समाज व्यापक मानव-समूह का प्रतीक है। यहाँ नाना प्रकार की परम्पराएँ और विचारधाराएँ जन्म लेती हैं, विकसित होती हैं और अन्ततः इसी तीव्र प्रवृत्ति से समाप्त हो जाती हैं। इनमें किसी तरह का बदलाव लाना काफी मुश्किल है। अपनी मान्यताओं से संतुष्ट रहकर समाज गतिषील रहता है। यही उसकी ऐतिहासिक और सर्जनात्मक उपलब्धि का सूचक है। इसका मतलब यह नहीं है कि समाज जड़ सत्ता का प्रतीक है। समाज नयी चादर ओढ़ता है किन्तु खूब सोच समझकर । समय की यात्रा में समाज जब अपने ही साधनों के बीच उलझकर टूटने लगता है तो उस विघटन और संक्रान्तिकालीन समय में कोई प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष अपनी ओजपूर्ण वाणी द्वारा दम तोड़ते प्राणियों में नयी चेतना का संचार करता है। यद्यपि उसे गहरे विरोधों के बीच संघर्ष करना पड़ता है। किन्तु कुछ समय बाद एक लम्बा समुदाय उसका अनुयायी बन जाता है और अनेक लोग उसे ढोने का बीड़ा उठा लेते हैं। मध्यकालीन भारतीय समाज के दायरे में कबीर का प्रादुर्भाव इसी रूप में हुआ।
कबीर का जन्म जिस समय हुआ | उस समय समाज अनेक बुराइयों से ग्रस्त था। समाज में भेदभाव, छुआछूत और ऊँच-नीच, रूढ़िवादिता, मिथ्याचार, पाखण्ड का बोलबाला चारों ओर व्याप्त था और हिन्दू-मुसलमान आपस में झगड़ते रहते थे। धार्मिक पाखण्ड अपनी चरम सीमा पर था और धर्म के ठेकेदार अपने स्वार्थ की रोटियाँ धार्मिक कट्टरता एवं उन्माद के चूल्हे पर सेंक रहे थे । कबीर ने इसका डटकर विरोध किया और सभी सामाजिक बुराइयों को निर्भीकता से दूर करने का प्रयास किया और सफल भी रहे हैं ।
कबीर का विश्वास था कि जब तक हिन्दू और मुसलमान में एकता नहीं आयेगी, किसी तरह का सुधार नहीं हो पायेगा। ये दोनों धर्मानुयायी भयंकर दकियानूस थे । तमाम विरोधों और अवरोधों के बावजूद कबीर ने दोनों की कटु आलोचना की और पूरी कलई खोल कर रख दी। कबीर ने दोनों को पागल करार दिया । इसका मुख्य कारण यही है कि दोनों ने जो रास्ता अपनाया वही गलत था । जब आधार ही गलत हो तो उस पर रखी हुई चीज कितनी सही हो सकती है । सामाजिक चेतना की जागृति हेतु कबीर ने निरक्षर रहते हुए भी अपनी वाणी में जो तेजस्विता भर दी है । वह आज के लिए भी चुनौती है ।
“हिन्दू अपने करै बड़ाई, गागर छुवन न देई।
वैष्या के पावन त सोवे, यह देखो हिन्दुआई।।
मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी-मुर्गी खाई।
खाला केरी बेटी ब्याहै घरहि में करे सगाई।।“1
कबीर ने सामाजिक-जीवन की कुत्सा पर तीखे व्यंग्य छोड़े हैं, जिनका परिणाम केवल तिलमिलाहट में व्यक्त होता है। वर्तमान समय में भी यह स्थिति है। समाज में ऐसे लोगों का अभाव नहीं है, जो सज्जनता का ढ़ोग रचकर अत्याचार और अनाचार करने से बाज नहीं आते। “कबीर का सारा साहित्य समाज सुधार का ही प्रबल प्रयत्न है। इस व्रत में कबीर को कितनी सफलता मिली इसका पता लगाना कठिन है |”2
कबीर के समय में मूर्तिपूजा का दौर था। जिसकी आलोचना कबीर ने की थी। वे सामान्य जनता को समझाते हैं कि मूर्ति की प्रतीकात्मकता को भूलाकर उसे ही वास्तव में ईश्वर समझ लेना ढोंग है। यह तो एक साधन था, प्रतीक मात्र है। अतएव कबीर ने इस प्रकार की मूर्ति पूजा का खंडन करके उसके व्यापक रूप की अनुभूति का सन्देश दिया है। उनका लिखा एक पद इसका साक्षी है –
“पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ।
जिस पाहन को पाती तोरै सो पाहन निरजीउ।।
ब्रह्मा पाती विस्नु डारी फूल फल महादेव।
तीनि देवौं एक मूरति करहि किसकी सेव।।“3
वह पूजा और पाती जिसमें आन्तरिक भक्ति भाव नहीं है, व्यर्थ है। कबीर ने इसी प्रकार अन्य सामाजिक कुरीतियों और दुर्गणों का खण्डन किया है। हिन्दी साहित्य में कबीर जैसा कोई क्रान्तिकारी व्यक्तित्व दिखाई नहीं पड़ता।
कबीर भक्त और कवि बाद में थे, वे सही अर्थों में समाज-सुधारक पहले थे । उनकी कविता का उद्देश्य जनता को सही रास्ता दिखाना है। अनुभूति की सच्चाई और अभिव्यक्ति की ईमानदारी कबीर की सबसे बड़ी विषेषता है। कबीर ने समाज में व्याप्त जाति-प्रथा, छुआछूत एवं ऊँच-नीच की भावना पर कड़ा प्रहार किया। ज्ञानी कबीर की धारणा है कि संसार में जन्म लेने वाला प्रत्येक मानव समान हैं ऊँच-नीच की भावना रखना व्यर्थ है । ऊँच-नीच की भावना रखने वालों के प्रति कबीर व्यंग्य करते हुए कहते हैं –
“ऊँचे कुल कया जनमिया, जे करणी ऊंच न होय।
सोवन कलस सुरै भरया, साधूं निद्यां सोइ।।“4
ऊँचे कुल में जन्म लेने से नहीं, बल्कि अपने सत्कर्मों द्वारा मनुष्य ऊँचा उठता है। कलश भर-भर कर मद्यपान करने वाला प्राणी साधु होने का स्वांग कैसे रच सकता है – कबीर स्पष्टवादी थे। ”जिस प्रकार उन्होंने धर्मयुद्ध छेड़ा था, एवं सामन्ती ब्राह्मणों की नगरी में रहकर सत्य के लिए संघर्ष बगावत की थी वहीं समाज में ब्राह्मणों द्वारा फैलाई गई बुराइयों के गढ़ को अपने तीखे स्वररूपी बाण से ध्वस्त कर दिया था । वस्तुतः वे जन्म से नहीं कर्म से जाति का अस्तित्व मानते है।“5 कबीर को जाति-धर्म का कोई बन्धन स्वीकार नहीं है । वह सारे अलगाववादी विधानों को तोड़कर वह एक शुद्ध मानव जाति का निर्माण करते है ।
इस प्रकार कबीर ने धर्म के नाम पर व्याप्त हिंसा का विरोध किया है । हिन्दुओं में शाक्तों और मुसलमानों में गाय या बकरे को काटना कबीर की दृष्टि में अमानुषी कृत्य हैं । कबीर ने निर्भीकता से ऐसे कृत्यों का विरोध किया है । उन्होंने कहा –
“कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद दई बुनाय।
ता चढ़ी मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।“6
उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों के बीच प्रचलित बाह्य आडम्बरों की निन्दा की है । हिन्दुओं में सर्वश्रेष्ठ और पूज्य जो पंडित वर्ग था वह भी कबीर की आलोचना का षिकार हुआ । उसका कारण यह है कि उन्हें अपने कर्तव्य का वास्तविक ज्ञान नहीं था ।
“आदर्शवादी व्यक्ति स्वभाव का अति प्रखर होता है, क्योंकि वह दूसरे के भी आचरण की त्रुटि को सहन नहीं करता। कथनी और करनी का तनिक सा अन्तर भी उसे उदीप्त कर देता है ।“7 कबीर भी आचरण की शुद्धता पर बल देते हैं। वे उनके विरोधी थे जो शास्त्र का पण्डित होने के आधार पर समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। काजी से वे कहते हैं –
‘काजी कौन कतेब बखानै।
पढ़त-पढ़त केते दिन बीते, गति एकै नहीं जानैं।’
इसी प्रकार ‘शास्त्र’के पण्डित को चुनौती देते हुए वे कहते हैं –
“मैं कहता हो आँखिन देखी, तू कहता कावद की लेखी।
मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यौ डरझोयरे।।”8
तर्क में कबीर से कोई जीत नहीं सकता वे पढें – लिखे न थे, किन्तु उनमें अनुभूति की सच्चाई एवं अभिव्यक्ति का खरापन विद्यमान था । उनका सारा ज्ञान अनुभव का था । जो चीजें वे प्रत्यक्ष देखते थे उसे बेहिचक प्रकट करते थे न कि शास्त्रोक्त बातों पर ।
कबीर ने अवतारवाद का भी खण्डन किया है। वे जानते थे कि अवतारवाद के नाम पर पण्डे-पुरोहित जनता को ठग रहे हैं। वे ‘राम’को दशरथ पुत्र न मानकर निर्गुण ब्रह्म मानते हैं –
‘दसरथ सुत तिहुँ लोकहिं जाना।
राम नाम का मरम है आना।।“9
कबीर का विश्वास है कि नारी मनुष्य को अध्यात्मक या सुधार के मार्ग पर चलने से रोकती है इसलिए उन्होंने कंचन और कामिनी का विरोध किया है । असल में कबीर सन्यासी हैं । इसलिए वह अपनी और पराई दोनों प्रकार की स्त्रियों की छोड़ने की बात कहते हैं। संत कबीर स्त्री के प्रति कठोर हो उठते हैं –
“नागिन के तो दोय फन नारी के फन बीस
जाको हस्यो न फिर जिए मरि है बिस्वा बीस
सब कालन ते बाँचि है, नारी जम का जाल।“10
कबीर का मानना है कि रोजा, नमाज, छापा, तिलक, माला, गंगा स्नान, तीर्थ आदि बातें व्यर्थ हैं । हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों धर्मों के भीतर व्याप्त इसी प्रकार की रूढ़ियों और आडम्बरों के वे सतत विरोधी रहे । उनका विरोध करते हुए वे कहते हैं –
“माला फेरत जुग गया गया न मन का फेर।
करका मनका डारि कै मन का मनका फेर।।“11
‘इस प्रकार धर्म में बहुत वस्तुएँ जो केवल साधन-रूप होती हैं, जब साध्य बन बैठती हैं तब धर्म का वास्तविक रूप नहीं रह जाता है । मूर्तिपूजा, माला-जाप, तीर्थ, नमाज आदि प्रारम्भिक साधन है, इनके द्वारा मानसिक पवित्रता और संयम प्राप्त करना चाहिए । परन्तु जहाँ यही साध्य बन बैठे, वहाँ धर्म के स्थान पर धोखा और आडम्बर ही समझना चाहिए |”12 यह सब कबीर को पता था इसलिए उन्होंने जनता को सचेत करते हुए कहा है कि जटा होना, मौन व्रत, सिर मुण्डन, तिलक मुद्रा, हजयात्रा आदि से कोई साधक नहीं हो जाता। लोग तन का योग साध रहे हैं जबकि उन्हें मन का योग साधना चाहिए।
कबीर स्वच्छन्द विचारक थे। वे मानवतावादी आस्था के साथ समाज में सुधार लाना चाहते थे। अतः उन्होंने धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्र में जहाँ भी कहीं प्रगति को रोकने वाली रूढ़ियां देखीं, वहीं इनका डटकर खण्डन किया तथा बाहरी आडम्बरों को बढ़ावा देने वाले सभी धर्मों की खुलकर आलोचना की। धर्म के ठेकेदार बनने का दम्भ करने वाले पण्डे-पुजारियों, ढ़ांेगी साधु-फकीरों तथा मुल्लाओं को कबीर ने खूब फटकारा। वास्तव में समाज-सुधार और मानव-कल्याण की भावना से प्र्रेरित होकर उन्होंने काव्य रचना की और इसे अपना अस्त्र बनाया। कबीर ने हिन्दू और मुसलमानों दोनों के पाखण्डों का खण्डन किया तथा उन्हेें सच्चे मानव धर्म को अपनाने के लिए प्रेरित किया है। उन्होंने दोनों को कसकर फटकारा। उन्होंने हिन्दु ही नहीं, मुसलमानों द्वारा मस्जिद में चिल्ला-चिल्लाकर खुदा को पुकारने का विरोध किया। उन्होंने सच्ची बात यही बताई कि –
‘माकों कहाँ ढूंढै बन्दे, मैं तो तेरे पास
ना देवल में ना मस्जिद में, ना कावे कैलास में।“13
अंततः हम कह सकते हैं कि कबीर ने मानवता की लड़ाई जीवन पर्यन्त जारी रखी थी । विषमता की लहर में डूबी हुई मानवता का उन्होंने उद्धार किया । आज की स्थिति भी है । इस संकट की घड़ी में जब विद्वेष बढ़ता जा रहा है, जनता अपने को असुरक्षित महसूस कर रही है, वातावरण चतुर्दिक विषाक्त हो रहा है, कबीर की वाणी ही समस्त समस्याओं का निवारण करने में समर्थ है । इसलिए आज के संदर्भ में इसकी उपयोगिता बढ़ गई है ।
सन्दर्भ –
1 असमण्कनण्ंबण्पद
2 एल.बी. राय, अनन्त, कबीर ग्रन्थावली, पृ. 66
3 डॉ. भगीरथ मिश्र, कबीर वानी, खण्ड-2, पृ. 14
4 वही, खण्ड-2, पृ. 20
5 विचार दास, कबीर साहित्य की प्रासंगिकता, पृ. 166
6 कबीर के दोहे – भारतकोष, ज्ञान का हिन्दी महासागर
7 किरणनन्दा, संतकाल में विद्रोह का स्वर, पृ. 7
8 डॉ. युगेश्वर, कबीर समग्र द्वितीय खण्ड, पृ. – 1279
9 आचार्य गंगाशरण शास्त्री, बीजक टीका मनोरमा, पृ. 778
10 डॉ. युगेश्वर, कबीर समग्र द्वितीय खण्ड, पृ. – 1273
11 (सं. श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, पृ. 45
12 डाॅ. भगीरथ मिश्र, कबीर वानी, खण्ड-2, पृ. 11
13 नवभारती कक्षा -9, पृ. 34
नीलम शर्मा
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
जम्मू विश्वविद्यालय