विद्यासागर नौटियाल जी यथार्थवादी लेखक के रूप में भी जाने जाते हैं। प्रेमचन्द की लेखन परम्परा के समान ही नौटियाल जी की भी लेखन कला है। वह भी प्रेमचन्द की भाँति समाज की स्थिति को यर्थाथता के साथ चित्रित करते हैं। नौटियाल जी का उपन्यास ‘सूरज सबका है’ में उन्होंने गोरखी, अंग्रेजी एवं रियासती सत्ता द्वारा आम प्रजा के साथ हुए शोषण, अत्याचार, यातनाएँ आदि का यथार्थपरक बेबाकी चित्रण किया है। उस समय गढ़वाल में उठते विरोधों का इसमें चित्रण किया गया है। इसे राजनीतिक उपन्यास भी कहा जा सकता है क्योंकि यह राजनीति के विविध पहलूओं को परत-दर-परत खोलता चलता है। इस विषय का उद्देश्य टिहरी गढ़वाल में शोषकों द्वारा किए गए अपराधों का यथार्थता के साथ चित्रण करना रहा है।
प्रत्यक्ष अथवा ज्ञान का हु-ब-हु उसी रूप में चित्रण यथार्थ कहलाता है। जो जैसा है उसे उसी रूप में चित्रित करना यथार्थ है। यथार्थ, यथा अर्थ दो शब्दों का मेल है। जिसका अर्थ वास्तविकता, सत्य आदि है। अंग्रेजी में इसके लिए त्मंस (विशेष) शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘‘यथार्थ का अर्थ उन स्वानुभूतियों से ग्रहण किया जाता है जिसको किसी प्रकार के दुराव या मोह से पृथक होकर स्वीकार किया जा सके।’’1
राजपाल हिन्दी शब्दकोष में यथार्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है- जैसा होना चाहिए ठीक वैसा (जैसा यथार्थ दर्शन), वाजिन उचित (जैसे यथार्थ चित्रण), सत्यपूर्वक, वास्तविकता, सत्यता, सच्चाई पर आधारित।2
मेगा हिन्दी शब्दकोष के अनुसार- सत्य ठीक, जैसा होना चाहिए वैसा, जैसा का तैसा, ठीक सत्यता।’’3
डॉ॰ रामदरश मिश्र का यथार्थ के विषय में मत है- यथार्थ की पहचान दो
स्तरों पर हुई है- ‘‘एक तो समकालीन जीवन में लक्षित होने वाले सम्बन्धों, प्रसंगों, समस्याओं, घटनाओं, हलचलों आदि की स्वीकृति के स्तर पर, दूसरे इन समस्त संबंधों, प्रसंगों, समस्याओं, घटनाओं, हलचलों आदि के मूल में कार्य करने वाली केन्द्रवर्ती चेतना की समझ के स्तर पर। वास्तव में यथार्थ दृष्टि एक-दूसरे में ही दिखाई पड़ती है। प्रयोग की दृष्टि पर खरा उतरने वाला वह पदार्थ ही यथार्थ है।’’4
डॉ॰ योगेन्द्र प्रताप सिंह के अनुसार, ‘‘यथार्थ का सम्बन्ध जागरूक आत्मचेतना से है। इस जागरूक आत्मचेतना की परिस्थिति है किसी भी व्यावहारिक सन्दर्भ को यथावत् स्वीकार करना, इसके लिए अपेक्षित है। आदर्श की स्थिति में जिस व्यावहारिकता के यथार्थ को कटु सत्य, असंगति, अनैतिकता आदि के रूप में देखते हैं। यथार्थ की स्थिति में उन्हीं को अनिवार्य संगति के रूप में स्वीकार करना पड़ता है। वस्तुतः आदर्श की स्थिति व्यापक निष्ठा और उसके संस्कार की है जबकि यथार्थ घटित सत्य का यथार्थ है।’’5
इस प्रकार यथार्थ सत्य का प्रतिरूप है। यथार्थवाद 19वीं सदी से आरम्भ माना जाता है। इसकी पहली रचना ‘फलावेयर’ की ’मादाम बावेरी’ (1857) मानी जाती है और प्रथम उपन्यास ‘दातोवस्की’ का ‘पुअर पीपल’ माना जाता रहा है। इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए प्रेमचन्द का नाम आता है जो पूर्ण सशक्ता के साथ स्फुटित होता दिखाई पड़ता है और इसी प्रकार विद्यासागर नौटियाल जी ने भी ‘सूरज सबका है’ उपन्यास में यही यथार्थवादी प्रवृत्ति उजागर करने का प्रयास किया है, जो निम्नवत् है-
रियासती सत्ता ने गढ़वाल की रक्षा करने वाले वीर भड़ों को सर झुकाने के लिए बाध्य किया। उनका मानना था कि अगर वे रियासती सत्ता की इच्छानुसार चलेंगे तो सदैव खुश रहेंगे परन्तु विपरीत की स्थिति में उन्हें विभिन्न प्रताड़ना प्राप्त होगी। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण दृष्टव्य है- ‘‘भड़ों को सैन्य शक्ति के बल पर अपनी अधीनता में लाने वाले राजा गढ़वाल का सन्देश- अधीनता स्वीकार कर लो, राज करते रहो। काफू का जवाब- जो सर झुक जाता है वह राज नहीं कर सकता।’’6
सत्ता के अपने वर्चस्व के कारण चारों ओर तबाही मची हुई थी। कोई भी आमजन की रक्षा करने वाला अब नहीं बचा था। काफू भड़ों को भी सत्ता द्वारा समाप्त कर दिया था। स्त्रियों के प्रति भी विभिन्न अत्याचार अपनी शक्ति के बल पर किए जाते थे। जो प्रत्येक व्यक्ति के जहन में विद्यमान थे- ‘‘अब राजा के लोग इस गढ़ में आयेंगे और गढ़ पर चढ़ाई करेंगे। अब कौन इस गढ़ की रक्षा करेगा? यहाँ की स्त्रियों की रक्षा अब कौन कर सकता है?…….. इस दुष्ट राजा के सिपाही चढ़ आयेंगे अब तेरे गढ़ पर। अब महिलाओं पर अत्याचार होंगे।7
राजा द्वारा वीर भड़ों के साथ जो घिनौना व्यवहार किया गया उसका यथार्थपरक चित्रण नौटियाल जी इस प्रकार करते हैं- ‘‘राजा ने काफू को सजाए मौत की घोषणा कर दी। उसने हुक्म दिया था कि काफू की गर्दन इस ढंग से काटी जाये कि वह गर्वीला सर उसके चरणों में जा गिरें।………… और लोग कहते हैं कि उस भरे दरबार में राजा अजयपाल के ऊँचे सिंहासन के सामने काफू की गर्दन पर पीछे से तलवार चलाकर उसे धड़ से जुदा किया गया।’’8
प्रत्येक सत्ता का एकमात्र उद्देश्य था कि आम प्रजा को किस प्रकार लूटा-खसोटा जाए, किस तरह उन्हें प्रताड़ित करके अपने मंसूबे पूरे किए जाये। सयाणों को कहा गया कि प्रजा पर भारी से भारी कर लगाया जाये। किसानों को भी अपनी सत्ता के अधीन रखा जाये। ऐसा करने वालों को सत्ता द्वारा बकसीस दी जायेगी। इस सम्बन्ध में निम्न उदाहरण प्रस्तुत हैं- ‘‘और जीतने वाले शासकों ने गढ़वाल के कमीणों, सयाणों को कहा कि सिर्फ राजा बदला है और राजधानी बदली है और कुछ नहीं बदला। वे प्रजा से कर वसूलते रहे। उसमें से सयाणाचारी की अपनी चुंगी काटते रहें। राजकोष श्रीनगर में जमा किए जाने वाले राजकर की धनराशि कांतिपुर (काठमांडो) भेजा करें। जिस तरह वे महाराजा गढ़वाल की सेवा करते आए ठीक उसी तरह वे महाराजा नेपाल की सेवा करते रहें। जो सेवा करेगा उसका कुछ नहीं बिगडेगा। सयाणे अपन-अपने गांवों पर शासन चलायें। किसानों को दबाकर रखें जैसा कि वे सदियों से उन्हें दबाकर रखते आए हैं।’’9
प्रजा में जो लोग कर की वसूली नहीं दे पाते थे, उन्हें सत्ता द्वारा बेचा-खरीदा जाता था। उनकी बोली लगायी जाती थी, जो अधिक कीमत अदा करता था वे लोग उन्हें ही सौंप दिये जाते थे। फिर खरीददार उनके साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार क्यों न करें ‘‘और नियम यह भी था कि अगर कोई व्यक्ति उस बकायादार के बदले सरकारी कर की अदायगी कर देता है तो उस बकायादार के हाथों में बंधी रस्सी का दूसरा छोर उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिया जाए। ’’रकम अदा करने वाले व्यक्ति का उस बकायादार की जिंदगी पर वहीं अधिकार हो जायेंगे जो हरिद्वार की मंडी में बोली बोलकर और कीमत चुकाकर दासों के खरीददार को हासिल होते हैं।’’10
हाकिमानों, अहलदारों, सेठों की स्त्रियों पर बुरी दृष्टि रहती थी। उनके पुरूषों को तो बन्दी बनाकर बेच दिया जाता था तथा स्त्रियों को अपनी वासना का साधन बनाकर रखने की कुदृष्टि होती थी। जो स्त्री इसका विरोध करती थी उसे भी जानवरों के समान बेच दिया जाता था। इस सम्बन्ध में ‘सूरज सबका है’ उपन्यास का निम्न उदाहरण दृष्टव्य है-‘‘पातीराम सेठ अपना हिसाब लगा रहा था। शिव्वा के चले जाने के बाद उसकी औरत पुलमा पर कब्जा करना बेहद आसान हो जाएगा। जाने दो शिव्वा को।
पुलमा समझती थी। वह अच्छी तरह जानती थी कि पातीराम सेठ उसे किस दृष्टि से कैसी दृष्टि से देखता है और पुलमा जानती थी कि शिव्वा के जाने के बाद पातीराम सेठ खुद उसके साथ क्या करने वाला है।’’11
यही स्थिति हमें एक और उदाहरण में भी दिखाई देती है। जब गोरखी सत्ता हुंकारू नामक पात्र को बंधी बनाकर ले जाते हैं तो उसकी पत्नी बाहर नहीं निकलती क्योंकि कहीं वह उसे भी जबरदस्ती उठाकर न ले जायें और हुंकारू भी नहीं चाहता था कि उसकी सुन्दर पत्नी के साथ गोरखी सत्ता कुछ भी गलत करें- ‘‘गोरखों ने हुंकारू को बांध लिया। हुंकारू की पत्नी घर से बाहर नहीं निकली। वह छिप गई थी। वह गाँव की सबसे खूबसूरत युवती थी। खतरा था कि गोरखों की उस पर नजर पड़ जाएगी तो वे उसे जबरदस्ती अपने साथ घसीट ले जायेंगे। एक तो औरत, फिर जवान और सबसे बुरी बात ज्यादा खूबसूरत।’’12
बेचे खरीदे जाने वाले दासों की जिन्दगी का कोई वजूद नहीं था। किसी को किसी भी प्रकार की कोई आवश्यकता हो सकती है, इस ओर ध्यान देने वाला कोई नहीं था। वह तो मात्र एक सम्पत्ति थी जिसको रकम अदा करके खरीदा गया है। ‘‘वे सब रास्ते में गंगा की एक सहायक नदी के किनारे पर बैठकर सुस्ता रहे थे। उन्हें तो सुस्ताने का कोई हक नहीं था पर उनके साथ चल रहे सिपाही थकान महसूस करने लगे थे। सांझ होने को थी। दासों ने बहुत सुबह चलने से पहले खाना खाया था। अब उन्हें भूख लग आयी थी, पर वहाँ उनके लिए खाने का कोई इंतजाम नहीं था। जो बिक जाते हैं उनके तन बदन की इच्छायें मर जाती हैं। वे किसके सहारे जिंदा रहें।’’13
निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि नौटियाल जी ने प्रस्तुत चर्चित उपन्यास में गढ़वाल पर गोरखों के आक्रमण का यथार्थ रूप से चित्रण किया है। किस प्रकार आम प्रजा त्रस्त दिखाई देती है। उनकी पीड़ा, कष्टमय जीवन को बेबाकी से उकेरा गया है। सत्ता की नजर में आम प्रजा का कोई मूल्य नहीं था। उनके लिए वह मात्र पशु के समान थे। जिनके साथ जब चाहे, जैसा चाहे व्यवहार किया जा सकता है। गढ़वाल पर एक-एक करके सभी सत्ताओं का वर्चस्व रहा। पहले रियासती, गोरखी और फिर अंग्रेजी हुकूमत निरन्तर टिहरी गढ़वाल पर अपना परचम फहरा रही थी। आमजन को कभी कोई स्वतन्त्रता नहीं रही। अन्ततः उन्होंने इस सत्ता से मुक्ति के लिए आन्दोलन किया और जीत हासिल की।
संदर्भ ग्रन्थ सूची –
- डॉ॰ योगेन्द्र प्रताप सिंह- आधुनिक हिन्दी निबन्ध, पृ॰-34, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली।
- स्त्रोत डॉ॰ हरदेव बाहरी- राजपाल हिन्दी शब्दकोष, पृ॰-676, राजपाल, 2008, दिल्ली।
- स्त्रोत आविद रिजवी- मेगा हिन्दी शब्दकोष, पृ॰-820, मारूति प्रकाशन, 2004।
- डॉ॰ रामदरश मिश्र- हिन्दी कहानी की अंतरंग पहचान, पृ॰-7, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
- डॉ॰ योगेन्द्र प्रताप सिंह- आधुनिक हिन्दी निबन्ध, पृ॰-36, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली।
- विद्यासागर नौटियाल- सूरज सबका है, पृ॰-13, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997।
- वही पृ॰-14।
- वही पृ॰-15-16।
- वही पृ॰-17।
- वही पृ॰-19।
- वही पृ॰-20।
- वही पृ॰-24।
- वही पृ॰-21।
शिवानी
शोधार्थी
जनता वैदिक कॉलिज बड़ौत (बागपत)