इक्कीसवीं सदी पूरे विश्व में अनेकों चुनौतियाँ ले कर आया है। गरीबी, कुपोषण, आतंकवाद, प्रदूषण और ऐसी न जाने कितनी चुनौतियों से इस सदी के मानव को दो चार होना पड़ रहा है। आज इस तकनीकी युग में एक ओर जहां वैश्विक दूरी खत्म होती जा है तो वहीं दूसरी ओर मनुष्य-मनुष्य के बीच की आपसी दूरी बढ़ती ही जा रही है। 21वीं सदी को तकनीक, विज्ञान, इंटरनेट, सूचनाओं की सदी और अब तो डिजिटल युग आदि नाम दिया जा रहा है। इस सदी का सर्वाधिक शक्तिशाली तंत्र, सूचना तंत्र है। आज का समूचा विश्व समुदाय सूचनाओं के संजाल के ऊपर टिका हुआ है। आज मनुष्य जाति सूचनाओं के बीच ही उठता-बैठता और सोता-जागता है। टीवी, रेडियो, अखबार, इंटरनेट सभी सूचनाओं का जखीरा है। आज का मानव, महामानव इन्हीं सूचना तंत्रों के दम पर बनने की ओर अग्रसर है। जैसा कि मनुष्य अपने स्वभाव से ही जिज्ञासु होता है और उसे अपने आस-पास घटित हो रही सभी घटनाओं की जानकारी जानने की ललक हर पल बनी रहती है। तकनीकी युग के आगमन से पूर्व जहाँ सूचनाओं का एक सीमित दायरा था वहीं इस युग में इसका बहुत ही व्यापक विस्तार हुआ है। “आज सूचनाओं का लाभ दुनिया का हर वाशिंदा कमोबेश उठा रहा है। अमरीका का भी भारत का भी। यह सूचना के वातावरण की विशेषता है कि उसने सूचना के संजाल में सूचना को क्षणिक, त्वरित, सार्वभौमिक और पण्य बना दिया है। वह सूचना जो हमें मिल रही है, हमारी काम्य नहीं लेकिन हमें एक कामना दिये चलती है। यानि पहली बार हमने माना कि हमे स्वतंत्रता से विरत किया जा रहा है। यह नया है हम जो चाहते है, वह हम नहीं चाह रहे होते, कोई बहुराष्ट्रीय निगम ही हमें बताता है कि हम क्या चाहते है? हमारी कामना पर हमारा नियंत्रण नहीं है।” सूचना हमारी विचारधारा को अपने हिसाब से गढ़ती है। हम सूचना को किस रूप में ग्रहण करते है, यह भी हमारे बस में नहीं है। सूचना ही यह तय करती है कि हम क्या सोचे और कैसे सोचे। आज सूचनाएँ हमारे लिए इतनी महत्वपूर्ण हो गयी हैं कि मनुष्य का जीवन हर क्षण उससे प्रभावित होने लगा है। आज मनुष्य जाति का सम्पूर्ण जीवन सूचना के ऊपर आश्रित है। नई तकनीक ने मानव को सूचनाओं के मकड़जाल में उलझा दिया है।
जैसा कि हम सब जानते हैं, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे अपने परिवेश और समाज से बहुत ही लगाव होता है। वह अपने परिवेश में रहते हुए भी वहाँ घटित घटनाओं की जानकारी से अवगत होने के लिए संचार के विविध माध्यमों पर आश्रित रहता है। भूमंडलीकरण ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अब मनुष्य स्थानीय के साथ-साथ राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं से भी ताल्लुक रखने लगा है। आज जिस विश्व ग्राम की बात की जाती है, उसका आशय इसी से है कि अब हर एक राष्ट्र का मनुष्य दूसरे राष्ट्र के खान-पान, पहनावे, भाषा, फिल्म, राजनीति और उत्पाद से जुड़ने लगा है। यह जुड़ाव उसके लिए मजबूरी और महत्वपूर्ण दोनों है। आज अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की चर्चा भारत में इस प्रकार होती है जैसे लगता है चुनाव अमेरिका में नहीं भारत में हो रहा है। राष्ट्रपति अमेरिका के नहीं पूरी दुनिया के चुने जा रहे हैं। हॉलीवुड की फिल्में भारत में जितनी कमाई करती हैं उतनी शायद अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्में भी नहीं कमा पाती (कुछ एक फिल्मों को छोड़ दे तो)। कहने का आशय यह है कि अब मनुष्य को सिर्फ अपने गाँव और कस्बों की खबरों में ही रुचि नहीं है बल्कि विश्व की सभी प्रमुख घटनाओं में है। आज भारत में बैठे-बैठे हम जर्मनी की घटनाओं से अवगत होते है और जर्मनी में बैठा कोई जर्मन भारतीय घटनाचक्र से। आज यह सब सूचनाओं के आदान-प्रदान से ही संभव हो पाता है और ये सूचनाएँ संचार के विविध नये माध्यमों से हमें मिलना संभव हो पाया है। 21वीं सदी में सूचना तकनीक के विभिन्न नये माध्यमों का विकास हुआ है। आज जनसंचार क्रांति ने (संचार के विविध माध्यम ने) स्थानीयता को समाप्त कर दिया है। आज अखबार, टीवी, रेडियो से कहीं अधिक लोग इंटरनेट से सूचनाओं को ग्रहण करते हैं। आज सूचना-तंत्र के सहारे हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। हमें सरकार की नीतियों की जानकारी इसी सूचना-तंत्र के माध्यम से मिलती है। आज का मानव पूर्णतः सूचना केन्द्रित समाज में जी रहा है। आज सूचना ग्रहण करने के अनगिनत माध्यम है। उदारीकरण के बाद से सूचना का परमाणु विस्फोट हुआ जिसने मीडिया को फलने-फूलने का बहुत अनुकूल वातावरण तैयार कर दिया और इसके फलस्वरूप मीडिया को एक अलग तरह की स्वतन्त्रता मिली। मीडिया को मिली इस स्वतंत्रता ने उसे चरित्रहीन बना दिया है। आज ब्रेकिंग न्यूज की एक ऐसी परंपरा चल पड़ी है कि अब तो हर मिनट ब्रेकिंग न्यूज दिखाई जाती है। जिस जनमानस का किसी घटना विशेष से ताल्लुक भी नहीं है उसको जबर्दस्ती उस घटना विशेष की सूचना दी जाती है। “पश्चिमी बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने तो यहाँ तक कह दिया है कि विकसित देशों में लोग सूचित कम हैं और गलत सूचनाओं के शिकार अधिक हैं।” ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि मीडिया अब खबरें अपने हिसाब से नहीं विज्ञापन और पैसों को हिसाब से दिखाता/छापता है।
आज का मनुष्य सूचनाओं के लिए मीडिया के ऊपर इस प्रकार आश्रित हो चुका है कि अब वह यह नहीं देखता कि उसे जो सूचना मिल रही है वह पूर्णतः सत्य है भी या नहीं। इस सदी में तकनीकों का जितना विकास (फैलाव) हुआ है पूर्व की सदियों में उतना कभी नहीं हुआ। आज लोग तकनीक के जाल में इस प्रकार फंस चुके हैं या फंसते जा रहे हैं जहां से उनका निकल पाना कठिन होता जा रहा है। अगर आज देखें तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हर एक इंसान तकनीक का गुलाम होता जा रहा है। तकनीक आज मानव जाति के ऊपर हावी होने लगा है। आज इंसान का साथी, प्रेमी, मित्र या कहें कि सब कुछ मोबाइल हो गया है। रात को सोने से पहले अपने तकिये के पास रख कर सोना और सुबह उठते ही सबसे पहले उसका दर्शन करना और पूरे दिन अपने साथ रखना लोगों की आदत और मजबूरी बन गयी है। आज माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य बल्कि सभी रिश्तें-नातों से ऊपर मोबाइल को तरजीह दिया जाता है। हम पूरे दिन अपने सभी रिश्तेदार से दूर या अलग रह सकते हैं, परंतु मोबाइल के बिना एक पल भी नहीं रह पाते। आज अगर कोई व्यक्ति किन्हीं कारणों से सोशल मीडिया पर सक्रिय नहीं रह पाता तो उसके अन्य मित्र यह समझ बैठते हैं कि उसके साथ जरूर कुछ घटना या अनहोनी हुई होगी। आप बीमार हैं, आपका मोबाइल खराब है या गुम हो गया, आप किसी काम में व्यस्त हैं या अन्य किन्हीं कारणों से अगर फेसबुक या व्हाट्सएप पर ऑनलाइन नहीं हो पाते, तो न जाने क्या-क्या कल्पनाएँ आपके मित्रों के द्वारा की जाने लगती हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हमें सूचनाओं के बीच में रहने की लत लग गयी है। हमें पल-पल की सूचना चाहिए और यह काम मोबाइल और इंटरनेट हमें बखूबी दे रहा है। इंटरनेट ने इंसानी मस्तिष्क को अपना गुलाम बना लिया है। अब इंसान अपने शरीर से ज्यादा मशीन पर आश्रित होने लगा है। इस सदी को अगर तकनीकी युग कहा जा रहा है तो वह गलत नहीं है। “वह जेट युग की रफ्तार के अनुरूप अचंभित कर देने वाली तेजी के साथ निरंतर विकसित भी हो रहा है और नये पहलुओं, नये स्वरूपों, नये माध्यमों, नये प्रयोगों और नई अभिव्यक्तियों से सम्पन्न भी होता जा रहा है। नवीनता और सृजनात्मकता नये जमाने के इस मीडिया की स्वाभाविक प्रवृतियाँ हैं।” इस नवीनता और सृजनात्मकता को फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के माध्यम ने मजबूती प्रदान करने का कार्य किया है। इन्हीं नए माध्यमों को आज न्यू मीडिया और न्यू तकनीक कहा जा रहा है।
आज तकनीक मानव के दिनचर्या में इस प्रकार सूमार हो चुकी है कि अब उससे अलगाव होना कठिन ही नहीं नामुमकिन हो गया है। आज समाज का सभी तबका, सभी जाति, सभी धर्म तकनीक से किसी न किसी प्रकार जुड़ चुका है। आज पूरे विश्व में एक माध्यम ऐसा है जिसपर किसी धर्म, जाति या क्षेत्र का वर्चस्व नहीं है और वह माध्यम है इंटरनेट। इंटरनेट मानव द्वारा किए गए 20वीं सदी के सभी आविष्कारों में सर्वाधिक प्रभावशाली और शक्तिशाली तकनीक है। इसने इक्कीसवीं सदी के मानव समुदाय को सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक सभी स्तरों पर प्रभावित ही नहीं किया है बल्कि उसे मजबूती भी प्रदान की है। मानव जीवन का सभी क्षेत्र आज इस तकनीक से किसी न किसी प्रकार जुड़ चुका है। कम्प्यूटर, लैप टॉप, मोबाइल, टीवी, रेडियो, अखबार, पत्रिका, किराने की दुकान, जहाज, रेल और मीडिया सभी का प्रयोग इंटरनेट के माध्यम से किया जा रहा है। इंटरनेट ने आज सूचना के आदान-प्रदान को इतना आसान बना दिया है कि अब एक स्पर्श से ही कहीं और कभी भी सूचना का आदान-प्रदान किया जा सकता जा सकता है। आज इंसान सूचना के पीछे नहीं भागता बल्कि सूचना खुद उसे अपने पास बुलाती है। इंटरनेट पर एक पेज से न जाने हम कहाँ-कहाँ किन-किन सूचनाओं के अंदर चले जाते है और सूचनाओं के महाजाल में उलझ कर रह जाते है। यहाँ एक तरह से सूचनाएँ इंसान को भटका भी रही हैं। सूचना तकनीक ने आज पाठक/श्रोता/दर्शक को इतना ज्यादा भ्रमित कर दिया है कि वह सूचना और मनोरंजन में फर्क ही नहीं कर पा रहा है। “पूंजीवादी प्रक्रिया में तकनीक इतनी ताकतवर हो गयी है कि वह माध्यम समेत विषय व विचारों को निगल रही है।”
जब अमेरिका में इंटरनेट की शुरुआत हुई होगी तो शायद ही किसी ने यह कल्पना की होगी कि इंटरनेट भी कभी इंसान की पहचान का प्रमुख जरिया बनेगा। आज मोबाइल और ईमेल किसी भी इंसान का एक तरह से पहचान-पत्र बन गया है। करोड़ों और अरबों में किसी भी व्यक्ति की पहचान एक ईमेल या मोबाइल न0 से हो जाता है। आज दुनिया के लगभग सभी महत्वपूर्ण कार्य इंटरनेट के माध्यम से किए जा रहे हैं। जिसकी कल्पना आज से एक सदी पहले का मानव कर भी नहीं सकता था वह कल्पना आज सच्चाई में बदल चुकी है। आज तकनीक उस दैवीय शक्ति के समान है, जिसे सिर्फ हम दादी-नानी की कहानियों में ही सुनते रहे हैं। मनुष्य ने जिसके बारे में कभी सोचा ही नहीं, आज वह सत्य हो गया है। चाहे बात मंगल ग्रह पर जाने की हो या चाँद पर या फिर अमेरिका में हो रहे म्यूजिकल कंसर्ट की लाइव विडियो देखने की, कभी ये सब सिर्फ दादी-नानी की कहानियाँ ही हुआ करती थी, परंतु आज तकनीक ने उन कल्पनाओं को सत्य कर दिया है। हम सिर्फ सपनों में या फिर कल्पना में जिन चीजों को देखते रहे हैं उसको आज विज्ञान ने सच कर दिखाया है। आज सम्पूर्ण विश्व में तकनीक का वर्चस्व जीवन के सभी क्षेत्र में होने लगा है। तकनीक के विकास ने आज पत्रकारिता को मीडिया और मीडिया को सोशल मीडिया बना दिया है। मीडिया ने सूचना के आदान-प्रदान को आसान बनाया है। पहले जहां सूचना सिर्फ एकतरफा चाल में चलती थी तो वहीं आज मीडिया के नये माध्यमों ने (न्यू मीडिया ने) इसे दोतरफा बना दिया है। “इंटरएक्टिविटी इस नये माध्यम की बुनियाद में निहित है जिसका लाभ सूचना प्रदाता ही नहीं, सूचना प्राप्तकर्ता को भी हुआ है।” सोशल मीडिया ने पूरी दुनिया को एक हाथ में कैद कर लिया है। आज आम से लेकर खास जन तक को सोशल मीडिया के रूप में शक्तिशाली हथियार मिला है। सोशल मीडिया ने जनता और साहित्य में पंख लगाने का कार्य किया है।
मीडिया को लोकतन्त्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। परंतु आज यह विचारणीय प्रश्न है कि क्या वाकई में ऐसा है? मैं तो ये पूछता हूँ कि क्या बाकी तीनों स्तंभ भी आज लोकतन्त्र को पाल-पोष रहे है? क्या विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका अपने मूल उद्देश्यों को या अपने कर्तव्यों को निभा रही है? वैसे यह प्रश्न इस विषय से जुड़ा नहीं है परंतु इसका यहां जिक्र इसलिए करना पड़ा क्योंकि मीडिया का संबंध हमेशा ही इन तीनों से रहा है। बल्कि यह कहा जाए कि किसी समय मीडिया इन तीनों से भी ज्यादा महत्व रखता था तो गलत नहीं होगा। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई हो या आजादी दिलाने की लड़ाई, सभी में सर्वाधिक सक्रियता और योगदान मीडिया (पत्रकारिता) का ही रहा है। “आरंभ में पत्रकारिता जनता-मित्र थी, फिर ग्राहक-मित्र बनी। इन दिनों वह उपभोक्ता-मित्र है। कभी वह शुद्ध ‘पाठक’ का निर्माण करती थी, अब वह ऐसे पाठक का निर्माण करती है जो अच्छा उपभोक्ता भी है।” मीडिया समाज में एकता, समरसता, जागरूकता और शिक्षित करने में हमेशा से आगे रहा है। जिस प्रकार समय के साथ-साथ इंसान में प्रौढ़ता आती है उसी प्रकार लोकतंत्र में भी आनी चाहिए। पर क्या लोकतंत्र पहले से प्रौढ़ हुआ है? इसका जबाव मीडिया के पास होगा या शायद आप सभी के पास है। मीडिया के पास इसका जबाव इसलिए होना चाहिए, क्योंकि यह लोकतंत्र का एक स्तंभ है और आपके पास इसलिए क्योंकि उस लोकतंत्र का आप भी एक हिस्सा हैं।
21वीं सदी का समय मीडिया एवं जनसंचार का है। आज का मीडिया जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है। 21वीं सदी के मीडिया में जो आमूल-चूल बदलाव प्रतिबिम्बित हो रहा है, वह अचानक से नहीं हुआ है। इमरजेंसी के बाद से ही देश की स्थिति ने मीडिया को एक अलग दृष्टि और रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित और बाध्य करने का कार्य किया था। सन् 1991 ई. के बाद जब भारत एक बाजार के रूप में उभरा तो उसका खामियाजा मीडिया को भी उठाना पड़ा। सन् 1991 ई. के उदारीकरण के बाद मीडिया में महत्वपूर्ण बदलाव परिलक्षित होता है। ये दो ऐसे कालखंड हैं जिसने भारतीय मीडिया को सर्वाधिक प्रभावित किया। मीडिया का दायित्व यह रहा है कि वह जनता, पाठक, श्रोता और दर्शक को सूचना देने के साथ-साथ ज्ञान वर्धन करे, मनोरंजन करे और देश-दुनिया से जोड़े रखने के साथ-साथ नए विचार और विमर्श को आगे बढ़ाए। मीडिया को उसके इन्हीं दायित्वों की वजह से लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ माना जाता रहा है। उदारीकरण के बाद देश में उपभोक्तावादी संस्कृति ने एक ऐसा माहौल बना दिया जिसने मीडिया के लिए टौनिक का काम किया। इस टौनिक ने मीडिया को एक नये अवतार में हमारे सामने खड़ा किया। सन् 1991 ई. के बाद देश में मीडिया अपने मूल दायित्वों से इतर एक उद्योग के रूप में विकसित हुआ और उद्योगों के चरित्र और स्वरूप से तो हम सभी वाकिफ ही हैं। आज मीडिया का नाम हमारे कानों में गूँजते ही जो एक बिंब उभर कर आता है, वह अधिक से अधिक मुनाफा कमाने वाले उद्योग के रूप में ही आता है। उद्योगों के लिए मूल्य और संवेदना की कोई अहमियत नहीं होती है और इसी मूल्य और संवेदना की खोज आज की मीडिया में हम सभी खोजने की कोशिश करते हैं। आज मीडिया हमारे सामने जिस रूप में है उसके बारे में ‘नोम चॉम्स्की’ “द न्यूयार्क टाइम्स” की खबर का हवाला देते हुये कहते हैं- यह एक निगम है, जो अपना उत्पाद बेचता है। उसका उत्पाद उसका पाठक वर्ग है।” आज मीडिया के लिए दर्शक, पाठक, श्रोता सभी माल है। मीडिया अपने पाठक, श्रोता और दर्शक को उपभोक्ता बना रहा है या बना चुका है। जहां उपभोक्तावाद की बू आती है, वहाँ हम मूल्य और संवेदना की बात नहीं कर सकते या फिर करना पाप होगा।
मीडिया का दायित्व समाज के सभी वर्गों को सामाजिक समस्याओं से अवगत कराना है साथ ही उन समस्याओं के समाधान भी बताने से है। आज जिसे हम मीडिया कहते हैं, दरअसल वह 20वीं सदी तक पत्रकारिता के नाम से ही जाना जाता था, परंतु 20वीं सदी के आखिरी दशक और इक्कीसवीं सदी में जैसे ही भारत एक बाजार के रूप में उभरता है वैसे ही पत्रकारिता की जगह मीडिया शब्द ही अधिक तार्किक लगने लगता है (पत्रकारिता शब्द जहां हमारे जनमानस में क्रांति और आंदोलन से जुड़ा हुआ एक स्वच्छ और निर्भीक साधन के रूप में बैठा है तो वही मीडिया पूँजी और मुनाफे कमाने के एक साधन के रूप में।)। “निवर्तमान शताब्दियों में भारत के संचार माध्यमों की प्रकृति व चरित्र में व्यापक बदलाव हुए हैं, जो प्रेस से होते हुए मीडिया की यात्रा करते हुए अब सोशल मीडिया तक आ चुका है। इसके अलावा आज संचार माध्यमों की प्रकृति अस्थायी हो गयी है। इसके अपने अलग और वाजिब कारण भी है। हालांकि इसके अलावा अन्य कारण भी है जिससे कि संचार माध्यम बेतुकी खबरें व सूचनाएं सनसनीखेज तरीके से परोसने लगे हैं।” अगर यह कहा जाए कि जबसे देश में निजी टीवी चैनलों की अंधा-धुंध शुरुआत हुई है तभी से पत्रकारिता के स्थान पर मीडिया शब्द अधिक प्रचलन में आया है तो गलत नहीं होगा। जब से टेलीविजन पर समाचार चैनलों की बाढ़ आई है तभी से मीडिया का चरित्र एक पूँजीपति के रूप में उभरा है।
आज मीडिया का क्षेत्र विस्तार बहुत ही बड़ा है। आज मीडिया के भीतर ही पत्रकारिता समाहित है। उपभोक्तावाद ने सभी वस्तुओं को माल और उत्पाद बना दिया। उसी माल को आज मीडिया बेचता है। मीडिया आज सूचना तो देता है परंतु वह सामाजिक सरोकार से अधिक उत्पाद और माल की होती है। क्या हमें यह विचार नहीं करना चाहिए कि स्वतन्त्रता के पूर्व पत्रकारिता जहां घाटे का कार्य था वहीं आज यह सर्वाधिक मुनाफा देने वाला उद्योग कैसे बन गया है? 19वीं और 20वीं सदी में जहां संपादक को घर-घर जा कर अखबार बेचना पड़ता था और अखबार निकालने के लिए अपने घर तक को बेचना पड़ता था वहीं 21वीं सदी में अखबार के संपादक और पत्रकार के बड़े-बड़े आलीशान बंगले और गाडियाँ हैं। आज अखबार का मालिक संपादक या पत्रकार नहीं, बल्कि बड़े-बड़े उद्योगपति हैं। “तकनीक और बढ़ते बाजार ने हिन्दी पत्रकारिता को एकदम बदल डाला है। हिन्दी पत्रकारिता ‘दिन-हीन मलीन’ कलेवर वाली नहीं रह गई है और न उसके पत्रकार ही ‘दयनीय’ दिखते हैं। वे आजकल मारुति-सैलूलर-हवाई जहाज से चलने वाले नए किस्म के तेज पत्रकार हैं। हिन्दी पत्रकारिता आज सच्चे मानकों में स्वतंत्र हो रही है, मार्केट चतुर हो रही है, उद्योग बन रही और भ्रूच्च अँग्रेजी के मुकाबले पर हैं। अब यह मिशन नहीं है, ‘प्रोफेशन’ है।” क्या ये बातें विचार करने योग्य नहीं हैं? आज कितने ऐसे पत्रकार, संपादक हैं जो समाज सेवा के लिए और जुनून से अखबार निकालते है? क्या आज कोई अखबार है जो धनाभाव की समस्या से बंद हो गया हो? क्या आज कोई संपादक है जो बिना वेतन के काम करता हो? क्या आज कोई भारतेन्दु और दीनदयाल उपाध्याय, मालवीय जी के जैसा पत्रकार है? आप सभी का उत्तर शायद ना में ही होगा। और अगर उत्तर ना में होगा तो फिर आप सभी को विचार करना चाहिए कि ऐसा क्यों है? पंकज बिष्ट अपने लेख ‘लोकतांत्रीकरण की चुनौती’ में कहते हैं- “अगर लोकतंत्र को बचाना है और मीडिया को समाज में सकारात्मक भूमिका निभानी है तो उसका लोकतांत्रीकरण होना चाहिए। यानी उस पर एकाधिकार को रोका जाना जरूरी है।” अब यह एकाधिकार किसका है इससे हम सब वाकिफ है। बड़े-बड़े उद्योग घरानों और राजनेताओं ने आज मीडिया को अपने वश में कर लिया है। अंबानी हो या बिरला तो वहीं गुप्ता हो या जैन इनकी ही जागीर बनी है आज मीडिया। सुभाषचंद्रा, ब्रिन्दा कारात, रजत शर्मा, उमेश उपाध्याय, अनुराधा प्रसाद सभी कहीं न कहीं किसी राजनीति पार्टी से संबंधित है या जुड़े हैं। अब जहां राजनेता और पूँजीपति का दिमाग लग रहा है, तो वहाँ जाहिर तौर पर यह समझा जा सकता है कि दाल में कुछ काला है या फिर पूरी दाल ही काली है।
आज कम से कम हम जैसे पाठक और दर्शक के लिए तो मीडिया शब्द का मतलब वह नहीं रह गया है जो पहले कभी हुआ करता था या हमें जो किताबों में पढ़ने को मिलती रही हैं। हाँ उनके लिए इसका आशय अलग हो सकता है जिन्हें सिर्फ हाथ में रिमोट लेकर न्यूज चैनल बदलने से मतलब है, उनके लिए यह विषय भी नहीं है कि मीडिया क्या दिखा रहा है और उसे क्या दिखाना चाहिए। आज मीडिया मुनाफा कमाने का सर्वाधिक सशक्त माध्यम बन चुका है, किसी को भी विलेन या हीरो बनाने का मंच, किसी भी चुनाव की शक्ल बदलने का माद्दा, किसी भी उत्पाद के मुनाफे को कई गुणा बढ़ाने का जरिया, किसी भी घटिया उत्पाद को अच्छी या बुरी बनाने की कला मीडिया को पता है। नोम चॉम्स्की अपने एक लेख में कहते है- “मीडिया का वास्तविक उत्पाद तो पाठक और दर्शक वर्ग है। यह उत्पाद सुविधा सम्पन्न तबका है। ये जाने-चीन्हें लोग हैं- अखबार में लिखने वाले, समाज के उच्च वर्ग के ऐसे लोग हैं, जो नीति निर्धारण में हिस्सा लेते हैं। मीडिया को अपना यह उत्पाद बाजार में बेचना है और उसका बाजार निश्चित रूप से विज्ञापनदाता (मीडिया का यह आज पहला और प्रमुख व्यवसाय है) से जुड़ा है। वह चाहे टेलीवीजन हो, अखबार हो या कोई और माध्यम सभी दर्शक और पाठकों को विज्ञापनदाताओं को बेच रहे हैं। एक निगम अपने पाठक वर्ग को दूसरे निगम को बेच रहा है।” पाठक यहाँ माल और उत्पाद के शक्ल में आने लगा है साथ ही अब वह बाजार में माल बन कर भी बिकने लगा है। वर्तमान में पत्रकारिता में हुए बदलाव के फलस्वरूप जो एक नया सूत्र उभरकर आया है, उसे सुधीश पचौरी अपने लेख ‘विज्ञापन, बाजार और अखबार में’ लिखते हैं- “अधिकतम पाठक, अधिकतम विज्ञापन, अधिक मुनाफा के सूत्र को जब पत्रकारिता में लागू किया जाता है तो एक नया सूत्र जन्म लेता है: न्यूनतम गहराई, न्यूनतम सूचना, न्यूनतम विचार, पाठक को न्यूनतम तकलीफ।”
21वीं सदी में मीडिया सोशल मीडिया के रूप में परिवर्तित हो गया है या हो रहा है। तकनीक के फैलाव ने ही सोशल मीडिया को जन्म दिया है। “सोशल मीडिया, सोशल साइट्स या वैकल्पिक मीडिया को मीडिया का एक प्रकार कहा जा सकता है। मीडिया का यह वह रूप है, जिसे जनता अपनी रुचि तथा इच्छानुसार जब चाहे, जहां चाहे इस्तेमाल कर सकती है।” मीडिया के वर्चस्व को सोशल मीडिया ने कम करने का कार्य किया है। सोशल मीडिया लोगों को आपस में जोड़ने वाली तकनीक आधारित एक दूरसंचार प्रणाली है जो इंटरनेट आधारित तकनीक के इस वर्तमान दौर में बहुत ही अहम हो गई है। आज इसके द्वारा लोग पूरी दुनिया के किसी भी भाग में स्थित व्यक्ति या व्यक्ति के समूह से जुड़कर अपने विचारों का आदान-प्रदान कर रहे हैं साथ ही साथ सामाजिक, राजनीतिक आंदोलनों को समर्थन भी दे और ले रहे हैं। सोशल मीडिया लोगों को आज मुखर बना रहा है। अब हर कोई अपनी बात बिना किसी दबाव के अभिव्यक्त कर सकता है। सोशल मीडिया ने साहित्य और समाज को जीवन से जोड़ा है। आज विश्व के विभिन्न हिस्सो में जन-आंदोलनों को सोशल मीडिया ने सफल बनाया है। छात्रों का आंदोलन हो या राजनीतिक दलों का, सोशल मीडिया इन्हें सफल बनाने का महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है। हम अपने देश में ही सन् 2011 ई. में अन्ना का आंदोलन देख चुके हैं। रोहित वेमुला को न्याय दिलाने के लिए आंदोलन, नॉन-नेट फेल्लौशिप के लिए यूजीसी के खिलाफ छात्रों का आंदोलन हो या दिल्ली के रामजस कॉलेज की घटना या फिर सरकार के अन्य जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आंदोलन, सोशल मीडिया लोकतंत्र के सजग प्रहरी के रूप में सामने आया है।
“आज का प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया अपना प्रचार-प्रसार बढ़ाने के लिए दुनियाभर की बातें करता हैं, पर अंदर वह वही देता है जो विज्ञापन विभाग चाहता है। मानव का भाग्य बदल देने वाली बड़े-बड़े आंदोलनों व बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में कलम के सिपाहियों ने जो कर दिखाया उसे आज के कलमकार व मीडियाकार कर सकने में अक्षम महसूस कर रहे हैं। कारण साफ है उन्हें जो अपनी नौकरी करनी है। पर आज हम सभ्यता के जिस मुकाम पर खड़े हैं, वह लोकतंत्र के चार पैरों पर टिकी है। जिसका एक पैर पत्रकारिता के नाम से जाना जाता है जो शब्दों के ईंट-गारे से बना है। उन शब्दों को आधार देने के लिए सोशल मीडिया बहुत ही मजबूती के साथ दस्तक दे चुकी है।” सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाला हर शख्स पत्रकार, लेखक और शिक्षक आदि की भूमिका का निर्वहन कर रहा है, उसकी आवाज़ का अपना एक वजूद है। हर व्यक्ति इसका अपने तरीके से प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र है और यही वजह है कि आज आम आदमी सोशल मीडिया को अपना रहनुमा मानता है। यह आज आम लोगों का हथियार बन कर उभरा है। एक ओर जहां सोशल मीडिया आज आम जनता के लिए एक बड़े हथियार के रूप में सामने आया है, तो वहीं दूसरी तरफ मुख्यधार की मीडिया सही और गलत को अपने फायदे के रूप में देखने लगा/देखता है। दरअसल वर्तमान दौर में कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि हम न्यूज चैनल नहीं बल्कि विज्ञापन चैनल देख रहे हैं। हम अखबार में खबर नहीं बल्कि विज्ञापन में खबर ढूंढते हैं। आज विज्ञापनों के बीच में समाचार या खबरें दिखाई जाती हैं।
आज मुख्य धारा का मीडिया भी कहीं न कहीं सोशल मीडिया पर आश्रित होने लगा है। मीडिया को आज सोशल मीडिया अपनी रफ्तार से मात देने लगा है। अखबार में खबर चौबीस घंटें में एक बार ही प्रकाशित होती है, टीवी या रेडियो चैनल पर भी समाचार का दोहराव होता है, परंतु सोशल मीडिया पर पल भर में खबर बदलते रहता है। पहले जहां समाचार 24 घंटें में एक बार मिलती थी वहीं अब 1 मिनट में 24 समाचार पढ़ सकते हैं या देख सकते हैं। अब तो ऐसा भी हो रहा है कि तमाम नामी मीडिया संस्थानों के द्वारा फेसबुक और ट्विटर के ट्रेंड को फॉलो किया जाने लगा है। अलग से सोशल मीडिया विभाग खोल लिए गए हैं ताकि सोशल मीडिया से संबंधित घटना या खबर को विशेष रूप से समाचार में दिखाया और प्रकाशित किया जा सके। अब किसी भी नेता के ट्वीट को खबर बनाया जाने लगा है। ट्वीट पर अगर कोई नेता, अभिनेता कुछ लिखता है तो उसे बयान माना जाने लगा है। इसका सर्वाधिक उपयुक्त उदाहरण अभी पिछले दिनों आया जब सोनू निगम का ट्वीट और फिर परेस रावल और अभिजीत भट्टाचार्य के ट्वीट ने सोशल मीडिया पर खलबली मचाई थी। आज छोटी से छोटी घटना भी पल भर में वायरल की तरह पूरी दुनिया में फैल जाती है। बड़े-बड़े संगीन अपराध हो या छोटे अपराध, पुलिस, अदालत और नेता के ऊपर दबाव बना कर उन्हें सलाखों में कैद करवाया है। भले ही आज सोशल मीडिया की प्रामाणिकता को लेकर संदेह किया जाता है, परंतु अब यह सम्पूर्ण जनमानस की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक शक्तिशाली माध्यम बन गया है। साथ ही दिनोंदिन यह और मुखर होता जा रहा है।

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अतुल वैभव

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