हिंदी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केंद्र में रहने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी मुक्तिबोध की छवि एक प्रगतिशील और संघर्षशील संश्लिष्ट कवि के रूप में अधिक प्रचलित रही है, जबकि उनके रचनात्मक विधाओं में लेखन के अनुरूप कथाकार, आलोचक और साहित्यिक डायरी लेखक के साथ-साथ समसामयिक राजनीतिक विषयों पर टिप्पणी करने वाले एक सजग विचारक की छवि भी उतनी ही महत्वपूर्ण रही है । उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है । मुक्तिबोध असाधारण प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे । उनका व्यक्तित्व सरल और साधारण नहीं था, वरन पेचीदा था । मुक्तिबोध स्वयं लिखते है- ” मन एक रहस्य लोक है । उसमे अँधेरा है । अँधेरे में सीढ़ियां है । सीढ़ियां गीली है । सबसे निचली सीढ़ी पानी में डूबी हुई है । वहां अथाह काला जल है । उस अथाह जल में स्वयं को ही डर लगता है । इस अथाह काले जल में कोई बैठा है । वह शायद मैं ही हूँ ।” मुक्तिबोध बचपन से ही जिज्ञासु थे। उनकी यही जिज्ञासा वृत्ति उन्हें बौद्धिक हलचलों के प्रखर वातावरण में ले गयी थी । २०वीं शताब्दी के तीसरे दशक के अंतिम वर्ष, राष्ट्रीय जन-जीवन के ऐसे वर्ष थे, जो राजनीतिक हलचलों और एक प्रकार की बौद्धिक सुगबुगाहट से अनुप्राणित थे । नयी राजनीतिक चेतना का आह्वान उन्हें बौद्धिक सचेतनता की ओर अग्रसर कर रहा था ।
मुक्तिबोध का लेखन सन 1935 में माधव कॉलेज उज्जैन से आरम्भ हुआ और वह उनके जीवन के अंत तक चलता रहा । इनकी प्रारम्भिक रचनायें स्वर्गीय माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित ‘कर्मवीर’ में प्रकाशित हुई थी । यहीं से मुक्तिबोध के साहित्यिक जीवन की शुरुआत होती है । सन १९४३ में ‘तारसप्तक’ के प्रकाशन से एक नयी काव्य चेतना का प्रस्फुटन हुआ जिसमें अन्य छह कवियों के साथ मुक्तिबोध की मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनीतिक चेतना से समृद्ध सोलह कविताएं प्रकाश में आयी । ‘वक्त’ में उन्होंने अपनी काव्य प्रेरणा के संबंध में लिखा है, ” मेरे बालमन की पहली भूख सौंदर्य और दूसरी विश्व-मानव का सुख-दुःख, इन दोनों का संघर्ष मेरे साहित्यिक जीवन की पहली उलझन थी ” मुक्तिबोध के साहित्य में सामाजिक और राजनीतिक स्वर की विशेष महत्ता है । भारतीय समाज के क्रमिक विकास का परिचय रखने वाले मुक्तिबोध प्राचीन समाज की आत्मनिर्भरता, धर्म द्वारा अनुशासित जीवन और संयुक्त परिवार में व्यक्ति के विकास के इतिहास को जानकर ही वर्तमान समाज की समस्याओं पर विचार किया । वही राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त अवसरवाद, भ्रष्टाचार, पद लालसा, खोखली नारेबाजी के अनेक सन्दर्भों को अपने साहित्य में उल्लेख किया है ।
नौकरी मुक्तिबोध के लिए भटकाव का पर्याय बनकर आयी थी । एक शिक्षक की हैसियत से वे उज्जैन और शुजालपुर कई बार स्थानांतरित होते रहे । शुजालपुर में मुक्तिबोध डॉ. नेमिचन्द जैन के सम्पर्क में आये । डॉ. नेमिचंद जैन ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण की व्यावहारिक उपयोगिता को स्पष्ट किया और इसी से मुक्तिबोध का बौद्धिक द्वन्द्व मार्क्सवाद से अभिभूत हुआ । सन 1942 के बाद का दौर मुक्तिबोध का विधिवत मार्क्सवाद के सम्पर्क में आने का दौर है । मुक्तिबोध के ही शब्दों में- ” सन 1942 के प्रथम और अंतिम चरण में मैं एक ऐसी विरोधी शक्ति के सम्मुख आया जिसकी प्रतिकूल आलोचना से मुझे बहुत कुछ सीखना था । यहाँ लगभग एक साल में मैंने पांच साल पुराण जड़त्व निकलने की सफल – असफल कोशिश की । …क्रमशः मेरा झुकाव मार्क्सवाद की ओर हुआ । अधिक वैज्ञानिक, अधिक मूर्त और अधिक तेजस्वी दृष्टिकोण मुझे प्राप्त हुआ । … अपने काव्य की अस्पष्टता पर मेरी दृष्टि गयी, तीसरे नए विकास-पथ की तलाश हुई ।” अन्य मार्क्सवादी विचारकों की तरह ही मुक्तिबोध भी साहित्य को सामाजिक वस्तु मानते है, जिसका विकास आर्थिक विकास के समानांतर चलता है, अर्थात सामाजिक परिवर्तन एवं प्रगति का मूल सूत्र अर्थ एवं उत्पादन के साधनों पर आधारित होता है । इसी धारणा के आधार पर मुक्तिबोध का कहना है- ” सामाजिक उत्पादन प्रणाली कार्य विभाजन के अनुसार विविध वर्ग तथा उनके जीवन यापन की विशेष प्रणालियाँ ही मानव संबंधो को निर्धारित करती है । एक वर्ग के भीतर सामाजिक-संबंध सभी मानव-संबंध है । …ये मानव-संबंध समाज के विकास के साथ परिवर्तित होते रहते हैं तथा समाज की विशेष स्थितियों की उनमें विशेषताएं प्रकट होती रहती हैं ।”
किसी भी रचनाकर की जीवन दृष्टि उसके साहित्य संदर्भो को समझने परखने का सर्वप्रमुख माध्यम है । यही जीवन दृष्टि कलाकार के न केवल सृजनात्मक लेखन का आधार होती है बल्कि उसे सैद्धांतिक पीठिका देने वाले आलोचन-विवेचन का केंद्र बिंदु भी बनती है – जो परिवार के मूल्य होंगे वे जीवन में होंगे ही और वे साहित्य में भी उतरेंगे । जीवन को देखने- परखने की उनकी दृष्टि मूलतः मार्क्सवादी है । उनका काव्य चिंतन, जीवन और समाज के प्रति देखने की दृष्टि मार्क्सवाद का ही परिणाम है । उनका कहना है- ” हमारा सामाजिक व्यक्तित्व ही हमारी आत्मा है । …हमारी आत्मा में जो कुछ है, वह समाज प्रदत्त है ।” यथार्थ जीवन-जगत ही मुक्तिबोध की समीक्षा दृष्टि का केंद्र बिंदु है । जीवन उनके लिए साहित्य का निकष है – “जब साहित्य जीवन से प्रस्तुत होकर जीवन को प्रभावित करता है, तो वस्तुतः उसकी कसौटी जीवन ही है ।”
मुक्तिबोध का साहित्य मात्रा की दृष्टि से अधिक न होते हुए भी गुणात्मक रूप से महत्वपूर्ण है । उसमें एक दृढ़ वैचारिक चिंतन की बहुमुखी सृजनात्मक प्रतिभा का ओज है । इनका समस्त काव्य सामाजिक अंतर्द्वंद के मानसिक संघर्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति का आत्म सम्भव प्रयास है । अपने काव्य में मुक्तिबोध एक ओर समाज में परिव्याप्त भ्रष्टाचार के सामने झुकने की प्रवृत्ति से विद्रोह करते है और दूसरी ओर अपने भीतर के चेतन-अचेतन वृत्तों के संघर्ष से जूझते हैं । इनके काव्य का मूल कथ्य वह संघर्ष है जो आत्मसंघर्ष के माध्यम से बाह्य संघर्ष की ओर अग्रसर होता हुआ एक शोषणरहित वर्गहीन समाज की कल्पना करता है । मुक्तिबोध काव्य के इस मूल कथ्य को निम्न बिंदुओं के जरिए हम अधिक जान सकते हैं । –
१. वर्गहीन समाज की परिकल्पना और जनचेतना
जैसा की मुक्तिबोध ने पहले ही कहा है जीवन ही साहित्य का निकष है इसलिए कविता उनके लिए मस्तिष्क का आवेश न होकर जीवन के जटिलतम विचारों और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम थी । मुक्तिबोध की जन-चेतना मार्क्सवादी दृष्टिकोण के समस्त पहलुओं और आयामों को अपने में समाहित किये हुए है । इसलिए उसके अंतर्वस्तु वर्गहीन समाज की परिकल्पना के उद्देश्य से निर्मित है । जनसंघर्ष के विविध आयामों और आत्मीय छवि-चित्रों के चित्रण में ही उनकी वर्गहीन समाज के निर्माण की परिकल्पना व्यापक मानवीय मूल्यों से जुड़ते हुए सार्थक होती है । मुक्तिबोध के काव्य में यह परिकल्पना अभिधात्मक रूप में व्यक्त हुई है :
” समस्या एक –
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी सुंदर व शोषणमुक्त
कब होंगे ? ” (चाँद का मुँह टेढ़ा है, पृष्ठ. १५५)
मुक्तिबोध ने वर्गहीन समाज के निर्माण की प्रक्रिया में अन्याय और शोषण के विरूद्ध संघर्ष करने वाले मार्ग को अवरुद्ध करने वाली सुविधाजीवी प्रवृत्ति का भी उल्लेख किया है ।
२. पूंजीवादी समाज के प्रति रोष
मार्क्सवादियों वर्गहीन समाज की परिकल्पना के स्वप्न को साकार मूर्तरूप देने के उद्देश्य से रचे गए काव्य का कथ्य स्वभावतः पूंजीवादी समाज को गर्हित और निंदनीय चित्रित करता है । पूंजीवादी शोषक समाज के उत्पीड़न स्वरूप को पाठक के सामने उजागर करके ही उसके प्रति ग्लानि और घृणा का भाव जाग्रत किया जा सकता है । ‘तारसप्तक’ में ‘पूंजीवादी समाज के प्रति’ कविता की निम्न पंक्तियाँ स्पष्टतः पूंजीवादी संस्कृति के दोगले स्वभाव के प्रति उनकी ग्लानि और घृणा से उपजी भर्त्स्ना को उजागर करती है:
” छोड़ो हाय, केवल घृणा और दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे हास में भी रोग कृमि है उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध तुझ पर व्यग्र “
यहाँ मुक्तिबोध शोषक पूंजीपति समाज के दस्यु-रूप का वर्णन कर उसके प्रति घृणा और ग्लानि उपजाना चाहते है ताकि उसके विरोध में सन्नद्ध होकर शोषित-पीड़ित व्यक्ति उसके नाश की कामना और उससे मुक्ति के लिए समूह-शक्ति को एकत्रित करे ।
पूंजीवादी सभ्यता की देन – एक तरफ शान-शौकत से निर्मित खोखली और दोगली शहरी जीवन और दूसरी तरफ नगरीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले दैनिक मज़दूरी पर बदबूदार स्थानों पर जीवित रहने वाली विवश जिंदगी । कवि यहाँ नगरी सभ्यता के दोगले स्वरुप का चित्रण करते हुए कहता है-
” इस नगर का व्यक्तित्व जादुई
की रंगीन मायाओं का प्रदीप्त पुंज यह
नगर है अयथार्थ
मानवी आशा और निराशा के परे की चीज़”*(‘मुझे याद आते है‘)
३. शोषित वर्ग के प्रति सहानुभूति –
मार्क्सवादी चिंतन का मूलाधार वह सर्वहारा मज़दूर-वर्ग है जो समाज में आर्थिक वैषम्य के कारण शोषित एवं उत्पीड़ित है । आर्थिक समानता की प्राप्ति के माध्यम से वर्गहीन समाज-रचना का स्वप्न ही मार्क्सवाद का मुख्य लक्ष्य है । ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ शीर्षक कविता का प्रारम्भिक अंश श्रमिक वर्ग के शोषण स्थान और उसके आस-पास के वातावरण का चित्रण करता है:
” नगर के बीचोबीच
आधी रात-अँधेरे की काली स्याह
शिलाओं से बनी हुई
भीतों और अहातों के, कांच टुकड़े जमे हुए
ऊंचे-ऊंचे कंधो पर
चांदनी की फैली हुई संतलायी झालरें ।”
शोषित वर्ग की स्थिति के प्रति मुक्तिबोध की मोहसिक्त सहानुभूति का निम्न चित्र सहज ही आकर्षित करता है :
” दूर दूर मुफलिसी के टूटे फूटे घरो में
सुनहले चिराग बल उठते है
आधी अँधेरी शाम
ललाई में निलायी नहाकर
पूरी झुक जाती है
थूहर के झुरमुटों से लसी हुई मेरी
इस राह पर।”(चाँद का मुँह टेढ़ा है, पृष्ठ.७९)
४. वर्ग संघर्ष
प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूप में मुक्तिबोध ने अपनी अधिकांश कविताओं में वर्ग संघर्ष को चित्रित करने का प्रयास किया है । उनकी कविताओं में शोषित वर्ग की संघर्ष के प्रति सचेत सक्रियता और उससे भयाक्रांत शोषक वर्ग का विस्तृत चित्रण है । ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ शीर्षक कविता अपने सम्पूर्ण कलेवर में ही वर्ग-संघर्ष की क्रांति चेतना से आपूरित है । संघर्षमयी वातावरण का चित्रण ही वर्ग-संघर्ष की उपस्थिति को व्यंजित करता है:
“लोहांगी में हवाएं
दरख्त में घुसकर
पत्तों से फुसफुसाती कहती है
नगर की व्यथाएँ
सभाओं की कथाएँ
मोर्चो की तड़प और
मकानों के मोर्चे
मीटिंगों के मर्म राग
अंगारों से भरी हुई
प्राणों की गर्म राख”
‘चंबल की घाटी में’ शीर्षक कविता में कवि ने शोषण व्यवस्था (दस्यु) के अत्याचार से मुक्ति के लिए ‘समूहीकरण’ पर बल दिया है। इस कविता में मुक्तिबोध ने नवनिर्माण की भूमिका के लिए शोषक व्यवस्था के पूर्ण विनाश को आवश्यक मानते हुए वर्ग-संघर्ष की बात की है-
“मेरी सलाह है-
लुढ़को(मैं तुम्हे देता हूँ धक्का गति और वेग)
वक्षाहीनउस दस्यु को लेकर
लुढ़कते चले जाओ
पहाड़ी उतार पर (वह पिस जायेगा)
५. आर्थिक स्थितियों की पड़ताल
काव्य में मार्क्सवादी चेतना की सृजनात्मक परिणति स्वभावतः आर्थिक विषमता की स्थितियों के चित्रण का अभिव्यक्ति माध्यम है । इन आर्थिक शोषण के चित्रों में ही भावक उनकी स्थितियों एवं करने की पड़ताल करने लगता है । मुक्तिबोध के काव्य में आर्थिक शोषण के चित्र ही आर्थिक परिस्थितियों एवं उनके कारणों की पड़ताल कराने के लिए भावक को विवश करते है । ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ शीर्षक कविता के प्रारम्भ में ही श्रमिकों के शारीरिक एवं आर्थिक शोषण के लिए जिम्मेदार धूम्रमुखी कारखाने का चित्रण है । इसी कविता में ही कवि नगर सभ्यता में पनप रहे दो वर्गों के बीच की आर्थिक विषमता की खायी को भी स्पष्तः कर देता है-
“धुंधलके में खोये इस
रास्ते पर आते जाते दीखते है
लठधारी बूढ़े से पटेल बाबा
ऊँचे से किसान दादा
वे दाढ़ीधारी मुस्लमान चाचा और
बोझा उठाये हुए
माये,बहने, बेटियां- “
आर्थिक स्थितियों के वैषम्य को उट्घाटित करने में मुक्तिबोध की दृष्टि में अचेतन रूप से भारतीय संस्कृति और सभ्यता की मानसिकता का संचालन रहा है ।
६. प्रतिबद्धता
स्वचेतना के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्ति की प्रतिबद्धता उसका जीवनमूल्य होता है और स्वचेतना का निर्माण जीवन दर्शन के विभिन्न आयामों से ही होता है । अपने गद्य में मुक्तिबोध ने स्पष्टतः प्रतिबद्धता को पक्षधरता का पर्याय मानकर स्वीकार किया है- “हम एक प्रवृत्ति है, एक धारा है- भावधारा, विचारधारा, जीवनधारा – और हम उसी धारा के अंग है । और हम इस धारा के पक्षधर है । और हम बिना इस पक्षधरता के अपने आपको अपूर्ण, मूल्यहीन और निर्थक पाते है ।” मुक्तिबोध का काव्य मार्क्सवादी दर्शन का सृजनात्मक रूप होते हुए भी पाठक को नारेबाजी या मात्र प्रतिबद्धता की सिद्धांतबाजी में नहीं उलझाता । उनका सृजन स्वयं अपने कवितापन में इतना पूर्ण है की उसमें मार्क्सवादी दर्शन के निष्कर्षो का समावेश होते हुए भी वह पाठक को बरबस कवी को प्रतिबद्धित चेतना के प्रति विश्वासी बना देता है । ‘प्रतिबद्धता’ की व्याख्या के सन्दर्भ में यहाँ ‘चाँद का मुँह टेड़ा है’ कविता संग्रह की पहली नाटकीय कविता ‘भूल गलती’ की कुछ पंक्तियों को देख सकते है-
” नामंजूर
उसको ज़िंदगी की शर्म की-सी शर्त
हठ इंकार का सिर ताने
–खुद मुख़्तार”
‘भूल गलती’ गलत और बेईमान व्यवस्था की प्रतीक है- इस व्यवस्था में भी ईमानदारी बेख़ौफ़ होकर अपने सिद्धांतो के प्रति गहरी निष्ठा से प्रतिबद्धित है । वह ज़िंदगी जो ऐसी व्यवस्था के सामने विवश बेजुबान हो जाये, समझौतापरस्ती को दोहरा व्यक्तित्व अपनाकर अपने व्यक्तित्व के विवेक ,उसकी स्वतंत्र चेतना को गलत व्यवस्था के प्रति समर्पित कर स्वयं मात्र कठपुतली बनकर रह जाये, ऐसा शर्मनाक जीवन कवि को स्वीकार नहीं ।
७. आत्मान्वेषण और आत्मद्वंद
जनवादी चेतना की प्राप्ति के लिए व्यक्ति की निजी चेतना का परिपक़्व व् परिपूर्ण होना अत्यावश्यक है । इस संशोधन था परिष्करण की प्रक्रिया काव्य में तीन स्तरों पर आती है- आत्मद्वंद , आत्मान्वेषण और आत्म परिचय । ‘ब्रह्मराक्षस ‘ शीर्षक कविता भी व्यक्ति के स्तर पर आत्मसंघर्ष को प्रस्तुत करती है । ‘ब्रह्मराक्षस’ व्यक्ति की बौद्धिक चेतना के प्रातिभिक ओज का प्रतीक है । यह चेतना अपने ज्ञान की परिपूर्णता के गर्व से प्रतप्त है । ऐसे व्यक्तित्व का ‘आत्मसंघर्ष’ एक अँधेरी बावड़ी के वातावरण के रहस्य में समाहित है । अपने इस आत्मचेतन तक पहुंचने के लिए मानसिक संघर्ष की प्रक्रिया का रहस्यात्मक चित्रण निम्न पंक्तियों में है- “
खूब ऊँचा एक जीना सांवला
उसकी अँधेरी सीढ़ियां
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की
एक चढ़ना औ‘ उतरना
पुनः चढ़ना औ लुढ़कना
मोच पैरों में
व् छाती पर अनेको घाव
दिमागी गुहांधकार का ‘औरांग उटांग’ शीर्षक कविता में आत्मचेतना से साक्षात्कार की प्रक्रिया का विश्लेषण है । ‘औरांग उटांग’ आत्मचेतना का प्रतीक है – मनुष्य के अपने ‘निजी यथार्थ’ का सही रूप है-
“मस्तिष्क के भीतर एक मस्तिष्क
उसके भी अंदर एक और कक्ष
कक्ष के भीतर
एक गुप्त प्रकोष्ठ और
कोठे के सांवले गुहांधकार में “
‘एक अंतर्कथा’ कविता भी एक आंतरिक तनाव को लिए हुए है- यह आंतरिक तनाव भी आत्मसंशोधन की प्रक्रिया है । इस कविता में व्यक्ति की आत्मचेतना ‘माँ’ का रूपक बांधकर प्रस्तुत हुई जो कवि-व्यक्तित्व को दायित्त्व बोध के प्रति सजग रखने का प्रयत्न करती है । कविता में नायक जब दायित्व से पलायन करता है तब ‘आत्मचेतना’ उसे डांटती हुई कहती है-
“तब देव बना अब जिप्सी भी-
केवल जीवन कर्तव्यों का
पालन हो न सके इसलिए
निज को बहकाया करता है ।”
निष्कर्षतः मुक्तिबोध की कविता में व्यक्ति के अस्तित्व संघर्ष के विविध आयाम हैं जिनमें वह गहराते पुरातन आदर्शों और आत्म-निर्वासन की त्रासजनक भूमिकाओं में स्वयं को तलाश रहा हैं । मुक्तिबोध की कविताएं समाज को बुराइयों की ओर घसीटने वाली, उसे खोखला बनानेवाली दुर्दांत शक्तियों को खींच कर सामने ले जाती हैं, राजनीति में चल रहे षढ़यंत्रों का पर्दाफाश कर देती हैं । मुक्तिबोध ने देश अभिव्यक्ति दी हैं- शायद ही कोई अन्य कवि इसे अपनी इतनी अधिक सफलता से, ईमानदारी से अभिव्यक्त कर सका हो ।
सहायक ग्रन्थ-
१. नयी कविता में वैयक्तिक चेतना – जवाहर पुस्तकालय , मथुरा
२. गजानन माधव मुक्तिबोध और उनका काव्य – डॉ. संजीव सिंह, जयभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
३. मुक्तिबोध का साहित्य एक अनुशीलन – शशि शर्मा, इन्द्रप्रस्ठ प्रकाशन
४. मुक्तिबोध का काव्य चेतना और मूल्य-संकल्प – डॉ. हुकुमचंद राजपाल , वाणी प्रकाशन , नयी दिल्ली
५. मुक्तिबोध रचनावली – नेमिचन्द्र जैन – राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली
६. एक साहित्यिक की डायरी – गजानन माधव मुक्तिबोध, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली