कबीर वैष्णव आचार्य रामानंद के एक प्रसिद्ध शिष्य जो ज्ञानमार्गी और संत कवि थे, कबीर हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।कबीर युग दृष्टा कवि थे। उनका व्यक्तित्व, उनकी वाणी युगीन परिस्थितियों की देन  है। मध्ययुग में कबीर और संतों की वाणी ने जो अलख जगाया वह आज भी उतना ही महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है जितना तत्कालीन युग में था। कबीर अपने युग की उपज हैं।मध्ययुग मुगलों के आक्रमणों, धर्मांतरण, देशी राजाओं की विलासिता, धार्मिक पाखण्डादि से उपजे असुरता, भय, कुंठा, सांप्रदायिकता, रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं कुरीतियों का युग था। हताश-निराश जनता मंत्र, योग, जात-पांत,  छुआछूत, सामंतशाही, दमन-शोषण से त्रस्त थी। समाज नैतिक पतन के गहरे गर्त में गिर रहा था। ऐसे में संत कवियों ने समय की नस को पकड़ा। उन्होंने जो कहा अपने अनुभव से कहा। जो देखा, भोगा और सहा उसी की काव्यात्मक अभिव्यक्ति कबीर की वाणी है।

प्रसिद्ध साहित्यकार पंडित रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं, ‘अशिक्षित और निम्न श्रेणी जनता पर ऐसे संत-महात्माओं ने बड़ा भारी उपकार किया है’।

           कबीर ने निर्गुण भक्ति के द्वारा धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक मुक्ति के प्रश्नों को उठाया। उसके मूल में मानवमात्र की समता, स्वतन्त्रता एवं भातृत्व की भावना प्रमुख थी। इसने समाज के उपेक्षित और प्रताड़ित वर्ग में आत्मसम्मान की भावना जगाई। जिसने वैचारिक संघर्ष को जन्म दिया।

                                           कबीर के काव्य में गुरु उपदेश 

यह सर्व विदित है कि गुरू ज्ञान की खान होता है। निर्गुण काव्य परंपरा में गुरु को प्रमुख स्थान प्राप्त है ‌।गुरु हमेशा मनुष्य के मार्गदर्शक रहे हैं। गुरु मनुष्य के जीवन से अंधकारमय अज्ञान का कार्य करते हैं। अज्ञानता दूर करके ज्ञान का प्रकाश देकर उसे मोक्ष के द्वार तक पहुंचाने का काम गुरू ही करते हैं। कबीर ने गुरू ऊंचा दर्जा दिया हैं वे कहते हैं भी है”

गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान ।

बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥

भारतीय संस्कृति में गुरु को भगवान से भी बढ़कर माना जाता है। गुरु हमें अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं कबीर कहते हैं भी है सतगुरु की महिमा अपरम्पार है।

उसने साधक पर अनेक उपकार किए हैं। अज्ञान की आंखों में ज्ञान का संचार गुरु से ही संभव है। उसी से ईश्वर प्राप्ति संभव है।

  सतगुरु की महिमा अनंतअनंत किया उपगार

लोचन अनंत उघाड़ियाअनंत दिखावणहार ।।

कहने का तात्पर्य यह है कि सतगुरु ने हमारी अज्ञानता भरी आंखों को खोलकर ज्ञान (सत्यता) से मेल करवाया।

         मनुष्य सांसारिक मोह-माया में फंसकर अपना जीवन व्यतीत करता है। वह ज्ञान के आभाव में अज्ञानता का मार्ग प्रशस्त करता है। कबीर के अनुसार गुरु ही उसे भवसागर से पार लगा सकता है। कबीर लिखते हैं ।

बूड़े थे परि ऊबरे, गुरु की लहरि चमंकि।

भेरा देख्या जरजरा, ऊतरि पड़े फरंकि

 डगमगाती सांसारिक विषयों की नांव में कवि बैठने का मना कर रहा है।

गुरु की शरण में ही मुक्ति मार्ग है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि “गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई,जौं बिरंचि संकर सम होई”

भारतीय वांग्मय में गुरु को इस भौतिक संसार और परमात्म तत्व के बीच का सेतु कहा गया है। सनातन अवघारणा के अनुसार इस संसार में मनुष्य को जन्म भले ही माता पिता देते है लेकिन मनुष्य जीवन का सही अर्थ गुरु कृपा से ही प्राप्त होता है । गुरु जगत व्यवहार के साथ-साथ भव तारक पथ प्रदर्शक होते है । जिस प्रकार माता पिता शरीर का सृजन करते है उसी तरह गुरु अपने शिष्य का सृजन करते है। “बंदउँ गुरु पद कंजकृपा सिंधु नररूप हरि ।महामोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर।

      मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा सागर है और नर रूप में श्री हरि याने भगवान हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं। तुलसी को राममंत्र अपने गुरु से मिला था।   मनुष्य की जन्म जन्मांतर की कुबुद्धि गुरु क्षण भर में नष्ट कर देते हैं। गुरु रूपी ज्ञान जल का सागर है जिसमें साधक डूबा रहता है कबीर लिखते हैं।

 कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।

जनम – जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥

 कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है। जन्म – जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने कबीर की आध्यात्मिक प्रवृत्ति का उल्लेख किया है श उन्होंने लिखा है कि “उपासना के बाह्य स्वरूप पर आग्रह करने वाले और कर्मकाण्ड को प्रधानता देने वाले पण्डितों और मुल्लों दोनों को उन्होंने खरी-खरी सुनाई और राम-रहीम की एकता समझा कर हृदय को शुद्ध और प्रेममय करने का उपदेश दिया। देशाचार और उपासना विधि के कारण मनुष्य-मनुष्य में जो भेदभाव उत्पन्‍न हो जाता है, उसे दूर करने का प्रयास उनकी वाणी बराबर करती रही।”  शुक्ल जी का विश्लेषण बिल्कुल सही है। हिन्दी साहित्य में कबीर के महत्त्व की स्थापना का श्रेय हजारीप्रसाद द्विवेदी को है। उन्होंने तीन पुस्तकों मध्यकालीन धर्म-साधना, कबीर और हिन्दी साहित्य की भूमिका में कबीर की रचनाओं के आधार पर विकसित प्रतिमानों से भक्तिकालीन साहित्य को देखा। सभी मे गुरु के महत्व को प्रतिपादित किया है। कबीर की साधना में गुरुको अत्यधिक महत्व प्रदान किया गया है. कबीर की दृष्टि में गुरु “गोविन्द” से भी बढ़कर है, क्योंकि

         “हरि रुँठे गुरु ठौर है, गुरु रुँठे नहिं ठौर

कबीर से पूर्व ही भारत में गुरु की महत्ता प्रतिष्टिता हो गई थी. कबीर दास ने उसी परम्परा को मुखर करते हुए गुरु को गोविन्द से भी अधिक ऊँचा स्थान प्रदान किया

      गुरु गोविन्द दोऊ खडे, काके लागों पाया

      बलिहारी गुरु आपणै, गोविन्द दियो बताय

कबीर ने बार-बार कहा है कि सद्गुरु भक्ति ले आयों हैं. कबीर अपने जीवन में गुरु को सबसे बडा, महत्वपूर्ण अनुपम स्थान दिया है. कबीर कहते हैं कि-

            कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरस्या आइ.

            अंतरि भीगीं आत्मा, हरी भई बनराइ..

            पूरेसूँ परचा भया, सब दुख मेल्या दूरि,

            निर्मल कीन्हीं आतमा, तायैं सदा हजूरि..

   धन्य हैं वे गुरु वे सच मुच उस भ्रमरी के समान है जो निरन्तर ध्यान का अभ्यास कराकर कीट को भी भ्रमरी अर्थात् तितली बना देती है. कीडा भ्रमरी हो गया, नई पाँखें फूट आई, नया रंग छा गया, नई शक्ति स्फुरित हुई. उन्होंने जाति नहीं देखी, कुल नहीं विचारा अपने-आप में मिला लिया. नाले का पानी गंगा में जाकर गंगा हो जाता है. कबीर गुरु में मिलकर तद्रूप हो गए. धन्य हो गुरु, तुमने चंचल मन को पंगु बना दिया, तत्व में तत्वातीत को दिखा दिया, बन्धन से निर्बन्ध किया. अगम्य तक गति कर दी. केवल एक ही प्रेम का प्रसंग तुमने सिखाया, पर कैसा अचरज है कि इस प्रेममेघ की वर्षा में ही यह सारा शरीर भीग गया. इस प्रकार कबीर ने गुंरु को ही सबसे प्रमुख एवं मुख्य स्थान दिया है.

गुरु जो बसै बनारसी, सीष समुंदर तीर।

एक पलक बिसरै नहीं, जो गुण होय सरीर।

किसी कारणवश गुरु काशी में निवास करते हों और शिष्य समुद्र के किनारे। कहने का तात्पर्य ये है कि शिष्य गुरु से कितनी भी दूर क्यों न हो, वह उनके बताए हुए मार्ग पर ही चलता है। सच्चा शिष्य वही है, जो गुरु के बताए हुए ज्ञान को कभी भूले नहीं। यदि गुरु में कोई कमी रहती है तो भी वही उनके गुणों को स्मरण करता रहे। सर्वप्रथम प्रणाम ईश्वर के श्रीचरणों में उसके बाद गुरु की वंदना की गई है। उसके बाद जो वर्तमान में संतजन हैं व जो भूतकाल में थे और जो भविष्य में होंगे उन सभी को भक्तिभाव से प्रणाम किया गया है।  “दण्डवत गोविन्द गुरु

     गुरु की शरण में स्वर्ग की स्थिति है वहां चौरासी का फंदा छुट जाता है। गुरु की शरण में परम पद की प्राप्ति होती है।

गुरु की शरण लीजै भाई । जासे जीव नरक नहिं जाइ ।

गुरुमुख होइ परम पद पावै । चौरासी में बहुरि न आवै ||

गुरु पारस को अन्तरो,जानत हैं सब सन्त |

वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त ||

 गुरु में और पारस – पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं | पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है |

गुरु पारस को अन्तरो,जानत हैं सब सन्त |

वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त गुरु में और पारस – पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं | पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है |कबीर ने ऐसे ज्ञान के लिए गुरु की आवश्यकता स्वीकार की है. गुरु सैद्धन्तिक ज्ञान के साथ प्रयोगात्मक ज्ञान का भी धनी होता हैं. वह श्रवण और मनन के साथ दर्शन भी करता है. वास्तव में ऐसा ही गुरु, गुरु बनने के योग्य है.

सतगुरु सवाँन को सगा, सोधी सई न दाति.

     हरिजी सवाँन को हितू, हरिजनसई न जाति.

अर्थात् सच्चे गुरु के समान कोई अपना नहीं, परमत्व के खोजियों के समान कोई दाता नहीं, परमात्मा के समान कोई भलाई करनेवाला नहीं तथा भगवद्-भक्तों के समान कोई जाति नहीं, क्योंकि सगे-संबंधी सांसारिक भलाई करते हैं, गुरु परमात्मा से मिलाता है, दाता सांसारिक नश्वर वस्तुएँ देता है, तत्व का खोजी तत्व से साक्षात्कार कराकर अमरता देता है, अन्य व्यक्ति सांसारिक विषय-संबंधी भलाई करते हैं, परमात्मा अपने में मिला लेता है तथा अन्य जातियाँ कुछ सांसारिक स्वार्थों के आधार पर गठित होती हैं, किन्तु हरि भक्ति, भक्ति-रस के आस्वादन के लिए संगठित होते है. जिस में स्वार्थ की गंध नहीं

गुरु की आज्ञा से जुड़े हुए लोग जीवन में सफलता प्राप्त करते हैं और भक्ति में लीन रहते हैं।  सांसारिक व पारलौकिक आवागमन ईश्वर की आज्ञा से संभव है।

गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।

कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥

व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना – जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म – मरण से पार होने के लिए साधना करता है |

            गुरु शिष्य का सच्चा मार्गदर्शक होता है। वह उसे अन्याय से न्याय की ओर अग्रसर करता है। मनुष्य के पास एक ‘गुरु’ का होना जरूरी है। आज का मनुष्य अधिक सुविधा-संपन्न, साधन-संपन्न है। वह कल्पना नहीं कर सकता कि आज के कुछ सौ वर्ष पहले व्यक्ति कितने अभाव में था।

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि – गढ़ि काढ़ै खोट।

अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥

कबीर लिखते हैं गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार – मारकर और गढ़ – गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं।

गुरु की कृपा से सब संभव है। गुरु को ज्ञान का दाता माना गया है और शिष्य को याचक माना गया है। शिष्य याचक है क्योंकि उसे ज्ञान चाहिए और वह योग्य गुरु ही दे सकता है। यदि गुरु के बताये हुए मार्ग पर चले तो तीनों लोको का ज्ञान / सम्पदा शिष्य को देता है। यहाँ भाव गुरु की श्रेष्ठता का है। कबीर साहेब ने गुरु की महिमा से सबंधित अन्य दोहों में सन्देश दिया है की गुरु से बढ़कर इस जगत में कोई नहीं है क्योंकि वही ईश्वर का परिचय करवाता है।त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान – दान गुरु ने दे दिया।

गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।

तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥

यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्ये के शारीर में गुरु का गुण होगा, जो गुरु लो एक क्षड भी नहीं भूलेगा।

जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर।

एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर॥

गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।

कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥८॥

गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो | कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य – सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है

गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत।

प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत॥

 जैसे बने वैसे गुरु – सन्तो को प्रेम का निर्वाह करो। निकट होते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैं, और यदि प्रेम है, तो गुरु – स्वामी पास ही हैं।

गुरु की मूर्ति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं। अतः आठो पहर गुरु-मूर्ति की ओर ही देखते रहो।   गुरु के प्रति इतना मजबूत लिखना कबीर से ही संभव है। गुरु -शिष्य की तुलना अलग ही वैचारिक रूप है। गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।

आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर॥गुरु की मूरति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं। अतः आठो पहर गुरु – मूरति की ओर ही देखते रहो।

गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं।

उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं॥

गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो। उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा।

ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।

गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास

ज्ञान, सन्त – समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य – स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास – ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं।बड़े-बड़े विद्वान शास्त्रों को पढ-गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नहीं मिलता। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती।शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं। अतः गुरु के समुख रहो, कभी विमुख मत बनो। गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं| उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं ||

गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो  उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा|।

कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव|

तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव ||

कबीर कहते हैं कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु – वचनरूपी दूध को पियो | इस प्रकार अहंकार को त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव यम से बचेगा

जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध.

अंधै अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पडंत..

   इस का अर्थ इस प्रकार है-जिस शिष्य का गुरु अज्ञान के परदे के कारण अन्धा है, वह गुरु से बढ़कर अंधा है, परिणाम यह होता है कि गुरु मार्ग नहीं बता पाते और माया की दिशा में एक दूसरे को ठेलते हुए वे दोनों नरक कूप में गिर पडते हैं.

   कबीर दास अपने को धन्य मानते हुए कहते हैं कि – यह अच्छा हुआ कि मुझको सद्गुरु मिल गए, यदि ऐसा नहीं होता तो बडा भारी अनिष्ट होता, मैं शलभ की दृष्टि लिए हुए, भोग दीपक को ही परम-काम्य समझकर उसमें पड जाता

सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड |

तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड ||

सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे |

जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरंध |

अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ||

जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा | अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये |

सतगुरु खोजे संत, जीव काज को चाहहु |

मेटो भव के अंक, आवा गवन निवारहु ||

ऐ संतों – यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म – मरण से रहित हो जाओ |

          कबीर दास जी ने गुरु पर बहुत लिखा है जिसका वर्णन हमारे लिए संभव नहीं जान पड़ता वे कहते  गुरु ही हैं जो भीतर से हाथ का सहारा देकर, बाहर से चोट मार-मारकर और गढ़-गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकालते हैं ।कबीर की विचारधारा भक्तियुक्त थी। अगर हम कबी के बारे में और उनके ज्ञान के बारे में वर्णन करें तो वह अवर्णनीय हैं क्योंकि वह महान शक्ति है। उनके अंदर अपार ज्ञान भरा हुआ है। उनके ज्ञान के आगे बड़े से बड़े विद्वान, गोरखनाथ जैसे सिद्ध पुरुष भी टिक नहीं सकते। कबीर अनेक लीलाएं किया करते थे और अनेकों चमत्कार करते रहते थे। जिस कारण से कबीर को महापुरुष के रूप में भी जाना जाता हैं।  कुछ लोग कहते हैं कि कबीर का कोई गुरु नहीं था यह ग़लत धारणा है रामानंद से कबीर ने दीक्षा ली थी अतः सही अर्थों में वही उनके गुरु है। कलयुग में कबीर की अमृतवाणी जीवन की सही दिशा दिखाने का काम करती है. यदि आपको जीवन की आपाधापी में एक सच्चे गुरु की तलाश है और आपको वह अभी तक तमाम कोशिशों के बाद नहीं मिल पाया है तो आपके लिए कबीर की अमृत वाणी वरदान साबित हो सकती है, जिसमें उन्होंने गुरु को ईश्वर से श्रेष्ठ बताते हुए सच्चे गुरु की असल परिभाषा बताई है‌।

 

संदर्भ सूची:- 

  1. कबीर और कबीर पंथ, फोरवर्ड प्रेस 2022
  2. संत कबीर, रामकुमार वर्मा, साहित्य भवन लिमिटेड इलाहाबाद
  3. हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल।
  4. कबीर  आचार्य हजारी प्रसाद,सुदर्शन चोपड़ा:कबीर परिचय तथा रचनाएं, हिन्दी पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली,नवीन संस्करण,2003, पृ. 12,13,18,19
  5. श्यामसुंदर दास कबीर ग्रंथावली (2018). इलाहाबाद ,लोकभारती प्रकाशन : पृ॰212
  6. वहीं पृष्ठ संख्या 214

     डॉ.नवीन कुमार
सहायक आचार्य हिंदी (अतिथि)
कैलाश नगर सांचोर जिला-सांचोर राजस्थान