हिजड़ा शब्द फारसी के ‘हीज‘ तथा हिंदी के स्वर्थिक प्रत्यय ‘ड़ा‘ से मिलकर बना है, जो पुल्लिंग संज्ञा है। इसे न तो स्त्री और न पुरुष के अर्थ में प्रयोग किया जाता है।समाज की संरचना तथा उसे आगे बढ़ाने में एक स्त्री-पुरुष का सहयोग रहता है। स्त्री-पुरुष हमारे समाज के दो ऐसे स्तंभ है। जिससे समाज निरंतर वृद्धि की ओर अग्रसर रहता है। स्त्री-पुरुष से इतर इस दुनिया में एक और लिंग विद्यमान है, जिसे हम ‘हिजड़ा’, ‘किन्नर’, ‘खोजा’, ‘नम्बर नौ’, ‘छक्का’ कहते है। शशिकांत के अनुसार ‘‘ हिजड़ा स्त्री या पुरुष जननांगों के स्पष्ट अभाव वाला वह शख्स है जो न तो स्त्री है और न पुरुष। इनमें सेक्स हारमोन के रिसाव की संभावना नहीं होती है।” पुनीत बिसारिया के अनुसार ‘‘ किन्नर या हिजड़ों से अभिप्राय उन लोगों से हैं, जिनके जननांग पूरी तरह विकसित न हो पाए हों अथवा पुरुष होकर भी स्त्रैण स्वभाव के लोग, जिन्हें पुरुषों की जगह स्त्रियों के बीच रहने में सहजता महसूस होती है।” क्या कभी हमने सोचा है कि ये लोग कौन है ?, कहाँ से आए है ?, यह हमारे समाज का ही हिस्सा है। परंतु हमारा सभ्य समाज इन्हें अपना कहने से साफ इंकार करता है। यह सिर्फ निश्चित लिंग लेकर पैदा नहीं हुए या बच्चे नहीं पैदा कर सकते। इसके लिए इन्हें इतनी बड़ी सजा दी जाती है। सभ्य समाज में कुछ स्त्रियाँ जो बच्चा नहीं पैदा कर सकती, जिन्हें बांझ कहा जाता है या कुछ पुरुष किसी कमी के कारण संतान उत्पन्न नहीं कर सकते, उन्हें समाज अंगीकार किये हुए है। परंतु प्राकृतिक मार झेल रहे इन किन्नर बच्चों को समाज की मार भी झेलनी पड़ती है। किन्नर स्त्री भी होती है और पुरुष भी। दोनों लिंगों में जन्में इन किन्नरों को अपने परिवार, माता-पिता से तिरस्कृत-बहिस्कृत होना पड़ता है। अपने परिवार से दूर विस्थापित हो इन्हें अपने समुदाय में ही रहना पड़ता है क्योंकि सभ्य समाज इन्हें हेय की दृष्टि से देखता है। इन हाशिये पर रह रहे किन्नरों के जीवन को लेकर समकालीन लेखकों का ध्यान गया है। इस कड़ी में नीरजा माधव का ‘यमदीप‘, महेन्द्र भीष्म का ‘किन्नर कथा‘, प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली‘ चित्रा मुद्गल का ‘ नाला सोपारा पोस्ट बाक्स न.२०३’ तथा निर्मला भूराड़िया का ‘गुलाम मंडी‘ आदि प्रमुख उपन्यास है। मैंने अपने लेख में निर्मला भूराड़िया का उपन्यास गुलाम मंडी को केंद्र में रखकर किन्नर समाज के रहस्यों से पर्दा हटाने का प्रयास किया है।
निर्मला भुराड़िया का बहुचर्चित उपन्यास ‘गुलाम मंडी’ २०१४ में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास का कथानक मजबूर स्त्रियों की जिस्म-फरोशी और महत्वकांक्षा तथा किन्नरों के जीवन का ताना-बाना बुनता है। लेखिका ने केवल दो अध्यायों के साथ हिजड़ों की समस्याओं, संघर्षो तथा उनके जीवन के कारुणिक दृश्य का मार्मिक चित्रण किया है। इन दोनों अध्यायों में हिजड़ा समाज में घटित एक-एक घटना अपने आप में किन्नरों के रहस्यों का पर्दा उठाता है। उपन्यास का पहला और आठवाँ अध्याय किन्नरों की समस्या तथा उनपर विचार करने के लिए पाठकों को विवश करता हैं। किन्नर नाम सुनते ही हमारे समक्ष मर्दों जैसी स्त्रियाँ अधिक मेकअप कर अश्लील इशारे, कमर मटका-मटकाकर ताली बजाती हुई दिखाई पड़ती है। परंतु क्या हम कभी इनकी वास्तविकता से रुबरु हो पाते है? हमारा समाज इन्हें हिकारत और घृणा से देखता है, जो जबरन पैसे ऐंठना कपड़े उठा नंगे होने की धमकी देना जैसी अश्लील हरकते करते है। इस उपन्यास के आरंभ में लेखिका ने किन्नर अंगुरी को ऐसी ही हरकत कपड़े उठा देने की बात करते हुए दिखलाया है। इसका बीच-बचाव करती हुई उपन्यास की नायिका कल्याणी इन किन्नरों को ऐसा करने से रोकती व समझाती है और तभी से ही अंगुरी और कल्याणी में मित्रता हो जाती है।
कल्याणी अंगुरी किन्नर के घर आई है और अंगुरी उसे बड़े प्यार से अपने डेरे को दिखाती हैं। उस डेरे में अचानक कव्वों की काँव-काँव सुनाई देती है। कल्याणी इधर-उधर देख परेशान होती है कि कौआ की आवाज घर के अंदर। अंगुरी समझ जाती है और उससे कहती है ‘‘ ‘बजरबट्टू की तरह क्या देखती हो दीदी, मेरे गुरु ने पाले है।‘ कल्याणी आश्चर्य से कहती है ‘पर कव्वे ?‘ इसका जवाब देते हुए अंगुरी कहती है ‘तो क्या तोता-मैना पालेंगी हम ?‘ ‘‘ यहाँ लेखिका तोता-मैना के माध्यम से इन किन्नरों की मानसिकता को व्यक्त करवाती है। तोता-मैना अर्थात स्त्री-पुरुष जो सभ्य समाज का हिस्सा है, परंतु ये कव्वे अर्थात किन्नर हमारे सभ्य समाज का अंग होते हुए भी समाज से बहिष्कृत है। यहाँ लेखिका ने कव्वें और किन्नरों को एक-दूसरे का पूरक और समाज से बहिस्कृत दिखलाया है। इस संदर्भ में अंगुरी के एक साथी का कहना है ‘‘ हमारी जात के तो ये ही हैं। हमारे सगे वाले। तुम लोग उनको दुरदुराते हो, हम मोहब्बत से पालते हैं।” इसमें किन्नरों की प्रेम और मानवता का वर्णन हुआ हैं। किन्नर कव्वे को भी अपने जैसा उपेक्षित, बहिष्कृत मानते है, जिस तरह सभ्य समाज इन किन्नरों को नहीं अपनाता उसी तरह इन कव्वों को भी। बड़े दुःख की बात है कि हमारा समाज व्यथित वर्ग किन्नर जो कि इंसान है, इन्हें नहीं अपनाता तो इन कव्वों की तो बात ही दूर हैं। लेखिका ने किन्नरों के भावनात्मक प्रेम का उल्लेख किया है। ये अपने जैसे तिरस्कृत प्राणी को भी अपने दिल और घर में जगह देते है। लेखिका कल्याणी के मुख से समाज की स्वार्थ भरी बातें कहलवाती है ‘‘ पर श्राद्ध के दिनों में तो हम कव्वों को ही खीर-पूरी खिलाते हैं। ‘‘ हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद होने वाला संस्कार श्राद्ध कहलाता है। मान्यता यह है कि श्राद्ध के दिनों में कव्वों को खाना खिलाने से मरने वाले पूर्वजों की आत्मा को शांति मिलती है। इसी कारण स्वार्थवश समाज कव्वों को खीर-पूरी खिलाता है। हमारा समाज इंसान तो इंसान इन कव्वों से भी अपना स्वार्थ निकाल लेता है। हमीदा सभ्य समाज के लालच और स्वार्थ पर व्यंग्य करती हुई कहती हैं ‘‘ श्राद्ध के दिनों में ही न स्वारथ रहता है न तुम्हारा ! आड़े दिन में जो कहीं कव्वा आकर बैठ जाए न तुम पर, तो नहाओगी-धोओगी, अपशगुन मनाओगी। जैसे हम ना तुम्हारे जो शादी-ब्याह हो तो नाचेंगी-गाएंगी, शगुन पाएंगी मगर यूं जो रास्ते में आ पड़ी ना हम, तो हिजड़ा कहकर धिक्कारोगी। ‘‘
उपन्यास में सामाजिक मानसिकता से परिचित किन्नर भी सभ्य समाज को घृणा और हिकारत से ही देखते हैं। सच भी यही हैं कि किसी बच्चे का जन्म या शादी-विवाह में लोग इन्हें शुभ मानकर अपने घर में आने की स्वीकृति देते हैं, इनके नखरे उठाते है और मुँह मांगा दाम देकर इन्हें खुशी-खुशी विदा करते हैं। परंतु ये कहीं दिख जाए तो इन्हें तिरस्कृत, अपमानित नज़रों से घूरते हुए इनका मजाक उड़ाते है। किन्नरों से बात करना तो दूर इन्हें देख अपने दरवाजे तक बन्द कर लेते हैं। यह समाज का स्वार्थ ही है, जो खुशी के अवसरों पर तो इन्हें खुश रखते है और बाकि दिनों में घोर पीड़ा, यातना और अछूतों सा व्यवहार करते हैं। उसी तरह हमारे सभ्य समाज के किसी घर में कव्वें नहीं पाले जाते। कभी छत पर आ भी जाए तो इन्हें भगा दिया जाता है परंतु श्राद्ध के दिनों में इन्हें ढूँढ़-ढूँढ़ कर उसे खाना खिलाया जाता है। हमारे समाज की बुद्धि इतनी विकसित हो गई है, जो हर वक्त अपना स्वार्थ और उन्नति चाहता है। बाकि किसी भी बातों से उसका कोई सरोकार नहीं है।
उपन्यास के माध्यम से लेखिका ने सामाजिक रुढ़ियों को दिखाया है। अंगुरी कल्याणी से कहती है ‘‘ पैर छुओं और अच्छा-सा एक आशीर्वाद अपने नाम कर लो। हिजड़ा गुरु का आशीर्वाद बहुत फलता है, वह भी सौ साल की गुरु। कई लोग आकर पैर छूकर जाते हैं इनके। ‘‘ किन्नर समाज को दुआएँ देते है, परंतु इसके अपेक्षा में समाज से मिलने वाली हिकारत, घृणा, अपमान, बहिष्कार इन्हें किस प्रकार मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाता है। यह हमारे सभ्य समाज के लिए शर्मनाक बात है कि किन्नरों को वह इतनी पीड़ा देने के बाद भी उनसे अपने लिए आशीर्वाद और दुआओं की उम्मीद रखता है। जबकि इन्हें सभ्य समाज से बहिस्कृत कर हाशिए पर रख दिया गया है। क्या किन्नर समाज इन्हें दिल से दुआ दे पाता होगा ?
लेखिका ने अध्याय आठ की शुरुआत हिजड़ों के गुरु विंदा की शव यात्रा से आरंभ की है। आरंभ में ही बताया गया है कि अमावश की रात थी सभी हिजड़े काली साड़ी पहने लंबे बालों को खुले किये तथा नंगे पैर विंदा गुरु के शव को स्केटस पहना चुपचाप चलाकर कब्रगाह ले जा रहे थे। कुछ हिजड़ों ने दफनाने का समान जैसे कुदाल, फावड़ा, किल-बिरंजी तथा एक टोकरी में धतूरे के हरे-हरे गोल-गोल ढेर सारे बीज ले जा रहे थे। शव के अलावा बाकि किन्नरों ने अपनी-अपनी चप्पलें एक डोरी से कमर में बाँध रखी थी। हिजड़े किसी भी धर्म के हो वह अपने शव को दफनाते ही है, जलाते नहीं। वह अपनी शव-यात्रा रात के सन्नाटे में ही तय करते है क्योंकि उनकी शव यात्रा कोई न देख न सकें। आजतक किसी ने किन्नरों की शव-यात्रा नहीं देखीं। इस उपन्यास में लेखिका शव को कब्र में पेट के बल लेटा बाकि हिजड़ों से उस शव को जूते-चप्पलों से पीटते हुए दिखलाया है ‘‘ लाश को उलटा रखकर उन सभी ने अपनी-अपनी कमर में बंधे जूते-चप्पल निकाल लिए और लाश को पीटना शुरु किया। इस कथन के साथ कि अगले जनम में हिजड़ा न बनना।”
क्या ऐसा नहीं लगता कि परंपरागत रुढ़ियों से ग्रस्त ये किन्नर मरने के बाद भी उस शव की दुर्गति कर देते हैं। जन्म से मृत्यु तक की यात्रा किन्नर दुःख, हिकारत, धिक्कार, दुत्कार, घृणा उपेक्षा से तय करता है और अब मरने के बाद भी उसे चप्पलों से पीटा जाए। क्या व अपनी खुशी से यह शरीर लेकर पैदा हुआ था? और क्या गारंटी है कि जूते-चप्पल से मार खाने के बाद वह किन्नर नहीं पैदा होगा? जबकि यह भी पता नहीं कि अगला जन्म होता है या नहीं? किन्नरों में प्राचीन काल से अबतक गुरु की प्रथा चलती आ रही हैं। गुरु के बिना ये किन्नर अपने आप को असहाय और अनाथ महसूस करते है। इसलिए ये किसी गुरु के मृत्यु होने पर कब्रगाह में ही अपने बीच से किसी को गुरु बना लेते है। किन्नरों की यह प्रथा है कि वह कब्रगाह में ही अपनी-अपनी कहानी सुनाते है चाहे वह घण्टें भर का हो या मिनटों का। ये अपने साथ लाए गए धतूरे के गोल-गोल फलों को एक-दूसरे में बाँटते है। सभी किन्नर अपने-अपने फलों में से एक-दो बीज खाते हैं। इनकी मान्यता है कि यह अपने फलों में से ही एक-दो बीज खाते हैं किसी दूसरे के फल से बीज नहीं ले सकते। और इस धतूरे के नशे में सब अपनी कहानी कहते हैं। हिजड़ों के दल की एक सदस्य अपनी कहानी सुनाती है ‘‘अरी मैं। तो कचरे के ढेर पर मिली थी। अब किसको मिली, यह तो नहीं पता। जिस उमर में आँख खुली तो अपने को वृंदा गुरु की छाँह में पाया और क्या ? ‘‘ अनारकली ने एक लाईन में अपना दुःखड़ा कह सुनाया। इस पर किसी अन्य किन्नर ने कहा कहानी थोड़ा और विस्तार में सुनाती। हम सबको एक-दूसरे की कहानी पता है, पर रस्म तो ढंग से निभाती। अनारकली इस पर थोड़ा विदक जाती है और अंगुरी से कहती है ‘‘ अब क्या बार-बार मेरे मुँह से सुनेगी हरामजादी कि मेरे को मेरी माँ ही फेंक गयी होगी घूरे पर, जब मूतने की जगह कोरा छेद देखा होगा तो। ‘‘
हमारे समाज की भारी विडंबना है कि वह एक शिशु जिसका कोई दोष नहीं सिर्फ वह एक निश्चित लिंग लेकर पैदा नहीं हुआ तो उसके माँ-बाप ही उसे कूड़ें में फेंक देते हैं। वह इतना भी नहीं सोचते कि और बच्चों की तरह यह मासूम भी एक इंसान है। जिसे उत्पन्न करने में माता-पिता का ही दोष है। स्त्री-पुरुष के खाँचें में न फीट होने वाले बच्चों के साथ जानवरों से भी बत्तर सलूक किया जाता है। ये किन्नर अपने दिल में दुःख और पीड़ा दबाए दुनिया को खुशियाँ बाँटते रहते है, परंतु कभी-कभी नशे की हालत में इनकी पीड़ा असहनीय हो जाती है। अब रमीला की बारी थी। वह बोली ‘‘ मेरी माँ तो मेरे को बहुत छुपा-छुपा के रखती थी, बचा-बचा के। कहीं टोली वाले न ले जाएँ उठा के। मैं घर मे हुई थी न। दाई ने नाल काटी बोलते। हस्पताल में हुई होती न, तो पहले दिन ही टोली को रिकार्ड मिल जाता था मगर घर में हुई न, तो मेरी माँ ने सबको बोला छोरा हुआ करके। किसी के सामने भी पोतड़ा नहीं खोला मेरा। भूल के बी न। करमजात दाई ने एक बार उगल दिया, जब तो मेरी स्कूल जाने की उमर हो गयी थी। मेरी माँ को मरे बारह दिन भी नहीं हुए कि वृंदा गुरु के चेले आ गये थे मेरे को लेने। ‘‘ इस पर हमीदा ने व्यंग्य से कहा ‘‘ बड़े मजे से कह रही है स्कूल जाने की उम्र हो गयी थी। कोई भरती करता क्या पाठशाला में ? पहले पूछते मेल कि फिमेल। ‘‘ सचमुच किन्नरों के लिए आज से पहले शिक्षा व्यवस्था का कोई प्रावधान नहीं था। जिसका होना नितांत आवश्यक था। परंतु अब किन्नरों के लिए सरकार ने शिक्षा-व्यवस्था का प्रावधान बनाया है। अब अनेक आवेदन पत्रों पर मेल-फिमेल के अलावा एक अन्य का कालम (किन्नर) होता है। परंतु यह शिक्षा-व्यवस्था कम ही क्षेत्रों में लागू हुई है। भारत में किन्नरों के लिए स्पेशल केरल और रायबरेली दो ही शहरों में स्कूल है। ऐसा क्यों ? क्या ये किन्नर इंसान नहीं ? क्या इन्हें शिक्षा प्राप्त करे का कोई अधिकार नहीं ? ये अनपढ़-गंवार बने अपने अधिकारों को माँगने से वंचित रहे। लेखिका ने हमारे समाज की क्रूरता को अंकित करते हुए शिक्षा व्यवस्था पर हमीदा से कहलवाया है ‘‘अपनी वो शर्मिला है न, छोरा बन के भरती हुई थीं, तो बहनजी ने एक दिन चड्डी उतरवा ली थी उसकी और जूते मार के स्कूल से निकलवा दिया था उसको। उमराव गुरु के कुनबे ने शरण दी। उसको वरना भूखी मर जाती वो भी। ‘‘ यह हमारा सभ्य समाज जिसे अपने-आप को सभ्य कहने में लज्जा तक नहीं आती। अगर कोई किन्नर बच्चा स्कूल जाए, तो उसे लज्जित, अपमानित कर स्कूल से निकाल दिया जाता है जैसे वह कोई खूंखार जानवर हो। ऐसा करने में शिक्षकों की भी भागेदारी होती है। इस समय वह अपनी शिक्षा तक भूल जाते है। यह शिक्षक वर्ग के लिए भी शर्मनाक बात है। शिक्षक तो बच्चों को उत्साहित कर एक उचित मार्ग दिखाता है, न कि उसे लज्जित, अपमानित कर स्कूल से निकलवा देता है। किन्नरों से इतर अन्य सभी वर्गों को आरक्षण और संवेदना प्राप्त है। इन किन्नरों को ही क्यों दुर-दुराया जाता है। लेखिका ने इस उपन्यास में उन किन्नरों की भी बात कही है जो अपनी नपुंसकता को कटवा मर्द से शान वाले किन्नर बन जाते हैं। किन्नरों का मानना है कि निर्वान कराने के बाद उनकी आशीर्वाद की शक्ति बढ़ जाती है। अंगुरी और रमिला ऐसे ही किन्नर है। रमीला कहती है ‘‘ पर अब सोचती हूँ तो लगता है, अच्छा ही हुआ ‘खरपतवार‘ निकल गयी, मैं कमजोर नामर्द से शान वाली किन्नर बन गयी। निर्वान हो गयी तो मेरे आशीर्वाद में ताकत आ गयी। मैं नाचने-गाने, कमाने लायक हो गयी।”
लेखिका यहाँ किन्नरों की विवशता उद्धरित करती है। वह बताती है कि किन्नर जिनके पास कोई रोजगार नहीं है। यह योग्यता होने के बावजूद भी नाच-गा, बधाई माँगने को विवश है। हमारे समाज को किन्नरों के लिए आगे आने की आवश्यकता है, जो इन्हें समाज के मुख्य धारा में शामिल कर सके। किन्नरों की इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अंगुरी ने अपनी कहानी सुनायी ‘‘ लोगों के घर बरतन माँजने गयी तो बोले, हिजड़े से बरतन मंजवाएंगे क्या? मैंने कह दिया, ‘…..से बरतन थोड़ी माँजते हैं, मांजते तो हाथ से ही है न। तो घराती ने थाने में रिपोर्ट कर दी कि हिजड़ा घर की औरतों को छेड़ रहा है। अश्लील बातें कर रहा है। पुलिस मुझे पकड़कर ले गयी। मारा भी और रेप भी किया। अब पूछों कानून के रखवाले से, भला हिजड़ों को पुरुष थाने में क्यों भेजते हैं। नहीं तो बनाएँ तीसरा थाना। नहीं क्या ?”
हमारे समाज की पुलिस व्यवस्था नैतिकता विहिन भक्षक होती जा रही है। जिस पुलिस को समाज की सुरक्षा का दायित्व दिया जाता है वहीं पुलिस समाज से सताए इन किन्नरों के साथ अभद्रता, अश्लीलता, अनैतिकता तथा बलात्कार जैसा घोर अपराध कर रही है। क्या हमारे कानून-व्यवस्था में पुलिस रुपी अपराधियों के लिए दंड देने का कोई प्रावधान नहीं है ? क्या सरकार इन्हें पुलिस की वर्दी इसलिए देती है कि ये मजबूर और बेबस किन्नरों का शोषण व बलात्कार कर सके। हमारी सरकार ने तो किन्नरों के लिए कोई जेल नहीं बनाया। इन्हें मर्दों के जेलों में ठूस दिया जाता है, जिससे वे इनके साथ अभद्रता कर सके। इस विषय में सरकार को सोचने की आवश्यकता है। और रहा हमारा समाज जिसे तनिक भी घृणा नहीं आती अपने-आप को सभ्य कहने में। वे किन्नरों से अपने बर्तन तक नहीं धुलवाना चाहते। ऐसा क्यों ? अगर हमारा समाज इन्हें नहीं अपनाएगा तो क्या ये कोई रोजगार कर पाएंगें और न ही सर उठाकर जी पाएंगे। अंत में रानी नामक किन्नर अपनी कहानी सुनाती है जो सबसे दर्दनाक थी। रानी बचपन से राजा बेटा थी उसकी लड़कियों जैसी इच्छाएँ थी। लिपिस्टिक-बिंदी लगाना, डांस सीखना, लड़कियों जैसे बाल कटाना और कपड़े पहनना। जो उसके परिवार को गवारा न था और उन्होंने उसे घर से बाहर निकाल दिया। राजा एक समलैंगिक पुरुष था। जो मनोज चायवाले से प्रेम करता था। अब उसकी पुरुषों की खोल में छुपी स्त्री कुलाचे मारने लगी थी। वह मनोज की इच्छाएँ एवं मनोज उसकी इच्छाएँ पूरे करते थे। राजा आपरेशन करा स्त्री बनना चाहता था। जब उसने यह बात मनोज को बताई तो वह खुन्नस खा गया। बोला “मेरे को तू छोकरा ही अच्छा लगता है, छोकरी चाहिए होती तो मेरे को एक नहीं, दस मिल जाती। ‘‘
एक दिन राजा के पास रोहित की फोटो पा मनोज उसे बेवफा समझ लेता है और ड्रग्स के नशे में राजा का पुरुषांग कटवा मात्र ७० हजार रुपयें में चमेली कोठे वाली को बेच देता है। यहाँ मनोज हमारे समाज का प्रतिनिधित्व करता है। वह इतना क्रूर और शैतान बन जाता है कि उसकी बेवफाई की सजा राजा को अपना पुरुषांग कटवा कर चुकानी पड़ती है। इस प्रकार समलैंगिक बच्चों को समाज और परिवार की प्रेम की आवश्यकता होती है। जिसका स्नेह पा वह अपने जीवन का सही निर्णय ले सके। आज ऐसे बच्चों के साथ परिवार को प्यार और समझदारी के साथ व्यवहार करना चाहिए ना कि उन्हें पीटकर घर से बाहर निकाल देना चाहिए।
अंत में यह कहना समीचीन होगा कि हिजड़ा समुदाय हमारे समाज का एक वंचित तबका है। जो सदियों से मुख्यधारा के लोगों द्वारा तिरस्कार और अपमान झेलता चला आ रहा है। आज आवश्यकता है, इन्हें मुख्यधारा में सम्मिलित करते हुए, इनकी स्वतंत्र पहचान को बनाए रखना।
पार्वती कुमारी
शोधार्थी
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली