । प्रभु स्वभाव परिजनहिं सुनावा ।”
वेशक निषादराज जाति से नीच थे , अनपढ़ थे परंतु उनका हृदय बहुत बड़ा था ।
लंका विजय कर श्रीराम पुनः गंगा तट पर आते हैं और केवट- गुहराज जी को पता चलता है-
“इहाॅं निषाद सुना प्रभु आये । नाव नाव कहॅं लोग बोलाये ।
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल । आथउ निकट परम सुख संकुल ।
प्रभुहिं सहित बिलोकि बैदेही । परेउ चरण तन सुधि नहिं तेही ।
प्रीति परम बिलोकि रघुराई । हरषि उठाय लिये उर लाई ।”
इस संसार में बड़े- बड़े भक्त, ऋषि हैं, किंतु क्या वे निम्न जाति के निषाद की तरह पूर्ण रुप से श्रीराम के प्रति समर्पित हुए हैं । काश निषाद जाति को वह सम्मान मिल पाता जो भगवान श्रीराम ने दिया । निषादराज महान थे आसक्ति से बिल्कुल परे । श्रीराम सखा बनकर गुहराज ने अपनी निम्नता को हमेशा- हमेशा के लिये खत्म कर दिया ।
संदर्भ –
1- संत गोस्वामी तुलसीदास रचित साहित्य,
2- संत तुलसीदास का अवदान (निबंध संग्रह), लेखक – सनातन कुमार बाजपेई ‘सनातन’,
3- विकिपीडिया व गूगल सर्च इंजन ।