तीसरे सप्तक के महत्वपूर्ण कवि ,प्रकृति और जीवन के उल्लास के गीतकार के रूप में कवि जीवन की शुरुआत करने वाले केदारनाथ सिंह की काव्य संवेदना अत्यंत विशिष्ट रही है | वे अपने समय के पारखी कवि हैं और उनका कालबोध ही उनके काव्य को हमेशा प्रासंगिक बनाए रखता है | केदारनाथ सिंह ग्रामीण परिवेश और स्वस्थ प्रकृति के बीच से स्वस्थ मानवीय संवेदना लेकर उठने वाले कवि है|
केदारनाथ जी प्रकृति के गंध ,रूप ,रस उसके सौन्दर्य के अंतर्गत जीवन की भावनाभूतियों को बिंंबित-प्रतिबिंबित करते चलते हैं | उनकी रचनाओं में आम्र मंजरियों की ,आहत बादलो की जिजीविषा,ऋतुओं के अलग-अलग गीत धूप की तीक्ष्णता सब कुछ समाहित है | केदार जी प्रकृति में मानवीय रिश्तों की परिकल्पना करके प्रकृति और मानवीय जीवन के अलगाव को तोड़कर समन्वित कर देते हैं | उन्होंने झील के माध्यम से आदमी की ख़ामोशी ,रुकना,हिलना ,मुड़ना आदि को अंकित किया है | परिवार में कुछ ऐसी आदिम व्यथा होती है |जो एक पीढ़ी चुपचाप सहती है | अगली पीढ़ी भी उसे मौन होकर स्वीकारती है | इस व्यथा को केदारनाथ जी प्रकृति और मानवीय संवेदना को समन्वित करते हुए कहते है :-
“संदेश वाहक मैं तुम्हारी चुप्पियों का हूँ
तुमने जो कहा नहीं
उस पर्वत शब्द को
अनन्त तक गुंजा दूंगा |” 1
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का कहना है कि केदारनाथ सिंह की कविताओं में नदी,नाले,फूल,जंगल ,तट-धूप,सरसों के खेत,धानों के बच्चे ,वन, सांध्यतारा ,बसंत, फागुनी हवा ,पकड़ी के पात ,कोयल की कूक ,पुरवा –पछुवा हवा ,शरद प्रात ,हेमंती राय ,चिड़िया,घास फुगनी आदि-बहुरूपी प्रकृति संसार रूपायित मिलेगा,उदहारण स्वरुप देखिए-
“ आदमी के जनतंत्र में
घास के सवाल पर
होनी चाहिए लंबी एक अखंड बहस
पर जब तक वह न हो
शुरूआत के तौर पर मैं घोषित करता हूँ
कि अगले चुनाव में
मैं घास के पक्ष में मतदान करूँगा
कोई चुने या न चुने
एक छोटी सी पत्ती का बैनर उठाए हुए वह तो हमेशा मैदान में है
कभी भी ……
कहीं से भी उग आने की
एक जिद है वह |” 2
केदारनाथ सिंह के कविता के तार हवा,सरसों,पुष्प, घर-दरवाजे ,खेत में लहलहाते धान ,ओस की बूंदेंं,आकाश के तारे ,सूर्य या यूँ कहिए प्रकृति जीवन के हर तत्व से जुड़े रहते हैं| कवि कविता का मानवीकरण करते हुए कहता है –
“ एक महान कविता
ऊबने लगती है
अपनी स्फुटिक गरिमा के अंदर|
पर मौसम चाहे जितना ख़राब हो
उम्मीद नहीं छोडती कविताएँ |
वे किसी अदृश्य खिड़की से
चुपचाप देखती रहती है
हर आते जाते को
और बुद-बुदाती है |
धन्यवाद-धन्यवाद !”3
कवि केदारनाथ सिंह बंदिशों के नहीं स्वतंत्रता के पक्षधर है | वे मनुष्य की ही स्वतंत्रता की बात नहीं करते बल्कि प्रकृति की भी स्वतंत्रता की बात करते हैं | वे प्रकृति की हर चीज को स्वतंत्र देखना चाहते हैं | वे प्रकृति के हर चीज की स्वतंत्रता की बात करते हैं-
“माटी को हक़ दो –वह भीजे,सरसे,फूटे,अखुंआए
इन मेड़ो से लेकर उन मेड़ो तक छाए
और कभी न हारे
यदि हारे
तब भी उसके माथे पर हिले
और हिले
और उठती ही जाए
यह दूब की पताका
नए मानव के लिए ! (हक़ दो )
कवि केदारनाथ सिंह अपनी सर्जना की सार्थकता और भिन्न-भिन्न प्रेरणाओं की तलाश प्रकृति के बीच से करते हैं | कवि बस प्रकृति के सौन्दर्य को ही नहीं निहारते बल्कि प्रकृति के कहर को भी झेलते हैं | प्रकृति चित्रण करते समय उनकी दृष्टि सूक्ष्म संवेदना पर भी केंंद्रित होती है | गाँव का किसान बाढ़ से घिरकर भी घबराता नहीं, वह चुप-चाप प्रतीक्षा करता है ,पानी के घटने की ,लेकिन जब उसे लगता है की पानी नहीं घट रहा है तो वह अपना सामान बैल या खच्चर की पीठ पर लादकर अन्यत्र निरापद स्थान की ओर प्रस्थान कर जाते हैं | ऐसा करते हुए उनके मन में किसी के प्रति कोई शिकवा-शिकायत नहीं रहती बल्कि नई परिस्थिति से लड़ने की उनमेंं शक्ति बनी रहती है | केदारनाथ जी चिलम के छेद में बची हुई आग के बिम्ब से इसी की ओर इशारा करते हैं-
“ मगर पानी में घिरे हुए लोग
शिकायत नहीं करते
वो हर कीमत पर अपनी चिलम के छेद में
कहीं न कहीं बचा रखते हैं
थोड़ी सी आग |”4
प्रकृति के प्रेमी केदारनाथ जी प्रकृति में आ रहे संकट को लेकर भी चिंतित नज़र आते हैं | प्राकृतिक तत्वों के अधिकाधिक शोषण के चलते प्रकृति को अधिक क्षति पहुंची है ,पूँजीवाद के प्रसार एवं अत्यधिक लाभ कमाने की ईच्छा में मनुष्य ने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया है| केदारनाथ जी प्रकृति में आ रहे संकट ,मिटते पर्यावरण को लेकर अपनी कविताओं में चिंतित नज़र आते हैं | वे अपनी कविताओं के जरिए समाज के बीच प्रकृति संबंधी प्रश्न बार-बार उठाते हैं |
केदारनाथ सिंह अपनी कविता संग्रह ‘यहाँ से देखो’ , ‘अकाल में सारस’ , ‘बाघ और अन्य कविताएँ’,’तालस्ताय और साइकिल’ आदि में प्रकृति में आ रहे भयानक संकट से साक्षात्कार करवाते हैं | ‘पानी की प्रार्थना’ कविता में पानी पूरी सिद्द्त के साथ प्रभु (सत्ता संचालकोंं) के सामने एक दिन का हिसाब लेकर खड़ा होता है और उस एक दिन के हिसाब में लुप्त होने के कगार पर पहुंचे पानी ने अपने पीछे कार्य कर रहे समूचे सत्ता ,पूंजीवादी तंत्र की पोल खोल दी है –
“पर यहाँ पृथ्वी पर मैं
यानि आपका मुंहलगा पानी
अब दुर्लभ होने के कगार तक
पहुँच चुका हूँ पर चिंता की कोई बात नहीं
यह बाजारों का समय है ,
और वहाँ किसी रहस्यमय स्रोत में मैं हमेशा मौजूद हूँ|”5
बाज़ार में पानी की उपलब्धता पर केदारनाथ सिंह प्रश्न खड़े करते हैं | केदारनाथ जी एक रहस्यमय स्रोत की ओर इशारा करते हैं जहाँ से ,प्रकृति की सबसे अनमोल चीज पानी ,लुप्त होने के कगार पर पहुँच जाने के बावजूद भी बाज़ार में पहुँच रहा है | कवि यहाँ पूंजीपति और सत्ता के गठजोड़ की ओर भी इशारा करते हैं | कवि को लगता है कहीं ऐसा तो नहीं की पानी को बाज़ार की वस्तु बनाने के लिए ही उसके प्राकृतिक श्रोतो को नष्ट किया जा रहा है | इस ओर इशारा करते हुए लिखते हैं –
“ पर अपराध क्षमा हो प्रभु
और यदि मैं झूठ बोलूं
तो जलकर हो जाऊं राख
कहते हैं इसमें
आपकी भी सहमति है |”6
हमने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का जमकर अपव्यय किया है इसकी ओर केदारनाथ सिंह बाघ और लोमड़ी के संवाद के माध्यम से संकेत करते हैं
“ क्या आदमी लोग पानी पीते हैं?
‘पीते हैं’ लोमड़ी ने कहा
पर वे हमारी तरह
सिर्फ सुबह शाम नहीं पीते
दिन भर में जितनी बार चाह
उतनी बार पीते हैं |”7
यह मूल समस्या है हम सुविधाओं के पीछे पड़कर सीमाओं का ध्यान रखना भूल जाते हैं | प्रकृति का विनाश करने में हम इस कदर लगे हुए हैं की आज हमारी प्रकृति हमारे ही हाथो सुरक्षित नहीं है ,पशु-पक्षी सुरक्षित नहीं हैं | विभिन्न पशु-पक्षी आज विलुप्त होते जा रहे है यह इस बात का प्रमाण है की हमने अपने उपभोग के लिए पशु-पक्षियों का अस्तित्व संकट में डाल दिया है | प्राकृतिक जीवों को पिंजरों में कैद करके हमने उन्हें उनके मूल आवास से विस्थापित कर दिया है और प्रकृति का नैसर्गिक संपर्क से कट जाने के कारण विभिन्न पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही |-
“हवा का
एक सुगंध भरा झोका आया
और बाघ जो कि उस समय कहीं पिंजरे में था
जरा सिहरा
शायद जंगल में आम पक रहे हैं
उसने सोचा|”8
कवि को डर है की अपने स्वार्थ में कहीं हम सारी प्रकृति को स्वाह न कर दे | कवि को डर है ,कहीं इस प्रकृति को संकट में डालते-डालते अपने अस्तित्व को ही समाप्त नहीं कर रहे :-
“पर मुझे एक और भी डर है
बाघ से भी ज्यादा चमकता हुआ डर
कि हाथ कहाँ होंगे
आँखे कहाँ होंगी जो पढ़ेंगी किताबे
प्रेस कहाँ होंगे जो उन्हें छापेंगे
शहर कहाँ होंगे जहाँ ढालेंगे टाइप|” 9
क्योंकि ये सब मनुष्य के अस्तित्व पर निर्भर करते हैं ,जब इन्हें बनाने वाले हाथ नहीं रहेंगे तब ये सब कहाँ ?केदारनाथ सिंह इस संकट की ओर समाज को आगाह करते हैं |
केदारनाथ जी ने अपने काव्य में प्रकृति के बारे में लिखा है | पर प्रकृति उनके यहाँ वनस्पति नामों की आरोपित ध्वनि नहीं है | प्रकृति लिखते-लिखते कब वह मनुष्य लिखने लगते पता नहीं चलता ? लिखना पहाड़ पर शुरू करते हैं और लिखा जाने लगता है श्रमिक –
“ विराट आकाश के जड़,वक्षस्थल पर
वे रख देते हैं अपना सिर
और देर तक सोते हैं
क्या आप विश्वास करेंगे
नींद में पहाड़
रात भर रोते हैं |”
इसी तरह बैल लिखते-लिखते वे कब किसान लिख देते हैं ,कि विस्मय होता है –
“वह एक ऐसा जानवर है जो दिन-भर
भूसे के बारे में सोचता है
रात भर
ईश्वर के बारे में |”
सौन्दर्य की शुरुआत करनी हो या किसी हकीकत को दर्शाना हो अपनी रहस्यमयी भाषा की आधारशिला वो यथार्थ की वैश्विक पृष्ठभूमि में रखते है और हमें चकित होना पड़ता है कि अरे यह भी सच है –
“ वे ताबड़ –तोड़ ,बाँध रहे हैं अपने बोझे
जैसे चुराये गए हों
सूरज की टाल से |”
जमीन में जब नाइट्रोजन और खनिजों की कमी होती है,तो कुछ पौधे ऐसे होते हैं,जो अपनी जड़े हवा में फेकते हैं| इसी तरह केदारजी को भी जब अपनी जमीन से अपेक्षित पोषण नहीं मिलता है,तो वे अपनी जड़ो को जीवन के विभिन्न दिशाओं में फेकते हैं | और यह प्रमाण है कवि की अदम्य जिजीविषा का कि समय का प्रदूषण भी अपनी जड़े फेक देते हैं और उसे उर्वर बनाकर पोषण पाते हैं-
“मैने देखा,वहां! उसकी झुर्रियों में
अब भी जगह थीं
अपना घोसला बना सकती है|”
यह जिजीविषा ही है कि एक बूढ़े ,उदास गड़रिये के झुर्रीदार चेहरे में भी वे एक महत्वपूर्ण कविता है ‘टमाटर बेचने वाली बुढ़िया ,जिसमेंं वह बुढ़िया के चेहरे की तुलना टोकरी से करते हैं| यहाँ वे श्रम ही नहीं देखते ,करुणा भी देखते हैं,जो अपने बेटे के लिए बुढ़िया के जेहन में है,जिसके लिए वह बोझ ढोती है और खुद टोकरी की तह जीवन को ढ़ोकर भी खाली रह जाती है –
“ मुझे टमाटरों की रोशनी में
उसका लहकता चेहरा दिखाई पड़ता है
यह माँ का चेहरा है |”
और यह लहक मात्र टमाटरों का प्रतिबिम्ब नहीं है| इन टमाटरों में उसके बेटे की छवि भी छिपी है | जीवन और प्रकृति में जरुरत से ज्यादा हस्तक्षेप केदार जी पसंद नहीं करते| केदारनाथ जी की एक कविता ‘धब्बा’ है| जहाँ वो रक्त के धब्बे की बात करते हैं जो किसी भी पीड़ित व्यक्ति का हो सकता है,जिसमेंं हत्यारे का चेहरा दमक रहा है और जो बीच सड़क पर पड़े करह रहा है, जिसे कोई सुन नहीं रहा है | यहाँ तक कि कराह सुखकर मर जाती है| काली हो जाती है | समय भी अपनी गति से उसके पास आता है | वह भी हत्यारे के पक्ष में उसे धोकर मिटा देता है ,ताकि हत्यारा पहचान में न आ सके-
“ अब बारिश खुश
कि उसने धो डाले धब्बे को
धब्बा खुश कि जैसे वह कभी सड़क पर
था ही नहीं |”
निष्कर्षता: हम कह सकते हैं की कवि केदारनाथ सिंह अपनी सर्जना की सार्थकता और भिन्न-भिन्न प्रेरणाओं की तलाश प्रकृति के बीच से ही करते हैं | प्रकृति चित्रण करते समय उनकी दृष्टि सूक्ष्म संवेदनाओं पर भी केन्द्रित होती है |
संदर्भ ग्रंथ सूचि :-
- मानव विश्वम्भर ,डॉ शर्मा रामकिशोर , आधुनिक कवि , लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद ,पृष्ठ-314
2. .सिंह केदारनाथ ,घास सृष्टि पर पहरा काव्य संग्रह ,राजकमल प्रकाशन ,नई दिल्ली 2014
3 .मानव विश्वम्भर ,डॉ शर्मा रामकिशोर , आधुनिक कवि , लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद ,पृष्ठ- 316
- मानव विश्वम्भर ,डॉ शर्मा रामकिशोर , आधुनिक कवि , लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद ,पृष्ठ-318
5 सिंह केदारनाथ ,तालस्ताय और साइकल ,राजकमल प्रकाशन ,नई दिल्ली 2005,पृष्ठ-9
6. सिंह केदारनाथ ,तालस्ताय और साइकल ,राजकमल प्रकाशन ,नई दिल्ली 2005,पृष्ठ-9
7.सिंह केदारनाथ,बाघ ,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2009 ,पृष्ठ-49
8. सिंह केदारनाथ,बाघ ,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2009,पृष्ठ-51
9, सिंह केदारनाथ,बाघ ,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2009
रणजीत कुमार सिन्हा
प्राध्यापक हिंदी विभाग ,खड़गपुर कॉलेज