कबीर को सलेबस में ख़ूब पढ़ा है, पर उससे भी पहले उन्हें सुना है। कबीर कोई दरबारी कवि नहीं थे। मन की मौज आयी और कह दिया। कबीर ने जो कहा लोगों ने उसे गुना। थाती की तरह सौंपते रहे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को। उन्हीं से सुनी है कबीर की बानी। कभी बस-स्टाॅप पर, कभी रेलगाड़ी के जनरल डिब्बे में यात्रा करते हुए। कभी घाट पर बैठे किसी साधू के मँुह से। जो गा रहा है वो अनपढ़ है। उसे भी नहीं पता कि कभी तो इतनी मार्मिक और कभी दो टूक बात कहने वाले कबीर भी अनपढ़ थे। कबीर ‘खरी-खरी’ कहते हैं। उन्हें कोई भी मत स्वीकार नहीं। कोई भी व्रत, अनुष्ठान, पूजा-पाठ, साधना, नमाज़, रोज़ा मंजूर नहीं। धर्म के नाम पर ‘ठेकेदारी’ करने वालों के खि़लाफ़ कबीर लुकाठी लेकर खड़े हो जाते हैं। कबीर आडंबर के विरुद्ध खड़े होते हैं। ‘‘सामंती समाज की जड़ता को तोड़ने का जितना काम अकेले कबीर ने किया उतना अन्य संतों और सगुणमार्गियों ने मिलकर भी नहीं किया।’’
कबीर की भाषा संतभाषा है। संतों का सम्बन्ध सीधे जनता से था। ‘रमता जोगी, बहता पानी’ – विभिन्न स्थानों की यात्रा, भाषा में बहुत कुछ जोड़ती चली गई। जिस गाँव, क़स्बे, नगर में पहुँचे वहाँ के शब्दों को अपना लिया। पर कबीर से मेरा पहला परिचय भोजपुरी भाषा से है। कबीर भी तो कहते हैं –
बोली हमरी पुरब की, हमें लखे नहीं कोय।
हमके तो सोई लखे, धुर पुरब का होय।।
जैसा कि मैंने पहले ही स्पष्ट किया कि कबीर को पढ़ने से पहले सुना है, जाना है। तो आज सिर्फ उसी ‘सुने’ और ‘जाने’ का उल्लेख करेंगे। बनारस के हर गली-मोहल्ले में कबीरपंथी निर्गुणिये दिख जायेंगे। मणिकर्णिका घाट पर साधु बैठकर निर्गुण गाते सुन जायेंगे। एक तरफ जीवन का सत्य होता है – जलती चिता के रूप में तो दूसरी तरफ़ कबीर के निर्गुण जो बाध्य करते हैं कि रो लो फूट-फूट कर जीवन का सत्य यही है –
केउ ठगवा नगरिया लूटल हो
चनन काठ के बनल खटोलना, तापर दुलहिन सूतलि हो।
उठु रे सखि मोर माँगु सवाँरहु, दुलहा मोसे रुसल हो।
अइले जमराज पलंग चढ़ि बइसल, नयनन असुँआ टूटल हो।
चारि जना मिलि खाट उठवले, चहुँ दिसि धूँ धूँ ऊठल हो।
कहत कबीर सुनहु भाई साधो, जगवा से नाता टूटल हो।
अरे किसी ठग से इस नगरी को लूट लिया है। चन्दन की लकड़ी का खटोलना (बच्चों के सोने के लिए छोटा पलंग) बना है और उसी पर (प्रकृति की बनी देहरुपी) दुलहिन सो रही है। हे सखि, उठो मेरी माँग संवार दो (मेरा शृंगार कर दो) दुलहा (आत्मा) मुझसे रुठ गया है। यमराज आये और मेरे पलंग पर चढ़कर बैठ गये। मेरे नेत्रों से आँसू बहना बन्द हो गया। चार मनुष्यों ने मिलकर खाट उठाई और (चिता से) धूधूकर चारो तरफ अग्नि उठने लगी। कबीर कहते हैं कि हे सन्तो, सुनो इस शरीर से, इस जगत से अब सम्बन्ध टूट गया।
कबीर की काशी में मेरा बचपन बीता। माँ धार्मिक स्वभाव की थीं, तो प्रातः गंगा-स्नान के लिए जातीं। प्रतिदिन तो हम दशाश्वमेघ घाट पर स्नान करते पर कार्तिक मास में (शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी) मणिकर्णिका घाट जाते। एक तरफ़ धू-घूकर जलती चिताएं और दूसरी तरफ़ कुछ फूल और राख को हटाकर गंगा में डुबकी मारना। उस वक़्त जब काम, क्रोध, लोभ, मोह – सबसे दूसरे आप जीवन के सत्य के समक्ष खड़े होते हैं। लौटते वक़्त माँ ठिठक जाती और उनकी ऊँगली थामे मैं। कलेजे को चीरते हुए कोई निर्गुणिया भजन गाता, माँ की आँखों से दो बूँद टप से गिरता। माँ अपने आपको संभालती, आँचल से पोछती। अपने बटुए से कुछ पैसे निर्गुणिये को देती और मुझे लेकर आगे बढ़ जाती। पर वह गाता जाता है अपनी मौज में। इस बात से बेफिकर कि उसे क्या मिला और क्या नहीं। जीवन के इस सत्य को इस रूप में कबीर ही रखते हैं –
नैया नीचे नदिया डूबी ए नाथ जी
अब नइया में नदिया डूबी।
एक अचराज हम आउर देखलीं
कुँइया में लागल बाड़ी आगि।
पनिया भरिजरि कोइला हो गइल
अब सिधरी बुझायताड़ी आगि।
एक अचरज हम आउर देखलीं।
बानर दुहे धेनु गाइ।
अजि दुधवा दुहि-दुहि अपने खइले
चिंउटी ससुरवा जाइ।
अब नव मन कजरा लाइ, ए नाथ जी
अरे हाथी मारि बगल धइ-दुबली
अरउ उँटवा के दिहली लटकाइ
अजी एक चिंउटी का मरले नव सौ गीध अघारा
कुछ खइले कुछ भुंइया गिरवले कुछ मुँहवा में लपटाइ
कहेले कबीर बचन के फेरा ओरिया के पानी बड़ेरिया जाइ।
मैं यह सब बस देखती रह जाती। न मैं जीवन जनती थी न ही मृत्यु। पर कबीर के जिस निर्गुण ने मुझे सबसे ज़्यादा रुलाया, वो है –
भंवरवा के तोहरा संग जाइ
आवे के बेरिया सब कोई जाने, दुअरे पर बाजल बधाई
जाए के बेरिया कोई ना जाने, हंसा अकेला उड़ जाई।
भंवरवा के तोहरा संग जाइ।
डेहरी पकड़ के मेहरी रोए, बांह पकड़ के भाई
बीचे अंगना माता जी रोवे, बबुआ के होता बिदाई।
भंवरवा के तोहरा संग जाइ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरु सरन में जाइ
जो यह पढ़िके अरथ बतइहें, जगत पार होइ जाई
भंवरवा के तोहरा संग जाइ।
मुझे याद है बनारस से बलियाँ चलने वाली ट्रेनों में उन मुसाफ़िरों की संख्या ज़्यादा होती है जो सुबह नौकरी के लिए निकलते हैं और शाम को लौट रहे होते हैं। और ट्रेन की इन्हीं डब्बों में घूम रहे होते हैं निर्गुण गाने वाले। भंवरवाण्ण्ण्ण् इस निर्गुण को जितनी बार सुना, उतनी बार रोई हूँ। कई बार अपने आपको संभालती थी कि – ‘ना, अब नहीं रोऊंगी। चाहे ये कितना ही अच्छा क्यों न गाये।’ पर ‘बीचे अंगना माता जी रोवे, बबुआ के होता बिदाई’ – तक आते-आते आँखे छलक जाती थीं।
कबीर का रहस्यवाद आपको ठहरने का मौक़ा देता है, पर कबीर के निर्गुण अपने साथ बहा ले जाते हैं। सत्य के समक्ष खड़ा कर देते हैं – आँखें ऊपर करो, नज़रें मिलाओ, यही सत्य है – जीवन का।
उड़ि गइले हंसा यह मोरे देसवा
भैया यह जग कोई नाहीं आपन।
कंकड़ चुनि-चुनि महल उठाया, पत्थर कइ दरवाजा।
ना घर मेरा, ना घर तेरा, चिरिया रैन बसेरा।
बाप रोवेले पूत सपूता भइया रोवे चउमासा।
लट छिटकवले उनकर तिरिया जे रोवे।
परि गइले पराया जिय आसा।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, यह पद हव निरवानी
जे यह पद के अरथ लगइहें, उहे गुरु महाज्ञानी।।
कबीर कहते हैं जो इसका अर्थ लगाएगा वही महाज्ञानी होगा। शाब्दिक अर्थ नहीं, गूढ़ अर्थ, व्यावहारिक अर्थ। तभी तो वो खुद कहते हैं –
कहै कबीर दीवाना
सगरी दुनिया भई सयानी, मैं ही इक बौराना।
तो महाज्ञानी वो होगा जो ‘सयाने’ की तरह अर्थ न लगाये ‘बौराना’ की तरह अर्थ लगाये।
प्रेम के चुनरिया पहिर के हम चलती हो साजनवाँ
ज्ञान दीपक ले ले हाथ हो साजनवाँ
सतगुरु सत लखा लावल हो साजनवाँ
खुली गइले भरम केवाड़ हो साजनवाँ
गंगा जमुनवाँ के संगम बहत हो साजनवाँ
करु त्रिवेणी असनान हो साजनवाँ
साहब कबीर यह झुमर गायल हो साजनवाँ
बहुरि न अइबो संसार हो साजनवाँ।।
कबीर जिस युग के कवि हैं, उसमें परिवार का बड़ा महत्व है। इसलिए कबीर आत्मा-परमात्मा की बात, परिवार के माध्यम से करते हैं। लोक का रंग समाया हुआ है। सास-ननद, पति का मिलना, रुठना, बिछड़ना – सबकुछ।
छतिया से उठेली दरदिया पिया के जगाव बारी हो ननदी
सैंया मोहे सूते ए राम प्रेम के अटरिया
खोल ना केवरिया ए राम पूछी दिलवा के बतिया, बारी हो नदी
आधी-आधी रतिया ए राम, धरमवा के बेरवा
जनले होरिलवा धगरिनि बोलाव बारी हो ननदी
सब अभरनवा ए ननदी बान्हि लना मोटरिया
समुझि-समुझि के डेगवा डाल बारी हो ननदी
बाड़ा ए सुदिनवा ए जनले होरिलवा
अझुरल केसिया सवार बारी हो ननदी
दास कबीर ए राम गावे पद निरगुनवा
हरि के चरनिया अब चित लावहु रे ननदी।
कबीर बनारस के रग-रग में समाये हुए हैं। कबीर का फक्कड़पन बनारस की विरासत है। बनारस में रहते हुए मुझे याद है कि हमारी गली से जब भी कोई अर्थी गुज़रती, हम बच्चे पीछे-पीछे कहते चलते –
राम नाम सत्य है
मुर्दा साला मस्त है।
यह थोड़ा कठोर है। उघड़ा हुआ सत्य – ‘मुर्दा साला मस्त है’ – पर मुर्दा तो मस्त ही होता है – गया इस दुनिया को छोड़कर – लोभ, मोह, काम, क्रोध, ईष्र्या – सबसे दूर। मिलन हो गया आत्मा का परमात्मा से। चार कहार ले जा रहे हैं विदा करके। आज तो मिलन का दिन है। सब रो रहे हैं, बिलख रहे हैं। पर जाने वाला ‘मस्त’ है।
अइली गवनवा के सारी हो, अइली गवनवा के सारी।
साज-समाज ले सईयाँ मोरे ले अइले कहरवाँ चारी।
बभन बिचारा दरदिओ ना बूझे जोरत गठिया हमारी।
सखी सब गावेली गारी।।
विधि भैले बाम नाहीं समुझि परे कुछ बैरन भइली महतारी
रो रो अखियाँ धुमिल भई सजनी घरवा देत निकारी
भइली सबके हम भारी।।
माता-पिता विदा कर देलन, सुधि नाहीं लेलन हमारी
धइ बहियां झकझोरी चढ़वले, केउना छोड़ावन हारी
देखहु, यह अति बरियारी।
कहत कबीर सुनो भाई साधो प्यारी गवने सिधारी
अबकी गवनवे लवटि नाहिं अवना करिलेहु भेंट सब नारी
चली मैं ससुसा विहारी।
जैसा कि पहले ही कहा है कि कबीर लोक के कवि है। लोक से रंग लेकर, जीवन में भरते हैं। कबीर उस समाज, उस वर्ग के कवि हैं जो गुज़रता है इन पीड़ाओं से। विदा होती लड़की की पीड़ा को कबीर का पुरुष हृदय महसूस करता है। इसीलिए उस तड़प को वो मोड़ देते हैं। बात करते हैं – आत्मा की, परमात्मा की।
अब गवना की सारी आ गई। अर्थात् अब विदा होने का समय आ गया। मेरे प्रीतम साज-समान सब लेकर आये और कहार भी चार लाये। ब्राह्मण बेचारा दरद नहीं समझता। वह हमारा गठबन्धन प्रीतम के साथ कर रहा है। सखी-सहेलियाँ गाली गा रही हैं। मुझको कुछ समझ नहीं आ रहा कि क्या करूँ? मेरी माँ भी आज बैरन बन गई है। रो-रोकर मेरी आँखें धूमिल हो गई हैं। साथ ही सखी-सहेलियाँ घर से मुझे निकाले दे रही हैं। हाँ, आज मैं सबके लिए भारी हो गई हूँ। माता-पिता ने मुझे विदा कर दिया। उन्होंने मेरी ज़रा भी सुधि नहीं ली। हे सखि, बाँह पकड़कर और झकझोर कर वे मुझे डोली में चढ़ा रहे हैं और हाँ, कोई मुझको छुड़ाने वाला नहीं है। हे राम देखो, यह अत्यन्त बरियारी (जबरदस्ती) है। कबीर कहते हैं कि हे भाई साधो, सुनो प्यारी ने अब प्रस्थान किया है। इस बार का जाना लौटना नहीं है। सब अच्छी तरह अँकवार भेंट कर लो।
कबीर की बानी, कबीर का लोकतत्व इतने वर्षों बाद भी बनारस के गली-मोहल्ले में गूँज रहा है। किन्तु काशी का दम्भ कबीर को रास नहीं आया। अपने जीवनकाल में आडंबर और कर्मकांड से लड़ने वाले कबीर ने मृत्यु पर भी विजय प्राप्त की। काशी में मरने पर स्वर्ग और मगहर में मरने पर नर्क, में से कबीर मगहर को चुनते हैं। कबीर अंधविश्वास और पाखण्ड के विरुद्ध लड़ते रहें। कुछ नहीं तो कबीर के मृत शरीर के लिए ही लड़ पड़े। कहते हैं मृत शरीर गायब हो गया और वहाँ रह गये चन्द फूल जिसे हिन्दुओं और मुस्लिमों ने बाँट लिया। सरल कविताई के माध्यम से इतनी स्पष्ट बात कहने वाले कबीर ही थे और कबीर ही रहेंगे। तभी तो वो डंके की चोट पर कहते हैं – ‘‘गंगा के जल में सभे नहाला, पूत तरे जोलहिनिये के।’’
सन्दर्भ ग्रंथ
1. भोजपरी के कवि और काव्य, संपादक डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद।