प्रगति चाहे देश की हो या समुदाय की उसमें भाषा की अहम् भूमिका होती है । भाषा न सिर्फ ज्ञान की संवाहक है वरन् देश की उन्नति एवं प्रगति की भी द्योतक है । ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर हम जान सकते हैं कि भारतवर्ष के धर्म, दर्शन, विज्ञान, चिकित्सा आदि विषयों की भाषा संस्कृत थी । हमारा जो कुछ श्रेष्ठ है, उत्तम हैं, रक्षणीय है वह इस भाषा के भण्डार में संचित किया गया है । संस्कृत भाषा मे साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरंतर होती आ रही है । आधुनिक युग मे हिंदी हमारे देश में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली या समझी जाने वाली भाषा है । इलेक्ट्रोनिक मीडिया द्वारा प्रदत्त विकसित जनसंचार, माध्यमों के अभाव में भी आजादी की लड़ाई के दौर से ही हिंदी को आम जनता तक पहुँचने का सबसे प्रभावशाली माध्यम माना गया और केशवचंद्र सेन से लेकर गांधी जी व चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जैसे अहिंदी भाषी नेताओं ने इसे अपनाया और इसकी वकालत की । जहां तक आम जनता तक अपनी बात पहुंचाने का सवाल है कमोबेश आज भी हिंदी की इस स्थिति मे कोई अंतर नहीं आया है । यहाँ तक कि भौगौलिक सीमाओं के पार विश्वपटल पर रखकर यदि उदारता पूर्वक देखें तो पाएंगे कि हिंदी अन्य भाषाओं से किसी मायने में कम नहीं तथा विश्व की कई भाषाओं और बोलियों के लुप्त होने के बावजूद हिंदी इस खतरे से बाहर है । यूनेस्को द्वारा प्रकाशित ‘एटलस ऑफ द लैंग्वेज़ इन जेंडर ऑफ डिसअपिअरिंग’ मे लेखक स्टीफन वर्म ने भी इस बात की पुष्टि की है । पर मात्र इसलिए कि किसी भाषा को बोलने वाले बहुत अधिक है या उसके लुप्त होने की संभावना नहीं है, कोई भाषा आधुनिक, प्रासंगिक या उपयोगी नहीं हो जाती । किसी भाषा की जीवंतता या सार्थकता इस बात मे है कि उसमें आधुनिक ज्ञान को समेटने, अपने को भयावह गति से बढ़ रही विज्ञान और तकनीकि प्रगति के अनुकूल बनाने, साथ ही उत्कृष्ट साहित्य रचना करने की कितनी क्षमता है । भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण के इस दौर मे जबकि विश्व की अधिकतर संस्कृतियाँ और भाषाएँ पश्चिमी या विशेष रूप से अमरीकी संस्कृति और अँग्रेजी भाषा के दबाव मे हैं ऐसे मे हिंदी भाषा की वास्तविक स्थिति और उसके विकास से जुड़े संदर्भों पर विचार करना आवश्यक है ।
आज के परिवेश मे संस्कृति, भाषा और सभ्यता पर विचार करने के लिए राज्य की सीमाएं अप्रासंगिक हो रही हैं । सूचनाक्रांति और संचार माध्यमों के प्रचार-प्रसार ने सम्पूर्ण विश्व को बहुत छोटा बना दिया है, साथ ही एक दूसरे पर हमारी निर्भरता बढ़ गई है । यद्यपि वैश्वीकरण कोई नई अवधारणा नहीं हैं केवल इससे जुड़े नारे या साधन नए दिखाई देते हैं । मानव समाज के इतिहास की दृष्टि से देखें तो ये अवधारनाएं पुरातन ही है । यात्रा, प्रवास, व्यापार और विस्थापन मनुष्य की सांझा सांस्कृतिक धरोहर के अंग कहे जा सकते हैं । रामायण और इलियड, पंचतंत्र और ईसप की समरूपताये मनवचेतना के वैश्वीकरण की लंबी उम्र बताती हैं । यूनिवर्सिटी या विश्वविद्यालय की अवधारणा शाब्दिक स्तर पर भी यह चेतावनी देती है कि शिक्षा के वैचारिक संसार की भौगौलिक सीमाएं तय करना बेमानी है । वस्तुतः उपनिवेशवाद भी एक प्रकार का वैश्वीकरण ही था जिसने व्यापार फैलाने के साथ-साथ उपनिवेशों की भाषा और शिक्षा पर स्थायी पकड़ बना कर ज्ञान और विधा के प्रत्येक क्षेत्र को अपनी परिधि मे ले लिया । आज आर्थिक साम्राज्यवाद और बाजरवाद के रूप में वैश्वीकरण का अधिक विकसित रूप ही हमारे सामने है । एक उपनिवेश के नागरिक रह चुके भारतियों के लिए वैश्वीकरण कोई नई खबर नहीं है परंतु हिंदी भाषा के संदर्भ में यह कुछ अटपटा लग सकता है और वह भी ऐसे प्रसंग पर बात करना नितांत फालतू हो गया है । यहाँ एक तथ्य को निरंतर ध्यान मे रखना होगा कि औपनिवेशिक काल से लेकर आज तक कुछ देशों का नक्शा और कुछ की सामाजिक स्थितियां थोड़ी बहुत बदली हैं लेकिन एक चीज बिलकुल नहीं बदली है वह है भाषा के प्रति साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी देशों और लोगों की मानसिकता । ये लोग भाषा को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं । चूँकि भाषा संस्कृति और ज्ञान की संवाहक है । अतः भाषा के साथ-साथ यह सब भी अस्त-व्यस्त हो जाता है और भाषिक समाज को अनपढ़, गंवार और जाहिल सम्पूर्ण साबित कर दिया जाता है । इस दृष्टि से 14 सितंबर 1949 में हिंदी अँग्रेजी के प्रयोग संबंधी 15 वर्ष के लिए किया गया समझौता भी वस्तुतः करोड़ों भारतियों को बेजुबान बनाने की साजिश ही थी ।
वैश्वीकरण के इस दौर मे बाजार की बहुत कम बात होती है । एक तरह से कहें तो पिछली शताब्दी बाजार पर आधृत शताब्दी रही है और आज के विकास की डोर उसके हाथ मे है । बाजार ने इस कालखंड को बनाया, सजाया-संवारा और जरूरत होने पर उजाड़ा भी । यह बाजार मोटे अनाज से हथियार तक किसी का भी हो सकता था और इसने समाज, सत्ता और संवेदना तीनों को नियंत्रित किया । बाजार हमारी भौतिक वस्तुओं जैसे कपड़े, गहने, भोजन, रहन-सहन को नियंत्रित करने लगा और भारतीय समाज की क्षेत्रिय विविधता को समाप्त कर मैक्डोनल्ड, डोमिनोस, कपड़ों के विदेशी ब्रांड रहन-सहन की मल्टीनेशनल कॉर्पोरेट शैली को उसने हम पर थोप दिया । विकलप के अवसर नदारद हो गए । भाषा का वैविध्य भी बाजार को अपनी राह का रोड़ा लगा होगा । दो सदी पूर्व तक दुनिया में दस हजार अधिक अपनी बात क़हता था । बाजार के लिए वह कठिन था कि हजारों की संख्या में मौजूद भाषा समाजों को एक ही बात समझाए । बाजार के लिए भाषा केवल संचार का माध्यम थी, उसे अधिक भाषाओं से दिक्कत थी क्योंकि पूरी दुनिया की एक भाषा होने से उसका काम आसान हो जाता । इसीलिए भारत मे अँग्रेजी को ज्ञान-विज्ञान-सूचना सभी की विकसित और समर्थ भाषा के रूप मे प्रस्तुत किया गया और हिंदी को दूसरे दर्जे की भाषा के रूप मे । भाषा के संक्षिप्तिकरण और सूचनापरकता के नाम पर उसमें से अलंकार, कहावटों, मुहावरों और अनेकार्थकता को धीरे-धीरे समाप्त करने का प्रयत्न हो रहा है ; क्योंकि बाजार केवल अपने उत्पाद से ही जुड़े अर्थ को ही संप्रेषित करना चाहता है । विविधता उसके लिए हानिकारक है । भाषा के विकास मे जनसंस्कृति और उसकी बोलियों का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि भाषा का इनके द्वारा सहज स्वाभाविक विकास होता है ।हिंदी में इस प्रवत्ति को खत्म करके उपसर्ग, प्रत्यय और तत्सम शब्दों की सहायता से एक नई कृत्रिम शब्दावली का निर्माण किया जा रहा है जो कि हिंदी के विकास में एक हद बाधक ही है । वैश्वीकरण के इस दौर में हिंदी का मूल संसार शायद कुछ और सिमटेगा परंतु बाजार की दृष्टि से प्रबल संभावना वाली हिंदी भाषा के नष्ट होने या समाप्त हो जाने का खतरा नहीं है हाँ ! जड़ों के कमजोर होने का डर है । इसका उदाहरण हम इन्टरनेट और एस एम एस पर भेजे जाने वाले संदेशों में रोमन लिपि के प्रयोग में देख सकते हैं ।
बाजार से जुड़ा एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व है संचार-माध्यम । इन संचार- माध्यमों ने उपभोग सामग्री के रूप में विश्व संस्कृति के प्रतीकों का प्रचार-प्रसार बड़े ज़ोर-शोर से किया है । इस प्रचार के परिणामस्वरुप उभरी छवियों के संसार में स्थानीय संस्कृति और भू-भाग सब मनचाहे तरीके से एक-दूसरे के निकट रखे नजर आते हैं । टीवी पर चौबीस घंटे प्रसारित होने वाले समाचार चैनल हों, कभी न देखे गए और सुने गए परिवारों की कहानी कहने वाले धारावाहिक हों अथवा इनको आर्थिक आधार प्रदान करने वाले विज्ञापन हिंदी भाषा का एक अलग रूप सामने आया है । स्टार टीवी के रूपर्ट मडोंक ने जब सभी तरह के कार्यक्रमों को हिंदी में तैयार करने को प्राथमिकता दी तो केवल देशी भाषा में अनुवाद की बात नहीं थी बल्कि इसके द्वारा विदेशी सांस्कृतिक छवियों को देशी मिजाज के अनुकूल गढ़कर पश्चिमी शैली की संस्कृति और हिंदी भाषा वाले कार्यक्रम पूरे देश में फैला दिए गए । बहुराष्ट्रीय संस्थान और विदेशी कम्पनियाँ भी बाजार में अपने उत्पाद स्थापित करने के लिए हिंदी में विज्ञापन का सहारा ले रही हैं रिलायंस का विज्ञापन कहता है ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’, पानी का विज्ञापन है ‘दिल मांगे मोर, पीओ प्योर’ आदि । परन्तु हिंदी-अंग्रेजी की खिचड़ी द्वारा भाषा का विकास संभव नहीं है ; उसे सिर्फ पोपुलर कल्चर का हिस्सा बनाया जा सकता है । साथ ही जिस जीवन शैली और मूल्यों को यह भाषा अभिव्यक्ति प्रदान कर रही है उसमें जीवन के सुखभोगों से वंचित जनता की मार्मिक स्थितियों की कोई छवि नहीं है, उनके जीवन का कोई तनाव मुखर नहीं हो पाता है । परन्तु देशी भाषा में होने के कारण व्यावसायिक दृष्टि से दर्शक वर्ग में वृद्धि और चैनल मालिकों की आय में बढ़ोत्तरी हुई है ।
संचार माध्यमों की दृष्टि से विश्वबाजार में कंप्यूटर, इन्टरनेट, वेबसाइट और सेलफ़ोनों का महत्वपूर्ण भूमिका है । परन्तु यहाँ भी अंग्रेजी वर्चस्व है । वस्तुस्थिति यह है कि नए सूचना समाज की 1% आबादी 99% आबादी को नियंत्रित करती है । हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की इन संचार माध्यमों में कोई स्थिति नहीं है । हिंदी के सॉफ्टवेयर नहीं के बराबर हैं क्योंकि उनका बाजार ही नहीं है । प्रिंटमीडिया में भी लगभग यही हालत है । यद्यपि अखबारों की प्रसार संख्या में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है फिर भी गुणवत्ता, विज्ञापन मूल्य आदि की दृष्टि से अंग्रेजी समाचार पत्रों का महत्त्व बरकरार है । मुख्य बात है कि मीडिया भाषा को केवल माल बेचने की भाषा बनाने में व्यस्त है । भाषा को उसके बुनियादी संस्कार से काट कर प्रयोग करना उसके विकास में बाधक है ।
यहाँ इस बात पर प्रकाश डालना आवश्यक है कि हिंदी की ऐसी स्थिति के पीछे क्या कारण है । वस्तुतः हमने हिंदी की अपनी सारी चिंता, मौलिकता और रचनात्मक ऊर्जा को साहित्य तक ही सीमित कर दिया है । उत्तर भारतीय हिंदी भाषा-भाषी समाज के ठहराव को उसकी अशिक्षा और अपनी भाषा से बढती दूरी के सन्दर्भ में देखने की जरूरत है । हिंदी में ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का अभाव विशेष रूप से उच्च शिक्षा के स्तर पर एक भयंकर अवरोध है । हिंदी भाषी समाज से सम्बद्ध विभिन्न अनुशासनों में किए जा रहे अध्ययन हिंदी माध्यम में न होकर अंग्रेजी में है । यह ठीक वैसी ही औपनिवेशिक मानसिकता है जिसके तहत पश्चिमी समाज विज्ञानी एशिया और अफ्रीका के समाजों का अध्ययन किया जा रहा है वे समाज उसके द्वारा किसी भी प्रकार लाभान्वित नहीं हो रहे हैं । विज्ञान और तकनीकी को छोड़ भी दें तो इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र, कृषि, वाणिज्य और अर्थशास्त्र जैसे विषयों तक पर मौलिक लेखन का नितांत अभाव है । इरफ़ान हबीब, शहीद अमीन, ज्ञानेंद्र पाण्डे आदि के इतिहास में किए गए मौलिक काम को देखें तो पूरी तरह अंग्रेजी में है और हिंदी भाषी के लिए अलम्य । यह प्रवत्ति वैश्वीकरण की ताकतों के लिए वरदान स्वरूप है । क्योंकि वैश्वीकरण की प्रक्रिया में जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ दबाव बना रही हैं, जो आर्थिक शक्तियां फैल रही है, अपने बाजार ढूंढ रही हैं, अपने मूल्य और संस्कृति फैला रही हैं उन्हें मदद मिलेगी । सब कुछ थाली में परोसा हुआ और अपना सामाज अन्धकार में फँसा वहीं का वहीं ठहरा हुआ । यह स्थिति हिंदी भाषा के लिए निराशाजनक ही है । निश्चय ही ज्ञान का माहौल बनाने के लिए पूरे भाषा समाज की सक्रियता जरूरी है ।
हिंदी भाषा के विकास के लिए किए जाने वाले सरकारी प्रयत्न बजट में सुनिश्चित धन राशि को खत्म करने तक ही हैं । उनमें सर्जनात्मक और मौलिकता सिरे से नदारद, है । किसी जमाने में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान की ग्रंथ अकादमियों इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया था और समाजविज्ञान तथा विज्ञान के कई मौलिक और अनूदित ग्रंथ छापे थे पर आज ये संस्थान पनी सार्थकता खो बैठे हैं । मीडिया ने हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार करने की प्रक्रिया में एक बाजारू भाषा बना दिया है । वस्तुतः वैश्वीकरण की इस लहर में यदि हिंदी भाषा की नौका को तैराना है तो आधुनिक ज्ञान के साथ उसे जोड़ना होगा, जनभाषाओं तथा अन्य भारतीय भाषाओं से शब्द लेकर उसके शब्दभंडार को समृद्ध बनाना होगा । सक्रिय कदम बढ़ा कर ही हिंदी भाषा को वैश्वीकरण की राह पर मजबूती से चलाया जा सकता है ।
डॉ. साधना शर्मा
श्यामा प्रसाद मुखर्जी महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली