(1)
सपने देखते देखते चुक जाता है
वुजूद,
जैसे चुक जाये
सूरज शाम ढलते न ढलते !
रास्ते चुक जाते हैं
मंज़िल तक पहुँचते पहुँचते
जैसे चुक जायें विचार
अपनी पूर्णता को छूते न छूते !
चुक जाता है प्यार
रिश्तों में
आत्मीयता ढूँढते ढूँढते,
जैसे चुक जाये धैर्य
खोई चीज़ें मिलते न मिलते !
इस से पूर्व कि चुक जायें
हमारे चेहरे
चलो अर्जित कर लें
मानवीयता
ताकि सौंप सकें अपने पुण्य का
कुछ अंश
आगामी पीढ़ी को !
(2)
बचा कर रखना
थोड़ी सी नमी
नि:शब्द आँखों के लिए !
बचा कर रखना
थोड़े से अर्थ
अव्यक्त शब्दों के लिए !
बचा कर रखना
थोड़ी सी जगह
जीवंत भग्नावशेषों के लिए !
बचाकर रखना
थोड़ी सी स्मृति
अचीन्हे पीछे छूटे हुए के लिए !
और बचा कर रखना
थोड़े से पल
अपने लिए भी !
बचा रखना यह सब !
जब निरभ्र आकाश से बरसती है
एक विकल अकुलाहट
और पड़ जाते हो नितांत अकेले,
पाओगे अपने साथ शेष
सिर्फ़ यही बचा हुआ !
(3)
कुछ तो है जो कि नहीं है
हमारे बीच !
जैसे रास्ते के दोनों किनारों बीच
ख़त्म हो जाये रास्ता !
और हम दौड़ते रह जायें
सिर्फ़ एक किनारे से दूसरे किनारे तक !
कुछ नहीं भी है जो कि
है हमारे बीच !
जैसे पुल के दोनों छोर पर
बहती हों अलग अलग दो नदियां
पुल के नीचे के ख़ालीपन से इतर !
इस होने और न होने के बीच
हम हैं तो ज़रूर
मगर जैसे सुबह और शाम के
बीच दिन हो लापता !
हम हो चुके हैं
गंतव्य तक पहुँचने से पहले ही
रास्तों में खो गई चिट्ठियाँ !
चलो न ऐसा करके देखते हैं…
एक बार
पहुँचा देते हैं अपनी अपनी चिट्ठियां
एक दूसरे तक
हाथ बढ़ा कर
अपने ही हाथों
ख़ुद हम ?
(4)
कभी इधर से गुज़रो
तो आना इधर भी !
रुक जाना कुछ पल !
महसूस करना
स्पर्श करते हुए
ठहरे हुए पानी का बासीपन !
चख लेना दो बूँद
आँसुओं का स्वाद !
देखते जाना एक बार
यहीं कहीं
पूर्व में खोई हुई
तस्वीरों के उतरे हुए रंग !
उड़ा जाना
अपनी ठोकरों से
बरसों से जमी धूल की परतें
उठा जाना मुद्दतों से थमा हुआ गुबार !
चूमते जाना
क्षण भर को
अर्से से स्थिर पलों की
उपेक्षित मासूमियत को !
ये जंगल कब से घिरे हुए हैं आग में
तुम्हारी राह तकते हुए !
(5)
तुम खटखटाओ तो सही
मैं कुंडी नहीं लगाता
खुल जाऊँगा
झाड़ बुहार कर रखता हूँ
भीतर !
तुम्हारे जूतों और चप्पलों में
लगे धूल कण इस जगह को किरकिरा न कर दें
कृपया बाहर ही छोड़ कर
प्रवेश करें !
यह मंदिर नहीं है
किंतु यहाँ मेरा आराध्य
स्थापित है…
प्यार !
धूल का नन्हा सा भी कण
पर्याप्त है
कलंकित करने के लिए !
पूजा नहीं करता मै अपने आराध्य की
धूप, दीप नहीं
पुष्प और अर्घ्य भी नहीं
नमन भी कैसा ?
वो समाहित है हर पल
मेरे स्पर्श में !
तुम स्पर्श तो करो
खुल जाऊँगा
कुंडी नहीं लगाता मैं !
(6)
तुम्हारी सिलसिलेवार यादों को
बेतर्तीब कर डाला है मैंने!
प्रेम एक शब्द है जैसे पानी
पानी प्यास मिटाता है जैसे जल पाप !
तुमने पानी का स्पर्श किया था
और मैं जल से तृप्त हुआ था !
इधर मैंने ख़ुद तक पहुँचना चाहा
किंतु बीच में एक ख़ालीपन मौजूद था
तुम्हारा परिचय मुझ से नहीं था
मेरे ख़ालीपन से था जिसने
मुझ तक नहीं पहुँचने दिया तुम्हें कभी !
अकेला नहीं था मैं
मै अपनी ख़ामोशी के साथ मुकम्मल था !
तुमने घोल दिये शब्द
और ख़ामोशी से बाहर पड़ गया मैं अकेला !
एक दूसरे से बिछड़ना
हो जाता है कभी कभी मिलने से पहले !
अपरिचित पलों में साथ साथ चलते हुए
एक दूसरे की परछाईं को लाँघ कर
किन्हीं आत्मीय रास्तों पर
हम साथ साथ बिछड़े थे !
फिर हम दोनों को याद आये
एक दूसरे के अपरिचित पल
सपनों के ढक्कन के नीचे बंद !
बहुत भारी थे,
वे ढक्कन हिला तक न सका
हम दोनों में से कोई भी !
यह एक सुंदर प्रेम कहानी है दोस्तो !
बेतर्तीब लेकिन सुखांत
अगर कोई इसे सिलसिलेवार पढ़ सके !
(7)
मेरी भी एक प्रेम कहानी है !
सुनोगे ?
लेकिन इस कहानी में
नहीं है प्रेम शुरू से अंत तक,
प्रेम है अंत के बाद और कहानी के बाहर…
धीमी धीमी आँच में पक रहे थे
हमारे अनिर्वचनीय शब्द
जो हमारी दग्ध साँसों को दे रहे थे
एक स्निग्ध स्वाद !
हम एक स्फटिक गंध में
स्नान करते हुए
बिल्कुल तरल हो बह गये और
हमारा वुजूद छूटा रह गया
कहीं पीछे !
रास्ते हमारे पीछे दौड़े आ रहे थे
और समय आतुर था
हमें पकड़ने के लिए!
गति स्वयं कन्फ्यूज़्ड थी
और हाँफते हुए लम्हों को
हाँक लगाते हुए
पीछा करती रही रास्तों और समय का !
हम संवादहीनता के सम्मुख
हुए साष्टांग!
अपनी लय में
गुम थे और स्थिर भी !
फिर हम
अखरोट की तरह सपनों को तोड़ते हुए
चबाने लगे और सितारे झरने लगे
हमारी अर्धोन्मीलित पलकों में!
अशेष शुभकामनाओं के
हरित लान में
हमने एक दूसरे के
अपरिचित पलों को
थामे रखा और रच डाला मायावी लोक!
अनपेक्षित ज्ञान से हम पहले ही
ले चुके थे विदा
और मुक्त थे अनर्गल सजगता से !
आकाशगंगाओं से सुमधुर सुर में
कोई गा रहा था
यह प्रेम है…
प्रेम!