‘नारी’ शब्द सुनते ही एक विस्तृत संसार की परिकल्पना साकार होने लगती है । वह संसार जहां नारी को ‘पराया धन’ कहा गया । जहां उसे ‘ताड़ने’ की बात कही गई । उसे चौखट के भीतर की गरिमा को बनाए रखने के लिए सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया गया । यही नहीं कभी पति को ’परमेश्वर’ मान उसकी पूजा अर्चना सिखाई गई । यहाँ तक पति की मृत्यु के बाद उसे समाज द्वारा बलि-वेदी पर बैठा पति के साथ स्वाहा कर ‘सती’ का दर्जा दिया गया । यदि समाज का वश चलता तो शायद उसके लिए ‘परम वीरांगना पुरस्कार’ की उद्घोषणा भी कर दी जाती ।
लगता है नारी के लिए यह समाज एक परीक्षा केंद्र है जहां नारी के लिए दिल्ली विशावविद्यालय का न तो (सी॰ बी॰ सी॰॰ एस) पाठयक्रम है और न ही (एफ॰ वाई॰ यू॰ पी॰) पाठयक्रम । जहां कम से कम इच्छा और समय सीमा का ध्यान तो रखा गया है । परंतु नारी को तो सतत परीक्षा देते रहना है । और ये समाज पर्यवेक्षक की भांति सदैव उसका मूल्यांकन करता रहता है । यहाँ तक कि उसकी चाल, पहनावे और कभी किसी छोटी-सी घटना से ही उसके चरित्र को आंक लिया जाता है । चाहे लड़की का लड़के से बात करना हो, या देर रात घर लौटना, या छोटे कपड़े पहनना सभी उसके चरित्र का ढिंढोरा पीटते दृष्टिगत होते हैं ।
नारी शब्द वैसे तो स्वयं शक्ति का परिचायक है परंतु फिर भी जब नारी के साथ शक्ति शब्द जुड़ता है तो उसका क्या अर्थ है ? उसे किस अर्थ में लेना चाहिए ? यह प्रश्न विचारणीय है । क्या उसके अर्थ को नारी-सत्ता, नारी-अस्तित्व, नारी धर्म, नारी गुणों में समेटना उचित है ? प्रश्न उठता है कि क्या आज नारी ऐसी चौखट पर खड़ी है जहां उसकी सत्ता, उसके अस्तित्व, उसके गुणों को दीमक चाट रही है । परंपरा और संस्कृति की करतल ध्वनि ने ही शायद नारी के भीतर एक अलग सी टीस को जन्म दिया जिसने नारी शक्ति को बाज़ार, सौंदर्य और आकर्षण की ओर मोड़ दिया । वह प्रेरणादायी, ममतामयी नारी कब स्वयं से दूर हो गई इसका बोध शायद उसे नहीं है । कहीं ऐसा न हो समाज की नींव जिस नारी शक्ति पर टिकी है वही खोखली हो जाए । बदलता परिवेश, बदलती परिस्थितियाँ स्वयं में बदलाव को निमंत्रण अवश्य देती हैं । परंतु यह बदलाव कैसा हो ? क्या नवीन का आकर्षण, प्राचीन के खरेपन को खत्म करने का नाम है ? नारी को ये बात समझनी होगी । अपनी शक्ति, अपने अस्तित्व की उस परंपरा को न मिटने देना ही उसका चरम लक्ष्य हो सकता है ।
नारी शक्ति पर जो प्रश्न उठाता है और उसे बंधनों में रह कर मूक अभिनय करने का माध्यम मानता है उसे हमारी परंपरा और संस्कृति का शायद बोध ही नहीं । यदि समाज हमारी परंपरा और संस्कृति का ध्यान रखता तो शायद नारी का स्वरूप आज के समाज में कुछ और ही होता । अथर्ववेद में नववधू को घर की स्वामिनी होने तथा शासन करने का आशीर्वाद दिया गया है । इसमें तत्कालीन समाज में पत्नी के प्रति उदात्त भावनाओं का परिचय मिलता है । ऋग्वेद में भी नारी को साम्राज्ञी कहा गया है । यज्ञीय मंडप में सपत्नी प्रवेश करना मंगलदायक माना जाता है । श्राद्ध के अवसर पर अग्नि का आह्वान सपत्नी करना चाहिए । यज्ञ की सफलता भी पत्नी पर निर्भर है । यहाँ तक की धार्मिक कार्यों में नारी की महत्ता को स्वीकार किया गया है । इसलिए उसे धर्मपत्नी, सहधर्मिणी और सहधर्मचारिणी कहा गया है । भारतीय मान्यता है कि सृष्टि के आरंभ में जगत-नियंता ने स्वयं को दो भागों में विभक्त कर नर-नारी के स्वरूप का सृजन किया । प्रभु का वाम भाग नारी है और दक्षिण भाग पुरुष । एक श्रद्धा और दूसरा विश्वास । दोनों ही एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं । फिर प्रश्नों के घेरे में नारी ही क्यों ? उसके अस्तित्व, उसकी सत्ता पर ही अंकुश और संकट क्यों ? ये कालजयी प्रश्न ही नारी के हृदय में शूल की भांति चुभते रहे हैं । जबकि उसकी सत्ता को वैदिक साहित्य में भी स्थान प्राप्त है । जहां गृहिणी के बिना घर को अरण्य के समान बताया गया है । जहां कहा गया है – भार्या के समान कोई बंधु नहीं है । (पत्नी परम मित्रम), पत्नी-धर्म में पत्नी ( धर्मेषु पत्नी ),कार्यों में मंत्री (कार्येषु मंत्री), शयन में रंभा ( शयनेषु रंभा ), भोजन कराने में माँ अन्नपूर्णा ( भोज्येषु माता ) है । इसके अतिरिक्त धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति में भी नारी से अधिक कोई सहायक नहीं । नारी बैटर हाफ है, अर्धांगिनी है । परम पिता परमात्मा तक इसकी शक्ति के आगे नतमस्तक रहे । मोहिनी रूप और अर्धनारीश्वर की परिकल्पना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है । किन्तु कुछ अधज्ञानियों ने नारी को उसकी विशाल भूमि से अलग रख उसके लिए संस्कृति ओर परंपरा के नाम पर अंधविश्वास, कुरीतियों और बंधनों के ऐसे समाज की रचना कर डाली कि नारी स्वयं की तलाश में ही निकल पड़ी ।
नारी का वास्तविक संसार तो उसके स्वयं उसके भीतर ही है जिसे वह बाहरी दुनिया में तलाश रही है । नारी का धैर्य, करुणा, दया, ममता, सहनशक्ति उसके अस्त्र-शस्त्र हैं जिनसे वह सुसज्जित है । उसका हृदय आनंद और शांति का केंद्र है । जहां समस्त बाधाएँ विराम लेती हैं । इसके बावजूद ‘एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से बढ़कर नारी’ कहने वाले भी कभी-कभी नारी की शक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाते दिखाई देते हैं । नारी शक्ति का यशोगान करने वाला आज का विद्वजन इस बात को न केवल स्वीकार करता है बल्कि अपने अन्तर्मन में इस गूंज का अहसास भी पाता है कि जब नारी शक्ति की झंझावत चलती है तो अच्छे-अच्छे उखड़ने लगते हैं । फिर कोई उसे दुर्गा, तो कोई काली शक्ति कहने पर विवश हो जाता है । किन्तु यही विद्वजन उसे दोयम दर्जे पर लाकर भी खड़ा कर देते हैं । जिससे नारी के भीतर स्वयं को साबित करने की एक ‘भूख’ ‘पैदा होने लगती है । यह भूख उसे अलग-अलग रास्तों पर ले जाती है । कभी वह भटकती है, तो कभी टूटती है । तो कभी बेबसी और लाचारी को समेटे उसकी आँखें करुणा और पीड़ा के अश्रु बहाने लगती हैं । किन्तु वो नारी है जिसका अर्थ है –“न अरि अस्य” अर्थात जिसका कोई शत्रु न हो । इसलिए वो उठती है, संभलती है, चलती है और अपनी शक्ति से अपने रास्ते खुद गढ़ती है, बढ़ती है ….. क्योंकि वो शक्ति है …..