यूरोपीय देशों और संयुक्त राज्य अमेरिका से इतर लैटिन अमेरिका के बुद्धिजीवियों काप्राच्य देशों, उनकी सभ्यताओं तथा संस्कृतिओं को समझने का प्रयास उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में आधुनिकतावाद के आगमन से प्रारम्भ हुआ। बीसवीं शताब्दी में उत्तर-उपनिवेशवाद के युग में उनके इस प्रयास को गहरायी से समझना अत्यन्त ही आवश्यक बन गया क्योंकि पूर्व के कई देशों के समान लैटिन अमेरिकी देशों का इतिहास भी उपनिवेशवाद और उससे जुड़ी स्वाधीनता के क़िस्से बयान करता है।

लैटिन अमेरिका का ख़ासतौर से भारत से यह जुड़ाव निकारागुआ के मशहूर साहित्यकार रूबेन दारीओ के संग्रह मेदायोनेस में पहले-पहल देखा जा सकता है जिसमें उन्होंने फ़क़ीरों, राजाओं और हाथियों का उल्लेख किया है। साथ ही में उन्होनें अपने इस संग्रह में रामायण का भी उल्लेख किया है। इसके उपरान्तलैटिन अमेरिका के बहुतेरेबुद्धिजीवियों ने अपनी साहित्यिक रचनाओं में भारत और भारत से जुड़े विवरण दिए जो कि बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दी में बहुतायत में पाए जाते हैं। रूबेन दारीओ कभी भारत नहीं आए परन्तु कालान्तर में लैटिन अमेरिकीदेशों से साहित्यकारों एवं दार्शनिकों का कारवाँ भारत भ्रमण को आता रहा जो कि भारत के अपने अनुभवों को अपनी कृतियों के द्वारा बयान करता रहा। इन बुद्धिजीवियों में लैटिन अमेरिकी देश मेक्सिको के प्रसिद्ध साहित्यकार, कवि तथा राजनयिक रह चुके ओक्ताविओ पास का नाम सर्वोपरि है।

ओक्ताविओ पासलैटिन अमेरिकी देश मेक्सिको के वासी थे जो भारत की राजधानी नई दिल्ली में कई वर्षों तक मेक्सिको के राजदूत के पद पर कार्यरत रहे। इन्हें वर्ष १९९० में अपने लेखन के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पास ने भारत के अपने अनुभवों को कई किताबों और कविता संग्रहों में संजोया और पिरोया जिनमें विसलूम्ब्रेस दे ला इंदिया, लादेरा एस्ते, फिगुरास ई फिगुरासिओनेसतथा एल मोनो ग्रामातिको प्रमुख हैं। लैटिन अमेरिका के कई बुद्धिजीवियों ने भारत के ऊपर साहित्यिक रचनाएँ लिखीं परन्तु ओक्ताविओ पास इनमें कदाचित सबसे प्रमुख हैं क्योंकि इनकी ये रचनाएँ आजपश्चिम में भारत के ऊपर हो रहे शोध में मील का पत्थर साबित हुयी हैं। इन्होंने हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म में अपनी रुचि पर आधारित कई रचनाएँ रचीं जो कि एक तरह से पास का अपने मूलभूत तत्व को समझने का प्रयास माना जाता है। पास ने स्वयं ही इस तथ्य को स्वीकार किया है कि भारत को समझने के अपने इस प्रयास से वह वास्तव में अपने मेक्सिकोवासी होने को गहरायी से समझने का प्रयास कर रहे हैं। हालाँकि भारत में इनको अपनी इस मान्यता कि हिन्दू धर्म और राष्ट्रवाद एक-दूसरे के अनुकूल नहीं हैंक्योंकि पास के अनुसार हिन्दू धर्म मुक्त बहाव वाला है जबकि राष्ट्रवाद बाँध के रखने वाला है, पर कुछ आलोचना भी मिली। पास के यहाँ कई मित्र बने जिनका इनके भारतीय और बौद्ध दर्शन को समझने में बहुत बड़ा योगदान है जैसे कि चित्रकार व कवि जगदीशस्वामिनाथन, साहित्यकार ख़ुशवंत सिंह, हिन्दी के महान साहित्यकार अज्ञेय, साहित्यकार नीरद चन्द्रचौधरी इत्यादि। पास ने इन सबका आभार अपनी १९९५ में प्रकाशितपुस्तक विसलूम्ब्रेस दे ला इंदियामें प्रकट किया है।इन्हें कवि होने के साथ-साथ भारत में मेक्सिको के राजदूत होने से भी इस देश और इसकी संस्कृति को समझने का भरपूर अवसर मिला।अन्ततः पास ने भारत को कई स्तरों पर देखा और अनुभव किया जिसका गवाह इनके द्वारा रचित साहित्य है। इनके साहित्य में हम भारत से जुड़े हर विषय पर कोई ना कोई लेख या कविता ढूँढ सकते हैं जैसे कि धर्म, राजनीति, दर्शन आदि। इन्होंने भारत के कई शहरों और इलाक़ों पर कविताएँ लिखीं जैसे कि वृन्दावन, मथुरा, एलीफैंटा की गुफाएँ, लोधी गार्डन, हिमाचल प्रदेशइत्यादि।

प्रस्तुत लेख में ओक्ताविओ पास की ऐसी ही एक कविता जो कि स्पैनिश भाषा में “इंदिया” कहलाती है, जिसका की हिन्दी में अनुवाद भारत है, का अनुवाद व उसकी समीक्षा पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास किया गया है। इस अनुवाद के माध्यम से यह समझने की चेष्टा की गयी है कि एक विदेशी कवि किस तरह से भारत को समझने का प्रयास करता है। इस लेख के माध्यम से यह भी उकेरने का प्रयास है कि ओक्ताविओ पास का “भारत” कितना अनूठा व अनुपम है और कि वह पश्चिम या यूँ कहें कि यूरोप में विद्यमान भारत के चित्रण से पूरी तरह से भिन्न है, पास के भारत के चित्रण में पाठकों को कदाचित पूर्वाग्रह का कोई अंदेशा नहीं लगता और ऐसा तो बिलकुल नहीं लगता कि भारत लैटिन अमेरिका का विपर्यय है।

ओक्ताविओ पास की कविता “इंदिया” उनके द्वारा रचितफिगुरास ई फिगुरासिओनेस में प्रकाशित हुयी थी। इसी वर्ष ओक्ताविओ पास को नोबेल पुरस्कार भी मिला था जैसा कि इस लेख के प्रारम्भ में कहा जा चुका है। यह कृति उन्होंने अपनी पत्नी मारी होज़े पास के साथ लिखी थी जिनसे वह भारत में मिले थे। इस कविता का हिन्दी में अनुवाद आपके समक्ष प्रस्तुत है, हालाँकिओक्ताविओ पास की कविताओं का अनुवाद करना अत्यन्त ही कठिन कार्य है क्योंकि पास ने स्वयं ही अपनी रचित पुस्तक ऐन ऐन्थॉलॉजी ऑफ़ मेक्सिकन पोयट्री में कहा कि काव्यात्मक शब्द का कोई विकल्प नहीं होता।

भारत

येअक्षर औरटेढ़ी-मेढ़ीरेखाएँ

जोकभी गूँथ जाते हैं

तो कभी परे हो जाते हैं इक-दूजे से

काग़ज़ पर

जैसे कि हथेली पर:

क्या यही है भारत?

और कत्थई रंग केधातु का पंजा

  • धूप में गढ़ा,

चाँदनी से शीतल हुआ।

उसके पंजे जिसने दबोचा है

एक सख़्त काँच के गोले को

और इंद्रधनुषी गोलक

जलते-चमकते हैं सहस्त्र दीप

कि हर रात श्रद्धालु

उतरते हैं तैरने को

झीलों में और नदियों में:

क्या यह एक भविष्यवाणी है,

एक पहेली?

याद है एक मुलाक़ात की?

बिखरी हुयी निशानियाँ हैं एक नियति की?

  • यह एक राजदंड है भाग्य का।

जो अर्पणकिया, वृक्ष रूपी समय के चरणों में

इस जगत के महाराजा ने।

उपरोक्त अनुवाद के माध्यम से हम देख सकते हैं कि पास इस स्वरचित कविता में कई प्रश्न खड़े कर रहे हैं। ये प्रश्न कवि ने स्वयं से पूछे हैं और इसी कविता में हम कवि द्वारा किए गए प्रश्नों के उत्तरों को भी ढूँढ सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस कविता के माध्यम से कवि पहले किसी का निर्माण कर रहा है और फिर कुछ खोजबीन कर रहा है जैसे कि वह स्वयं से पूछ रहा हो कि सब ठीक तो है ना। इसके पश्चात् वहउस खोजबीन में जुटाए गए सबूतों को हमारे समक्ष प्रस्तुत कर रहा है और वह पुनः कुछ और निर्माण कर रहा है।वस्तुतः ऐसा ही मानना जेम्स क्लिफ़र्ड का भी है जो अपनी प्रसिद्ध पुस्तक राइटिंग कल्चर्ज़: द पोएटिक्स एंड पॉलिटिक्स ऑफ़ एथनोग्राफीमें कहते हैं कि “अन्य” का निर्माण करते हुए हम, दरअसल, “स्वयं” का ही निर्माण करते हैं। जूलिआ कुशीगीआन ने अपनी रचना   ओरीएंटैलिस्म इन द हिस्पैनिक लिटरेरी ट्रैडिशन में प्रसंगवश यह उकेरा है कि चूँकि हिस्पैनिक अमेरिका (लैटिन अमेरिकी देश जहाँ स्पैनिश बोली जाती है जैसे कि मेक्सिको) ने कभी किसी को अपने आधीन नहीं किया बल्कि स्पेन के आधीन क़रीब ४०० वर्षों तक रहा इसलिए उसका पूर्व की संस्कृति को समझने का दृष्टिकोण बहुत ही अनूठा है। यह नज़रिया प्राच्य देशों और उनकी संस्कृति को हिस्पैनिक संस्कृति के विपरीत ना देखने की बजाय उसके साथ एकाकार हो जाता है। प्रस्तुत कविता में पास ने ऐसा ही कुछ हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। इस कविता में प्रश्नोत्तर के माध्यम से ऐसा प्रतीत होता है कि पास हमारे साथ भारत के ऊपर संवाद करना चाहते हैं।साथ ही साथ वह प्रस्तुत कविता में भारत का चित्रण भी कर रहे हैं जो कि निश्चित रूप से एक विदेशी का दृष्टिकोण है जो कि भारतवासियों के नज़रिए से थोड़ा भिन्न अवश्य हो सकता है परन्तु यह दृष्टिकोण विरोधाभासी कदापि नहीं है। यह चित्रण एक विदेशी को भारत के निकट लाता है ना कि भारत को उससे दूर करता है जैसा कि एड्वर्ड सईड ने अपनी प्रख्यात रचना ओरीएंटैलिस्म में यूरोप के सन्दर्भ में कहा है। एक ओर जहाँ यूरोपपूर्वीय देशों को “अन्य” मानते हुए देखता रहा है, वही दूसरी ओर हिस्पैनिक अमेरिका का दृष्टिकोण समावेशी माना जा सकता है। ऐसा कदाचित इसलिए सम्भव हुआ क्योंकि सन् १४९२में इस क्षेत्र में जो कि आज लैटिन अमेरिका कहलाता है में स्पेन के आगमन से पूर्व ऐज़्टेक, माया, इन्का जैसी बहुत सी सभ्यताएँ मौजूद थीं। सन् १४९२ के उपरान्त इन दो सभ्यताओं के समन्वय को लैटिन अमेरिका में सोलहवीं व सत्रहवीं शताब्दी में एक नयी संस्कृति के उद्भव के रूप में देखा जा सकता है।

कदाचित भारत के अध्ययन में भी मेक्सिको के नागरिक ओक्ताविओ पास ने इसी समन्वय का प्रयास किया है। पास ने इस कविता के माध्यम से भारत के कुछ ऐसे चित्र उकेरे हैं जो सांस्कृतिक विनियोग जैसे लग सकते हैं, जैसे कि “जलते-चमकते हैं सहस्त्र दीप / कि हर रात श्रद्धालु / उतरते हैं तैरने को / झीलों में और नदियों में:”व “यह एक राजदंड है भाग्य का। / जो अर्पण किया, वृक्ष रूपी समय के चरणों में / महाराजा ने इस जगत के।” क्योंकि श्रद्धालु और महाराजा जैसे शब्द अकसर भारत से बिना किसी सन्दर्भ के भी जोड़ दिए जाते हैं। परन्तु प्रस्तुत कविता में पास भारत के भूत को उसके वर्तमान से जोड़ते हैं। पास की दृष्टि में वर्तमान को समझने के लिए भूत को समझना अत्यन्त ही आवश्यक है, ““यह एक राजदंड है भाग्य का। / जो अर्पण किया, वृक्ष रूपी समय के चरणों में / महाराजा ने इस जगत के।”

ओक्ताविओ पास के अनुसार काव्यात्मक चित्रण से परस्पर विरोधी छवियों को एकरूप किया जा सकता है जैसे कि उक्त कविता की पहली चार पंक्तियाँ, “ये अक्षर और टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ / जोकभी गूँथ जाते हैं / तो कभी परे हो जाते हैं इक-दूजे से / काग़ज़ पर / जैसे कि हथेली पर:”। उक्त कविता में कवि कभी-कभार अतियथार्थवादी भी हो जाता है जैसे, “क्या यह एक भविष्यवाणी है, / एक पहेली? / याद है एक मुलाक़ात की? / बिखरी हुयी निशानियाँ हैं एक नियति की?”, यद्यपि कविता की अन्तिम चन्द पंक्तियों में तुरन्त ही वह हमें वापस भारत के भूत और वर्तमान के “भरत-मिलाप” के दर्शन कराने वापस ले आता है।

इस लेख का केन्द्र पास की कविता “भारत” जान पड़ती है परन्तु इस अध्ययन की नींव पास द्वारा रचित भारत के ऊपर बहुतेरी रचनाएँ हैं क्योंकि पास ने भारत को देखने और समझने का केवल एकस्तरीय प्रयास नहीं किया अपितुबहुस्तरीय प्रयास किए जिससे उनको भारत को गहरायी से समझने का अवसर मिला। पास का भारत वास्तव में एक “कत्थई रंग के धातु का पंजा / -धूप में गढ़ा, / चाँदनी से शीतल हुआ।” है और भारत की संस्कृति “एक सख़्त काँच के गोले” के समान है जिसके“इंद्रधनुषी गोलक” में उसकी रंग-बिरंगी झलकियाँ दिखायी पड़ती हैं।

सन्दर्भ:

  • क्लिफ़र्ड, जेम्स, राइटिंग कल्चर्ज़: द पोएटिक्स एंड पॉलिटिक्स ऑफ़ एथनोग्राफी, १९८६
  • कुशिगिआन, जूलिआ, ओरीएंटैलिस्मइन द हिस्पैनिक लिटरेरी ट्रैडिशन, १९९१
  • पास, ओक्ताविओ, एल मोनो ग्रामातिको, १९७४
  • पास, ओक्ताविओ, ऐन ऐन्थॉलॉजी ऑफ़ मेक्सिकन पोयट्री, १९५९
  • पास, ओक्ताविओ, फिगुरास ई फिगुरासिओनेस, १९९०
  • पास, ओक्ताविओ, लादेरा एस्ते, १९६९
  • पास, ओक्ताविओ, विसलूम्ब्रेस दे ला इंदिया, १९९५
  • सईड, एड्वर्ड, ओरीएंटैलिस्म, १९७८

माला शिखा
सहायक प्रोफ़ेसर
स्पैनिश अध्ययन विभाग, भाषा केन्द्र
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखण्ड

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