कबीर मध्यकाल के निर्गुण विचारधारा के कवि हैं । आधुनिक काल में कबीर का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता हैं धार्मिक कल के कबीर अकेले कवि हैं ,जिन्होंने  जीर्ण परम्पराओं का  खुलकर विरोध किया । आज का कवि कबीर की काव्य संवेदना को अपनी मानसिकता के काफी करीब पता हैं । यह पूछे जाने पर की ” हिंदी के आदि कवि ‘सरहपा ‘ से ले कर आज के नये से नये कवियों में आप को कौन अच्छे लगते हैं ?  तो   प्रभाकर माचवे ,रघुवीर सहाय ,अजीत कुमार, श्रीकांत वर्मा , मुद्रा राक्षस  और राजकमल चौधरी  जैसे कवियों ने कबीर का नाम बड़े आदर के साथ लिया हैं ”    ( पृष्ठ – ५६ उत्कर्ष कविता विशेषांक )                                                                                                                                 हरिशंकर परसाई अपनी व्यंग – दृष्टि   को कबीर के बहुत निकट  अनुभव करते हैं । कुछ कवियों ने साठोत्तरी  पीढ़ी की कविता को ‘ कबीर पीढ़ी की कविता ‘  भी कहा हैं ।”

                हिंदी साहित्य में इस विषय पर कई संगोष्ठियां और चर्चाएं हो चुकी हैं  कि की कबीर की काव्य संवेदना  और आधुनि भाव बोध  में क्या सम्बन्ध हैं ?  यदि हम कबीर की काव्य संवेदना की पड़ताल करने बैठे तो हम देखते हैं  कि, भक्ति आंदोलन की शुरुआत हिंदी साहित्य के धरातल पर कबीर से मानी जाती हैं । आदिकालीन  सिद्धो और नाथों ने  न केवल कबीर और कबीर प्रवर्तित संत मत के लिए अनुकूल पृष्ठभूमि  निर्मित करने का काम किया वरन संवेदना के साथ – साथ शिल्प के धरातल पर भी संत साहित्य के स्वरुप निर्धारण में  अहम् भूमिका निभाई ।

 ऐसी  कौन सी परिस्थितियां थी जिन्होंने आदिकालीन  साहित्य की वीरगाथातात्मकता और श्रृंगारिकता को पीछे छोड़ते हुए आध्यात्मिकता  को हिंदी की मुख्या धारा में स्थापित किया  ।

                             इसे  समझने के लिए तद्युगीन सामाजिक , राजनीतिक  और आर्थिक के साथ साथ धार्मिक – सांस्कृतिक परिदृश्य को  समझना  अति आवश्यक हैं । । इस युग में इस्लाम का आगमन  महज एक सामान्य घटना नहीं  बल्कि  सामाजिक सांस्कृतिक परिघटना थी । इसने  लोक और शास्त्र   के द्वन्द को उभरने में अहम भूमिका निभाई , जो कि  भारतीय समाज में पहले से ही  मौजूद थी । इसी  व्यापक पृष्ठभूमि में सांस्कृतिक अस्मिता का प्रश्न  उठ खड़ा होता हैं , और इसी  के प्रत्युत्तर में  सांस्कृतिक अस्मिता के तलाश  में  भक्ति आंदोलन का आविर्भाव होता हैं । धार्मिक कल में भक्ति ,साहित्य के मुख्य स्वर के रूप में सामने आती हैं । इसमें मोक्ष चिंताओं को अभिव्यक्ति मिलती हैं । सामाजिक समस्याओ का परिदृश्य , सामने रखने उनके  दूरगामी व स्थाई  हल खोजने में हिंदी साहित्य ने अपनी भूमिका को न केवल जिम्मेदारी से निर्वाह किया , अपितु अपनी  ‘सार्थक ‘ उपस्थिति भी दर्ज कराई हैं । अन्य विषय क्षेत्र जहाँ  आकड़ों के विश्लेषण से प्राप्त  निष्कर्षो को वरीयता देते हैं और सामाजिक समस्याओ के अध्ययन को सामने रखते हैं वही साहित्य समाज में मानवीय मूल्यबोध, संवेदना, अनुभूति आदि के माध्यम से एक ऐसा विशिष्ट अध्ययन प्रस्तुत करता है, जिसके विश्लेषण से  समाज के  बाहरी परिदृश्य ही नहीं बल्कि सामाजिक – अन्तर्दशाओं , मनोवृतियों पर भी गहरा प्रभाव पड़ता हैं । यदि हम बात करें कबीर के साहित्य की तो कबीर ने अपने समय के जीवन – प्रवाह को खुले नेत्रों से देखा था । उन्होंने जो कुछ भी कहा उसके पीछे उसका अनुभव विद्मान हैं । वे निर्भीक , स्पष्टवक्ता , विवेकशील और पक्षपातरहित थे । उन्होंने किसी की झूठी खुसामद नहीं की ।योगी हो या पंडित, मुल्ला हो या मौलवी ,नवी हो या औलियता, पीर हो या मुर्शीद , शैव हो या शाक्त , हिन्दू हो या मुसलमान उन्होंने सब की दुर्बलताओं पर सामान रूप से प्रहार किया । वे सच्चे विद्रोही थे । उनका विद्रोह अंधविश्वास , जातिगत भेदभाव तथा धार्मिक एवं सांप्रादियक संकीर्णता के विरुद्ध था । वे सहज जीवन के समर्थक थे और मनुष्य मात्रा की एकता में विश्वास रखते थे । कबीर अन्य कवियों से अलग इस बात में हैं की उन्होंने प्रेम के आधार पर  मनुष्य की  एकता की घोषणा की है । कबीर व्यक्ति को आतंरिक एवं बाह्य अस्तर पर जोड़ने का सन्देश लेकर आते हैं । इस क्रम में उनका संघर्ष उन तमाम शक्तियों से होता है जो समाज को अलग- अलग वर्गों में बाटने का काम करती हैं या जो शोषण तथा उत्त्पीडन को बढ़ावा देती हैं । दीन हीन  जनता एवं उपेक्षित मानव समुदाय के प्रति उनमे अपार सहानुभूति थी । वैभव, शक्ति और सत्ता के प्रति उनके मन में तनिक भी आकर्षण नहीं था । वे सब कुछ छोड़ कर , सारी वासनाओं  और एषणाओं  को जला कर  जीवनपथ पर आगे बढ़ते थे । वे सहज जीवन के आकाँक्षी थे । कबीर ने  अपने समय में समाज में व्याप्त मित्थ्याचार का विरोध किया । उनकी कविता में ये बात स्पष्ठ लक्षित होती है ।  डॉ रामचंद्र तिवारी ने तो स्पष्ठ शब्दों में कबीर की कविता के विषय में लिखा हैं की – ” आधुनिक शब्दावली का प्रयोग करे तो कह सकते हैं कि कबीर की कविता उनके सहज जीवन बोध और तत्कालीन समाज व्यापी मित्थ्याचार के बीच उत्तपन्न द्वन्द एवं तनाव की कविता है । ( पृष्ठ १५३)

                       स्पष्ठ रूप में देखें तो कबीर की कविता में लक्षित होने वाला तनाव ही वह बिंदु हैं जहाँ आधुनिक काल का कवि स्वयं को कबीर के समक्ष , कबीर के साथ खड़ा पता हैं । कबीर की यथार्थ दर्शिता ,मस्ती ,फक्कड़पन ,विवेकशीलता और चारित्रिक निर्मलता आदि विषेशताएं भी आज के कवि और साहित्यकारों के लिए विशेष महत्व रखती हैं । कबीर की मानसिकता को लेकर आधुनिक कवियों में आदर का भाव हैं  ।परन्तु यह सब होते हुए भी कबीर की मानसिकता आधुनिक काव्य संवेदना के अंतर्गत नहीं मानी जा सकती । यदि हम आधुनिक भाव बोध की बात करे तो -” आधुनिक भाव बोध मध्यकालीन धार्मिक दृष्टि तथा छायावादी भावुकता से भिन्न आज के वैज्ञानिक युग के सुशिक्षित मनुष्य की अपने परिवेश के प्रति संवेदनात्मक प्रतिक्रिया हैं । ( पृष्ठ -६२ हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली )

आधुनिक मानव की जीवन की दृष्टी का निर्माण विज्ञान के नवीन अनुसंधानों के आलोक में हुआ  हैं । आज का  मानव ,  जीवन की प्रत्येक समस्या का बौद्धिक समाधान ढूंढता हैं । वह दैवी लीला पर भरोसा नहीं करता अपितु , कार्य कारण सम्बन्ध की तलाश करता हैं।

                 जहां धार्मिक काल में मोक्ष की अभिलाषा मुख्य चिंता थी तथा भगवत भक्ति को मुख्य आधार माना गया था वहीँ आधुनिक काल में आधुनिक मानव सामाजिक जकड़न से सामाज की कुंठित मानसिकता से मुक्ति , विवेक के आधार पर , तर्क के आधार पर अधिक न्यायोचित  मानता हैं ।

कबीर एक आस्था वादी व्यक्ति थे । गुरु और ईश्वर में  उन्हें अखण्ड विश्वास था , उनका विद्रोह आस्तिक विद्रोह था। उन्होंने समाज व्यवस्था  को उस बिंदु पर चुनौती दी थी जहाँ उन्होंने उसे ईश्वर इच्छा के विपरीत अनुभव किया था। उनकी दृष्टि में ईश्वर ने मानव मात्रा को उत्पन्न किया हैं । अतः उसके लिए सब समान हैं । वे  ब्राह्मण तथा सूद्र में कोई  भेद स्वीकार नहीं करते । वे कहते हैं जब सभी को एक ही ईश्वर ने बनाया है , एक ही हांड मॉस हैं तो कौन  ब्राह्मण तो कौन  शूद्र ? कबीर की यह मान्यताएं तत्कालीन समाज व्यवथा के प्रति विद्रोहात्मक प्रतीत होती हैं । डॉ. राम चंद्र त्रिपाठी अपनी पुस्तक कबीर मीमांसा में कहा है – ” ध्यान से देखने पर यह स्पष्ठ  लक्षित होता है कि यह विद्रोह समस्त व्यवस्था के प्रति नहीं था । कबीर ने कहीं भी राज्य सत्ता को चुनौती नहीं दी हैं । आर्थिक  उत्पीड़न के प्रति कहीं भी कलम नहीं उठायी । उन्होंने बस धार्मिक , सामाजिक कुरीतियों पर आक्रोश व्यक्त किया है । “

                    “कबीर की काव्य संवेदना और आधुनिक कवि के भाव बोध में एक बहुत  बड़ा अंतर इस दृष्टि से भी नजर आता हैं कि -आधुनिक कवि की काव्य संवेदना द्वंदात्मक है । “( कबीर मीमांसा -पृष्ठ   १५४)   धार्मिक विकृतियों को ले कर  निःसंदेह कबीर के मन में द्वंद तनाव था परन्तु वैयक्तिक  मनोनयन के स्तर पर वे पूर्ण सामन्जस्वा स्थापित  कर चुके थे। वे सुख – दुःख ., राग- द्वेष , सत्य – असत्य , पाप – पुण्य से परे द्वंद्वातीत मनः  स्थिति से रमण करते प्रतीत होते हैं। इस बिंदु पर आकर सारा तनाव द्वन्द समित हो  जाता हैं। यह सामन्जस्य  पूर्ण स्थिति आज के कवि का बोध नहीं हैं। कबीर के काव्य में कही – कहीं रहस्यात्मकता हैं।

कबीर नैनो की कोठरी में पुतरी का पलंग बिछाकर और पलकों का चिक डाल कर अपने अपने प्रियतम को रिझाते हैं। कबीर का प्रियतम ही आदर्श पुरुष हैं , जिसे वह इस लोक में न पाकर दिव्या लोक में प्राप्त करना चाहते हैं ।

           कबीर की  इस मनः स्तिथि के साथ आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि और वास्तु परक भाव बोथ का सामन्जस्वा स्थापित नहीं हो पता। आज के वैज्ञानिको ने स्वप्न , कल्पना , फैंटसी , रहस्यानुभूति आदि की वैज्ञानिक व्याख्या की हैं, आधुनिक युग की कविताओं  में मानव के बाहरी  जीवन को ही नहीं अपितु आतंरिक मन में भी क्रांतिकारी परिवर्तन को दिखाया है । आधुनिक मनुष्य प्रत्येक चीज को भगवन या भाग्य  के भरोसे नहीं छोड़  देता है । वरन आधुनिक चिंतन व वैज्ञानिक दृष्टि  से उस पर सत्य की खोज करता है, वह विश्वास  के स्थान पर परिक्षण , श्रद्धा के स्थान पर तर्क और आस्था के स्थान पर विश्लेषण को महत्वा देता है |

आधुनिक भाव बोध की रचनात्मक उपलब्धि के रूप में वाजपेयी जी ने मानववाद को महत्व दिया है, जहाँ  तक मुक्ति बोध का सवाल हैं उन्होंने  ‘ आधुनिक भावबोध को नई कविता की आत्मा माना है ‘। आज का सुशिक्षित मनुष्य अपने परिवेश , परिस्थितियों से जो संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएं करता हैं ,  वे संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएं या उनका सामान्यीकरण नयी कविता में प्रकट होता हैं । ऐसे सुशिक्षित मनुष्य का दृष्टिकोण मध्ययुगीन धार्मिक दृष्टि से अनुप्राणित अथवा छायावादी भावुकता से कल्पना प्रधान नहीं होता ‘। ( पृष्ठा सांख्य ६२ हिंदी आलोचना की पारिवारिक शब्दावली )

विज्ञान के इस युग में , उसकी दृष्टि यथार्थोन्मुख तथा संवेदनशील होती है । वह यथार्थ -सम्बन्धो को ग्रहण कर यथार्थ -बोध द्वारा संवेदात्मक प्रतिक्रिया ग्रहण करता हैं ।

यदि अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने की बात कहे तो कबीर और आधुनिक कवि की काव्य संवेदना एक धरातल पर साथ उतरती है । कबीर ने अपने समय में समाज में प्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए आवाज बुलंद की थी । आधुनिक काल में यह बोध सामाजिक धार्मिक क्षेत्र से स्व तक प्रवेश करता है ।

मुक्तिबोध ने एक  जगह अपनी खुद की जिंदगी से और अपनी दोस्त की जिंदगी के  तजुर्बे से आधुनिक बोध पर प्रकाश डाला है |

“अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करना ‘आधुनिक भावबोध ‘ के अंतर्गत हैं । आधुनिक भाव बोध के अंतर्गत यह भी हैं कि मानवता के भविष्य  – निर्माण के संघर्ष  में हम और भी दत्तचित्त  हो तथा हम वर्त्तमान स्थिति को सुधारे , नैतिक ह्रास को थामे ,उत्पीड़ित मनुष्य के साथ एकात्म हो कर उसकी मुक्ति की उपाय योजना करे ।”

( ६२ – हिंदी आलोचना की पारिभाविक शब्दावली )

आधुनिक बोध के एक अन्य पहलु पर ध्यान दें तो हम कबीर और आधुनिक कवि की काव्य संवेदना  में फर्क देखते हैं । आज का कवि अपने को कुंठित अनुभव पाता है । कभी खीझता है और कभी आक्रोश व्यक्त करता है । कभी उसका मोह भंग होता है और कभी वह विद्रोह को ही अपनी पीढ़ी का धर्म मान बैठता है । कभी उसके सामने अभिव्यक्ति  का संकट आता है , तो कभी प्रतिबद्धता और अप्रतिबद्धता के द्वन्द का । कभी वह बिम्बो  के माध्यम से अपनी बात कहता है तो कभी  सपाट बयानी पर उतर आता हैं । यह सब इसलिए हैं क्यों कि शायद वह गतिशील समाज का प्राणी हैं ।

इंद्रनाथ मदान जैसे भाववादी लेखक ने विसंगत ,व्यर्थता और विडम्बना को आधुनिक  बोध का तत्त्व माना हैं । उनके अनुसार निराशा और दुःख भावना , ग्लानि और विरक्ति तथा असंगति  भी आधुनिक भाव बोध के तत्त्व हैं ।

कबीर के काव्य के सम्बन्ध  में ऐसा नहीं कहा जा सकता । वे अपने आप को कभी कुंठित महसूस नहीं करते और न ही निराश  होते हैं । उनमे खीझ और आक्रोश  हैं किन्तु वे इतने मस्त , फक्कड़ और लापरवाह है कि यह आक्रोश मानसिक घुटन  बन कर उनके व्यक्तित्व की मर्माहत  नहीं करता बल्कि तीखा व्यंग बनकर प्रतिपक्ष  की झकझोर देता हैं ।

उनके सामने नित्य परिवर्तित मानव मूल्यों का भी संकट नहीं हैं । वे सहज जीवन के और मानवीय एकता के अनुयायी थे । कबीर के राम शाश्वत सर्वनिरपेक्ष, सर्वशक्ति सम्पन्न, अखिल सृष्टि  के कर्ता धर्ता थे । आज का कवि किसी ऐसी शक्ति या किसी ऐसे तत्त्व में विश्वास नहीं करता ।

कबीर का अंतिम लक्ष्य समरसत्व की उपलब्धि ही हैं । यह मन की समरसावस्था या द्वंद्वातीत स्थिति आज के कवि का लक्ष्य नहीं बन सकती ।

 तात्पर्य यह है कि कबीर  की  यह  विद्रोहात्मक शैली यथार्थपरक दृष्टि , प्रखर व्यक्तितव  निर्भीक  ओजस्वी स्वर , अभेदात्मक जीवन दर्शन , सामजिक धार्मिक विकारों को लेकर उठने वाला  द्वंदात्मक तनाव आदि आधुनिक काव्य संवेदना, आधुनिक भाव बोध से कुछ हद तक मिलता हैं । किन्तु उनकी समत्व बोध की साधना आज के कवियों से मेल नहीं खाती । इसलिए कबीर के विद्रोही व्यक्तित्व को देख के साठोत्तरी कविता को (कबीर की पीढ़ी की कविता ) कहना उचित नहीं  होगा ।

निसंदेह ये बात सही हैं की कबीर आज के विद्रोही पीढ़ी को नेतृत्व प्रदान कर रहे  हैं , कबीर जैसा प्रखर व्यक्तित्व वाला फक्कड़ , मस्त मौला , सामाजिक कुरीतियों पर कुठाराघात  करने वाला कवि मध्यकाल में कोई नहीं हुआ । यदि ये कहे कबीर की तरह कहने का सहस  आज के कवि को भी  नहीं हैं  तो ये बड़ी बात न होगी |

                                                                                                                                                           मेरी दृष्टि  में कबीर को आधुनिक बोध के मूल्यों की कसौटी पर कसना उसी प्रकार ज्यादती होगी जिस  प्रकार हम कभी – कभी पाश्चात्य आधुनिक बोध को हिंदी साहित्य में ढूढ़ने लगते हैं । आधुनिकता एक प्रक्रिया हैं जो एक से अधिक दौर से गुजरने की गवाही देती हैं । एक दौर की कसौटी पर दूसरे दौर की आधुनिकता को नहीं परखा जा सकता ।

आधार ग्रन्थ :-

१) आधुनिक भाव-बोध की संज्ञा –          अमृत राय

२) कबीर मीमांसा  –                           राम चंद्र तिवारी

३) आधुनिक और हिंदी साहित्य –          इंद्रनाथ मदान

४) नई कविता  –                               नंदा दुलारे वाजपेयी

५) नए साहित्य का सौंदर्य – शास्त्र –       गजानन माधव मुक्तिबोध

५) कबीर ग्रंथावली –                           डॉ. श्याम सुन्दर दास

 

मोहिनी पाण्डेय
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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