1. आभा चली गई… (स्मरण अटल जी का)

बहुत दिनों से जूझ रही थी

 वो जालिम

आखिर सफल हो ही गई

अपने मकसद में

                                            और ले गयी वो निष्ठुर

सबके चहेते को

जो उसका भी

चहेता बनने लगा था

पिछले कुछ सालों से

पर, वह शनै : -शनै:

लेती रही आग़ोश में

आज हम सबको

बेहोश कर गई

और तन से छुड़ाकर

ज़िंदगी को ले गई

कर गई राजनीति को कंगाल

मंचों से छीन ली

जिसने

कविता की ताल

वो संसद की शे’रों शायरी

और वक्तृत्व का कमाल

उनके  जाने से

मानो प्रभा चली गई

इस कठिन समय में

राजनैतिक आभा चली गई…

 

2. प्रभात

तम रात बन

छाया रहा

बाहर भी अंदर भी

तन मन बदलते रहे

करवट

बाहर भी अंदर भी

 

पूरी भी हुई नींद,

कुछ पता नहीं

मुर्गे बोल गये सारे

बाहर भी अंदर भी

रंगोली बिखर गई

धरा पर चहुंओर

करो कुछ गौर

उत्साह का साम्राज्य

बाहर भी अंदर भी

समीर

शीतल मंद सुगंध

पुष्प

बिखेर रहे मकरंद

ओसकण

दमक रहे हर कंद

बाहर भी अंदर भी

हुआ अब

समझो सुप्रभात

खिल रहे

डाली डाली पात

पक्षियों की

चली दूर बारात

कुहूं के सबके मन मयूर

बाहर भी अंदर भी…

विश्वम्भर पाण्डेय ‘व्यग्र’
गंगापुर सिटी
राजस्थान

 

 

 

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