यह वह दौर है, जब व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों ने जीवन की सामुदायकिता को दरकिनार कर दिया है। मध्यवर्ग में पढ़ने की प्रवृत्ति बहुत कम दिखाई देती है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विकास के साथ अधिसंख्य लोग देखने की इच्छा रखते हैं। क्योंकि यह सुविधाजनक भी है और सुलभ भी है। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ने वाले जो हिंदी साहित्य के विद्यार्थी होते हैं वे, वह जो उनके पाठ्यक्रम में होता है, पढ़ते हैं। उनमें से कुछ निकलते हैं, जो साहित्य पढ़ते हैं, पत्र-पत्रिकाएं पढ़ते हैं। वो विद्यार्थी जिनको किसी कम्पटीशन वगैरह में बैठना होता है, ज्यादातर अंग्रेजी माध्यम से पढ़ते हैं। जिनके पाठ्यक्रम में किताबें हैं यदि उन्हें कुछ उनसे इतर अच्छी किताबें मिलती हैं तो अवश्य पढ़ लेते हैं। संख्या की दृष्टि से तो पहले के समय से पाठकों में बढ़ोत्तरी अवश्य हुई है पर असल में यह हुई है गैर-साहित्यिक पाठकों की संख्या में। साहित्य के लिए ये संख्या वृद्धि बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। उसके लिए तो असल वृद्धि होती है एक पढ़ने वालों का सुगठित समुदाय। वो समुदाय शहरों में अड्डेबाजी कह लें, कहीं बैठते हैं तो बात करते हैं कि भाई, आज क्या पढ़ा। कुछ गोष्ठियां चलाते हैं। साहित्य के पठन-पाठन लिए महत्व छोटे-छोटे हर कस्बे, और शहर का है। दरअसल इस बात का संबंध उस पाठक समुदाय से है, जो साहित्य को जीवित रखता है और जो साहित्यकारों को खुराक भी पहुंचाता है, वो समाज संख्या की दृष्टि से बहुत बड़ा नहीं होता। हम देखते हैं कि साहित्य और साहित्यकारों की दुनिया भी दुराग्रहों, संकीर्णताओं और गैर-लेखकीय फजीहतों में कम फंसी नहीं लगती है। एक समय में यहां हिंदी क्षेत्रों में रीतिकाल की कविताओं को कंठस्थ याद रखा जाता था, सुनाते थे लोग, उनका अर्थ बताते थे, उन पर बात करते थे। देव, घनानंद, बिहारी, पद्माकर इन तमाम कवियों को पढ़ते थे, याद रखते थे उन लोगों को। छोटे-छोटे समुदाय थे। लोग भक्तिकाल की कविता को यानी तुलसीदास को गाते थे, सूर को गाते थे, कबीर को गाते थे, रहीम को गाते थे। इन्होंने इन कवियों को जीवित रखा, किताबें तब तक छपी नहीं थीं लेकिन कविताएं तब भी जीवित थीं।
19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के शुरू में शहरों में लोग इस तरह के हुआ करते थे। बिहार में होते थे, यूपी में होते थे। दूर-दूर तक हिंदी भाषी समाज में होते थे जो अनौपचारिक रूप से बैठते थे। आज की तरह नहीं कि अखबार में खबर छप जाए, बिना इसकी परवाह किए नियमित मिलते थे। समाचार पत्रों में दैनिक सूचानाओं के साथ गंभीर लेख, साहित्य से जुड़े लेख, अग्रलेख और संपादकीय छपते थे। दुर्भाग्य यह कि आज समाचार पत्रों से साहित्य पूरी तरह गायब हो चुका है। साहित्य, कला, संस्कृति, नाटक, विज्ञानं और गणित की कोई चर्चा या महत्वपूर्ण खबर हमें इनमें नहीं पाते। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो इनका प्रवेश भी वर्जित है क्योंकि इनसे सनसनी नहीं पैदा होती अतः उनकी टी आर पी बढ़ने की भी कोई गुंजाईश नहीं होती।
एक जमाना था, जब हिंदी की साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन की दुनिया में इलाहाबाद का बोलबाला था। मुंशी प्रेमचन्द तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर से लेकर मैथिलीशरण गुप्त, रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, उपेन्द्र नाथ अश्क, महादेवी वर्मा, मार्कण्डेय और अमरकांत जैसे देश के अनेकानेक नामीगिरामी साहित्यकारों की रचनाएं यहीं से प्रकाशित हुआ करती थीं। लेकिन समय की बदलती रफ्तार ने बहुत कुछ बदल डाला तथा इलाहाबाद में प्रकाशन व्यवसाय देखते ही देखते बर्बादी के कगार पर पहुंच गया। साहित्यिक कृतियों के प्रकाशन के क्षेत्र में कभी केन्द्रीय भूमिका निभाने वाले इलाहाबाद के स्थान पर आज दिल्ली काबिज हो गई है। बनारस का भी यही हश्र हुआ। साहित्य प्रेमियों के जेहन में आज भी हलाहाबाद के इंडियन प्रेस, माया प्रेस, सरस्वती प्रेस, हंस प्रकाशन, साधना प्रकाशन, किताबिस्तान, नीलम प्रकाशन, धारा प्रकाशन, लॉ जर्नल प्रेस, भारती भंडार, छात्र हितकारी प्रकाशन, संगम प्रकाशन, साधना सदन तथा चित्रलेखा प्रकाशन सरीखी प्रकाशन संस्थाओं का नाम है। प्रकाशन की दुनिया में लाला रामनारायण लाल बुकसेलर ने भी काफी शोहरत और दौलत कमाई। मगर इनमें से अधिकांश संस्थान समय के साथ नहीं चल पाए। जो प्रकाशन संस्थान बचे भी हैं, वे किसी प्रकार अपना वजूद कायम किए हुए हैं तथा वे कमोवेश सरकारी खरीद के भी भरोसे अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं। अब प्रकाशन व्यवसाय दलाली का धंधा बन चुका है। यही नहीं आज वे लेखकों से किताब छापने के लिए मनमाने पैसे वसूलते हैं और डेढ़-दो सौ पुस्तकें छाप देते हैं।
अब यह समय आ चुका है कि लेखक, पैसे देकर किताबें छपवा रहे हैं। अपने खर्चे से उनका विमोचन करा रहे हैं। दिल्ली के पुस्तक मेले के समय हजारों किताबों का विमोचन होता है। आज इस समकालीन साहित्य के पाठक समुदाय की जांच केवल हिंदी में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं की पाठक संख्या के आधार पर ही की जा सकती हैं। इसके अलावा जानने को कोई साधन नहीं है। कुछ संस्थाएं हैं, जिनमें कभी-कभी बैठक होती है, जिनसे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि शायद पूरे हिंदी समाज की ये संख्या कुल मिलाकर कुछ लाख में पहुंच सकती है, इससे ज्यादा नहीं। तमाम कोशिशों के बावजूद साहित्य उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है, जिनके लिए वह रचा और लिखा जा रहा है। अब स्थिति कुल मिलाकर यह हो गई है कि हिंदी में साहित्यिक पुस्तकों का कोई भविष्य ही नहीं है। इस स्थिति में साहित्य के नाम पर लेखन, सृजन आत्मभिव्यक्ति भर ही है? हिंदी में उत्कृष्ट साहित्यिक पुस्तकों का अभाव नहीं है मगर वे विभिन्न कारणों से पाठकों तक नहीं पहुंच पाती।
हिंदी भाषा-भाषी भारतवासी सालगिरह, विवाह, बरही, तेरही आदि मौकों पर आत्म प्रदर्शन के उद्देश्य से इलैक्ट्रिक डेकोरेशन, आतिशबाजी, डीजे, सूट-बूट, गिफ्ट, प्रीतिभोज वगैरह में पचासों हजार रुपये देखते ही देखते बर्बाद कर डालते हैं मगर वे हजार-पांच सौ रुपये में साहित्यिक पुस्तकें नहीं खरीद सकते। विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में प्रेमचन्द, इलाचन्द्र जोशी, अमरकांत, निराला, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, अज्ञेय आदि रचनाकारों की जो साहित्यिक कृतियां निर्धारित हैं, वे भी छात्रों तथा शिक्षकों द्वारा खरीद कर नहीं पढ़-पढ़ाई जाती तथा विद्यार्थीगण गाइड खरीद कर वार्षिक परीक्षा की वैतरणी पार करने का जुगाड़ लगाने लगते हैं। यदि विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रम में साहित्यकारों की पुस्तकें निर्धारित न हों तो वे जो अल्प संख्या में बिकती हैं अन्यथा वे भी न बिकें। जिस प्रकार हम अपनी मासिक आय में से बच्चों की फीस, पढ़ाई-लिखाई, दूध, गल्ला, सब्जी, मकान का किराया, मोबाइल के सिमकार्ड, बिजली के बिल वगैरह विभिन्न मदों के लिए अलग रुपया निकालकर खर्च करते हैं, उसी प्रकार वे साहित्यिक पुस्तकों की खरीदारी के लिए अलग मद क्यों नहीं बनाते? एक तो हिंदी भाषा-भाषियों में वैसे ही साहित्यिक पुस्तकों को खरीदकर पढ़ने में दिलचस्पी नहीं है, ऊपर से रही-सही कसर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने पूरी कर दी है। हिंदी साहित्य की पहुंच हमारे समाज के एक प्रतिशत भाग में भी नहीं है। यह दायरा लगातार सिकुड़ रहा है। घरेलू महिलाओं तथा बच्चों की दिलचस्पी पत्र-पत्रिकाओं तथा पुस्तकों के बजाय अब टीवी चैनलों के सीरियलों, टीवी गेम, मोबाइल गेम तथा कम्प्यूटर गेम्स में हो गई है, जिससे आम पाठकों की तादाद में और भी गिरावट आ गई है।
सरकारी खरीद में धांधली, कमीशनखोरी, जोड़-जुगत तथा मुनाफे के गुणा-गणित से प्रकाशन जगत को काफी नुकसान पहुंचा है। सरकारी खरीद में व्याप्त अराजकता के आगे उनका टिका रहना आसान नहीं रहा। इस स्थिति के लिए सरकारी नीतियां भी कम दोषी नहीं। पुस्तकें खरीद कर लायब्रेरियों में डंप कर दी जाती हैं। असल में यह स्थिति उन साहित्यिक पुस्तकों से जुड़ी हैं, जिनके माध्यम से हम जन जागरुकता की उम्मीद करते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन तथा प्रचार-प्रसार के लिए सरकारी एवं गैर-सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए तथा यह ध्यान रखा जाये कि साहित्यिक पुस्तकों का दाम इतना अधिक न हो कि वह पाठकीय क्रय शक्ति तथा जनसाधारण की पहुंच के बाहर हो। जन-जन में साहित्यिक रुचि के स्फुरण की आवश्यकता है तथा इसके लिए पुस्तक प्रकाशकों, सामाजिक संस्थाओं तथा शिक्षण संस्थाओं को शहर तथा कस्बों में शिविर तथा पुस्तक प्रदर्शनी का आयोजन कर आम लोगों में पुस्तकों के प्रति आकर्षण बढ़ाया जा सकता है। आज आलम यह है कि साहित्यकार केंद्रीय और राज्य अकादमियों, दूरदर्शन, सरकारी और अर्द्ध सरकारी संस्थानों तथा व्यावसायिक संस्थाओं से आस लगाये बैठे हैं। उनसे प्राप्त पुरस्कारों, सम्मानों से अभिभूत हैं। अपनी अपनी साहित्यिक दुकानें चला रहे हैं, गुटबंदी में मशगूल हैं। उन्हें इस बात की कोई चिंता ही नहीं है कि उनके पाठक सिमटते जा रहे हैं वरना वे पाठकों तक पहुंचने के लिए महज प्रकाशकों और सरकारी तंत्र पर निर्भर नहीं रहते बल्कि इस हेतु कुछ गंभीर उपाय भी सोचते।
शैलेन्द्र चौहान
जयपुर (राजस्थान)