‘टीवी में दृश्य नहीं बोलते’- यह पढ़कर आपको अटपटा लग रहा होगा, आपको कुछ अजीब लग रहा होगा क्योंकि टीवी यानी टेलीविजन तो दृश्य माध्यम ही है जिसमें चलती-फिरती-घूमती तस्वीरें और दृश्य ही प्रमुख होते हैं। ऐसा माना जाता है और टीवी के जन्म से अब तक ऐसा ही माना जाता आ रहा है कि टीवी की सार्थकता दृश्य से ही है। लेकिन, हकीकत ऐसी नहीं लगती। खासतौर से न्यूज़ टेलीविजन यानी टीवी के समाचार चैनलों के मामले में अब टीवी के दृश्य पर केंद्रित और आधारित होने का सिद्धांत मृतप्राय ही है। यह बात जल्दी गले नहीं उतर सकती कि दृश्य के बगैर टीवी का क्या मतलब। लेकिन, कभी टीवी के समाचार चैनलों को ध्यान से देखिए और सोचिए, तो यह बात आसानी से समझ में आ सकती है।
टीवी की पैदाइश भले ही दृश्य माध्यम (Visual medium) के रूप में हुई, लेकिन आज के दौर की एक बड़ी सच्चाई यही है कि टीवी अब दृश्य माध्यम नहीं रहा। तो सवाल उठता है कि आखिर अब टीवी क्या हो गया है? टीवी को किस रूप में समझा जाए? समाचार चैनलों के संदर्भ में बात करें, तो टीवी अब शब्दों का माध्यम होकर रह गया है, टीवी अब ध्वनि का माध्यम होकर रह गया है। यानी वही काम जो पहले अखबार और रेडियो कर रहे थे, अब टीवी भी करने लगा है। ऐसा क्यों? ऐसा कैसे हो गया? जब भी जेहन में टीवी देखने की बात उठती है, तो दिमाग में दृश्य ही उभरते हैं। हमारी मानसिक बनावट टीवी को दृश्य से ही जोड़कर देखती है। लेकिन, जरा गौर कीजिए, टीवी पर अब दृश्य कहां दिखता है? दिखते हैं तो टेक्स्ट, दिखते हैं ग्राफिक्स, दिखते हैं एंकर्स के चेहरे, दिखती हैं डिबेट करनेवाली शख्सियतें- ज्यादा से ज्यादा समय तो यही सब दिखते हैं टीवी पर। क्या एंकर्स, डिबेटर्स, ग्राफिक्स और टेक्स्ट को ही वह दृश्य माना जा सकता है, जिन्हें दिखाने के लिए टीवी बना था? ऐसा नहीं कह सकते कि 24X7 चलनेवाले टीवी के समाचार चैनलों पर सिर्फ टेक्स्ट, ग्राफिक्स, एंकर्स और डिबेटर्स ही दिखते हैं, लेकिन जैसा पहले बताया गया है, ज्यादातर समय तक यही दिखते हैं और इनका काम होता है उन दृश्यों की व्याख्या करना, जो असल में टीवी का केंद्रीय तत्व हैं।
तो फिर दृश्य कहां गए? सैद्धांतिक तौर पर माना तो यही जाता है कि टीवी जैसे विजुअल मीडिया में दृश्य खुद अपनी कहानी कहते हैं, या दृश्यों के माध्यम से ही खबर बतानी चाहिए, क्योंकि दृश्य अपने आप में ही खबर होते हैं। और सच्चाई भी यही है कि दृश्यों से ही खबरें बनती हैं, अक्सर दृश्य खुद ही खबर होते हैं। सवाल यह है कि जब दृश्य खुद ही खबर होते हैं, तो फिर टीवी पर उनकी व्याख्या करने की जरूरत ही क्या है? आखिर उनके बारे में एंकर को कुछ बोलने की क्या जरूरत है, उनके साथ टेक्स्ट की पट्टियां दिखाने की क्या जरूरत आ पड़ी? बुनियादी तौर पर यह माना जाता है कि अमुक खबर से जुड़े दृश्य का संदर्भ बताने के लिए टेक्स्ट की पट्टियों और एंकर्स के इंट्रो को टीवी पर दिखाना जरूरी है। लेकिन, पानी अब सिर से ऊपर जा रहा है। अब दृश्य गौण होते जा रहे हैं, टीवी स्क्रीन पर उनकी व्याख्या करनेवाली टेक्स्ट पट्टियों और एंकर की जोरदार आवाज का वर्चस्व बढ़ गया है और यही वजह है कि अब कहना पड़ रहा है- टीवी में दृश्य नहीं बोलते, शब्द बोलते हैं, जो टेक्स्ट के सहारे और एंकर्स की आवाज के सहारे पेश किए जाते हैं। और स्थिति ऐसी बन चुकी है कि टेक्स्ट और एंकर ही अब दृश्य बन चुके हैं, वो दृश्य जिनसे खबरें निकलती हैं, उनका सफाया होता जा रहा है।
सवाल है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों बनी है जिससे टीवी से दृश्य का वजूद ही मिटता जा रहा है या फिर टेक्स्ट और एंकर्स की मौजूदगी उन्हें ढंक रही है? इसकी कई वजहें हो सकती हैं। पहले तो यह समझना जरूरी है कि टीवी किसी दृश्य को खबर के रूप में कैसे लेता है। टीवी के लिए एक पूरी घटना भी खबर हो सकती है और उसके एक छोटे-से हिस्से को भी खबर बनाया जा सकता है। यहां यह भी गौर करना चाहिए कि टीवी पर खबरें प्रसारित करने के दो आयाम हैं- एक तो खबर का प्रसारण और दूसरा प्रसारण के लिए खबर बनाना। पहले तो कोई भी खबर जैसे भी है, यानी उसमें खबरों के मूलभूत तत्व हैं, तो वह प्रसारित हो सकती है। और दूसरे किसी घटना, किसी जानकारी या किसी दृश्य को खबर के रूप में ढालने की प्रक्रिया है, जिसके जरिए कोई भी खास दृश्य खबर बन सकता है। और यह प्रक्रिया इतनी खतरनाक है कि अक्सर दृश्य को ही खा जाती है। उदाहरण के लिए किसी इलाके से बाढ़ की विभिषिका के दृश्य टीवी पर प्रसारण के लिए आते हैं। उन दृश्यों (visuals) में एक विजुअल ऐसा भी होता है जिसमें कोई गाड़ी बाढ़ में तिनके की तरह बह रही होती है। तो टीवी के न्यूज़ प्रोड्यूसर का पूरा ध्यान उसी खास दृश्य पर केंद्रित हो जाता है और वह अपने बुलेटिन के दर्शकों को तिनके की तरह बह रही गाड़ी का किस्सा प्रमुखता से दिखाना चाहता है। अक्सर ऐसा होता है कि इस तरह के दृश्यों की अवधि (Duration) बहुत छोटी होती है, लेकिन काफी छोटा-सा, महज कुछेक सेकेंड का वह दृश्य बेहद दमदार होता है, तो टीवी पर उसके प्रसारण को अधिक समय तक जारी रखने की कोशिश की जाती है। उस एक दृश्य के सामने बाढ़ के अन्य तमाम दृश्य गौण हो जाते हैं। पर समस्या यह है कि चंद सेकेंड के एक दृश्य को टीवी के बुलेटिन में 5 मिनट से आधे घंटे तक खींचा कैसे जाए, जब तक कि उसके अन्य एंगल की तस्वीरें मौजूद न हों। तो इसका उपाय यही होता है कि टेक्स्ट, ग्राफिक्स और एंकर के जरिए उक्त घटना के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी दी जाए, उसका विश्लेषण किया जाए..और यह सारा काम तो शब्दों के सहारे ही होता है, जो टेक्स्ट में लिखे जाते हैं, एंकर के मुख से बोले जाते हैं। और इसका इतना विस्तार हो जाता है कि फिर पर्दे पर दृश्य गौण ही हो जाता है, टेक्स्ट और एंकर ही प्रधान हो जाते हैं। हालांकि, सारा जोर फिर भी उस एक दृश्य पर ही होता है जिससे खबर पैदा होती है, लेकिन खबर की चीरफाड़ में उस दृश्य का और उससे जुड़े बाढ़ के अन्य दृश्यों का कबाड़ा ही हो जाता है, क्योंकि बाकी कुछ दिखाने का समय ही नहीं रहता। इस कवायद के पीछे मानसिकता यही रहती है कि अमुक दृश्य सबसे दमदार है, तो वही दर्शकों को सबसे ज्यादा आकर्षित भी करेगा। कई बार ऐसा होता भी है। खासतौर से क्षणों में हुए हादसों के लाइव दृश्यों के मामले में ऐसा देखा जाता है कि हादसे का क्लाइमेक्स यानी समझ लीजिए कि दो कारों की टक्कर और उसके तत्काल बाद के घटनाक्रम की तस्वीरें ही सारी कहानी कह देती हैं। परंतु, सवाल यह भी है कि क्या खबर उतने तक ही रहती है? अगर खबर का बैकग्राउंड और उसके असर को बयान करना ही है, तो अन्य दृश्यों का भी इस्तेमाल करना चाहिए। हालांकि, आमतौर पर न्यूज़ प्रोड्यूसर यह भूल जाते हैं कि दर्शकों को समग्रता में खबर दिखाना भी जरूरी है अन्यथा वे ऊब कर दूसरे चैनलों का रुख कर सकते हैं।
कई बार ऐसा भी होता है कि रिपोर्टर्स या एजेंसी की ओर से इतनी कम अवधि के दृश्य चैनलों को भेजे ही जाते हैं कि शब्दों के जरिए उनकी हत्या करने के अलावा शायद और कोई उपाय नहीं बचता। 24 घंटे चलनेवाले टीवी चैनलों के लिए कम अवधि के विजुअल यानी दृश्य बहुत बड़ी समस्या हैं, जो न्यूज़ प्रोड्यूसर्स को लाचार कर देते हैं। सिर्फ 15-20 सेकेंड की अवधि के दृश्यों पर आधारित 3-4 मिनट के पैकेज या आधे घंटे के शो/प्रोग्राम का निर्माण टीवी चैनलों के न्यूज़ प्रोड्यूसर्स के लिए बड़ी चुनौती होता है। ऐसे में शब्दों का खिलवाड़ ही इस चुनौती से निपटने के लिए उनके काम आता है। भले ही इस प्रक्रिया में दृश्यों की बलि क्यों न चढ़ जाए। भारत में टीवी के समाचार चैनलों में कम से कम दृश्यों के जरिए बड़े से बड़े कार्यक्रमों का निर्माण बहुत आम हो चुका है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में लैंडस्लाइड और टूटती चट्टानों के दृश्य गवाह हैं। पल भर में हंसते-खेलते आबाद इलाकों को बर्बाद करनेवाले चंद सेकेंड के दृश्य टीवी के समाचार चैनलों पर खूब दिखते हैं। दर्शकों को साधने के लिए टीवी चैनल ऐसे ही दमदार दृश्यों से ‘खेलना’ पसंद करते हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि बेहद छोटी अवधि के ‘दमदार दृश्य’ सिर्फ अपने बूते तो चैनलों का पेट भर नहीं सकते। ऐसे में शब्दों का ही सहारा लेना पड़ता है जिनके आगे दृश्य कमजोर पड़ जाते हैं। यह स्थिति व्यावहारिक भले ही हो, और खूब प्रैक्टिस में हो, लेकिन उपयुक्त तो बिल्कुल नहीं मानी जा सकती, क्योंकि ऐसी हालत में दृश्यों के साथ समझौता करना पड़ता है, जो विजुअल मीडिया के सिद्धांतों से मेल नहीं खाता।
तीसरी जरूरी बात है खबरों से खिलवाड़ की। कहने का मतलब यह है कि इन दिनों न सिर्फ अखबारों में और सोशल मीडिया पर, बल्कि टीवी के समाचार चैनलों पर भी खबरों से खिलवाड़ का चलन इतना बढ़ चुका है जिसके चलते टीवी पर दृश्यों का कोई मतलब ही नहीं। खबरों के प्रसारण के क्रम में दृश्यों का मनमाने ढंग से इस्तेमाल किए जाने के आरोप टीवी चैनलों पर लगते रहे हैं। खबरिया चैनलों पर दृश्यों और उनके हिस्सों का मनमाने तरीके से अर्थ निकालने और उनका विश्लेषण करने के भी आरोप लगते रहे हैं। ये सब कुछ तो शब्दों के सहारे ही होता है। यदि किसी महिला से बलात्कार की खबर से जुड़े वीडियो चैनलों के पास आते हैं, तो तमाम चैनल अपने-अपने ढंग से उस खबर को पेश करते हैं। यानी, चैनलों के लिए सिर्फ महिला से बलात्कार भर ही खबर नहीं, बल्कि उसके अलावा उस घटना के और भी आयाम खबर के रूप में पेश किए जा सकते हैं। निर्भर करता है कि कोई चैनल आखिर क्या दिखाना चाहता है, वह पीड़ित महिला की पीड़ा बयान करना चाहता है, या घटना के कारणों का विश्लेषण करना चाहता है, या कि सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहता है, या कुछ और बताना चाहता है- इन्हीं बिंदुओं से जुड़े मकसद को पाने के लिए एक दृश्य का उपयोग किया जाता है, जो खबर के केंद्र में हो, लेकिन, प्रसारण के दौरान बातें तमाम होती हैं, कई बार दर्शक यह भी नहीं समझ पाते कि जो दृश्य बार-बार दिखाया जा रहा है, आखिर उसकी खबर क्या है। इस तरह के बहुत से उदाहरण आए दिन देश में टीवी के समाचार चैनलों पर प्रसारित होनेवाली खबरों में देखे जा सकते हैं।
तो कुल मिलाकर हो ये रहा है कि खबरों की बाल की खाल निकालने के चक्कर में दृश्य शब्दों के समंदर में डूब जाते हैं। अक्सर ऐसा भी होता है कि टीवी चैनलों पर किसी खबर पर लाइव डिस्कशन और डिबेट होते हैं, गर्मागर्म चर्चा और बतोलेबाजी होती है, लेकिन, खबर से जुड़े दृश्य बिल्कुल नदारद होते हैं। सोशल मीडिया के तेजी से बढ़े चलन के साथ ही इन दिनों ट्विटर भी खबरों का बड़ा स्रोत बनकर उभरा है। अक्सर ट्विटर पर जारी होनेवाले बयान भी खबरों के रूप में पेश किए जाते हैं जिनमें दृश्य तो होते ही नहीं, सिर्फ शब्द ही शब्द होते हैं। वहीं, शब्दों से बनी खबरों पर बात करने के लिए स्क्रीन पर नज़र आते हैं सिर्फ चंद जानेमाने शख्स, खूबसूरत एंकर और टेक्स्ट्स की भीड़ से सजे ग्राफिक्स। एक छोटे से ट्वीट से बड़ी-बड़ी खबरें बन जाती हैं जिनका वास्ता किसी ऐसे दृश्य से नहीं होता, जो टीवी के लिए जरूरी हो। अब चुंकि टीवी तो खबरें पेश करने का माध्यम है, तो उसके लिए दृश्य भी जरूरी हो, ऐसा नहीं लगता।
- आज कल हिंदुस्तान में यही टीवी का चेहरा है, जहां दृश्य का होना न होना बराबर है, क्योंकि दृश्य माध्यम होते हुए भी लगता है यहां टीवी बन गए हैं अखबार, जिनमें वाद-विवाद और संवाद के लिए पर्याप्त जगह होती है, दृश्य और तस्वीरों की अहमियत नहीं के बराबर होती है। टीवी में भी अब यही हो रहा है। और ऐसा नहीं है कि भारत में टीवी की यह तस्वीर नई है। दरअसल भारत में जब टीवी की शुरूआत हुई थी, तब भी यही स्थिति थी। आकाशवाणी के संसाधनों के सहारे भारत में शुरु हुआ दूरदर्शन अपने शैशवकाल में तो जैसे रेडियो का ही दूसरा रूप था। तकनीक और संसाधनों के विकास के बाद स्थिति में बदलाव जरूर आया और प्रसारण में तमाम नए प्रयोग देखने को मिले। लेकिन आधे-एक घंटे से चौबीस घंटे तक के प्रसारण के सफर में खबर के लिए दृश्य जरूरी हो, ऐसा कभी नहीं लगा। अब भी दृश्य ना भी रहे, तस्वीरें ना भी हों मौजूद, तो भी खबरें तो बन ही जाती हैं क्योंकि शब्द तो हैं ही, शब्दों को दिखाने का जरिया (ग्राफिक्स और एंकर) हैं ही। तो कहना न होगा कि टीवी में दृश्य नहीं बोलते, शब्द ही बोलते हैं, वही समय की आवाज को तौलत हैं।