प्रवासी स्त्रियाँ (उषा प्रियंवदा के उपन्यासों के विशेष संदर्भ में) – शशि शर्मा

शोध-सार : अपने मूल स्थान से अलग किसी अन्य स्थान पर जाकर बसने वाला व्यक्ति ‘प्रवासी’ कहलाता है। नए स्थान पर बसने के दौरान प्रवासी व्यक्तियों को कई तरह की […]

रहीमदास के दोहों का वर्तमान परिवेश में मनोसामाजिक चित्रण – डॉ. आशा कुमारी

सारांशिका भक्तिकाल के प्रसिद्ध कवि रहीमदास अकबर के समय में उनके दरबार के नवरत्नों में से एक थे । उनकी कृतियां आज भी गंगा जमुनी तहजीब और कौमी एकता के […]

कवि रहीम के दोहे से जीवन की वास्तविकता के दर्शन – डॉ. शिंदे मालती धौंडोपन्त

अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना या रहीम, एक मध्यकालीन कवि, सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, एवं विद्वान थे। वे भारतीय सामासिक संस्कृति के अनन्य आराधक तथा सभी संप्रदायों के प्रति समादर भाव के सत्यनिष्ठ साधक […]

कामायनी में दर्शन – डॉ. दिनेश कुमार

जयशंकर प्रसाद जी कवि होने के साथ ही वैदिक परंपरा के ऋषि भी हैं कामायनी हिंदी का वेद है तो उसके पद्य  मंत्र हैं जिनका भाव मनन द्वारा ही जाना […]

प्रेम के रंग में सराबोर हिंदी ग़ज़लें – नवीन कुमार जोशी

ग़ज़ल का इतिहास लगभग पंद्रह सौ वर्ष पुराना है। इन पंद्रह सौ वर्षों में ग़ज़ल विधा के अर्थ और स्वरूप में परिवर्तन हुआ है। अरबी भाषा में ग़ज़ल का अर्थ […]

मुद्राराक्षस के निबंध-साहित्य में द्वंद्व की अभिव्यक्ति – चंचल

साहित्य अर्थात् जन हित की कामना से परिचय कराने वाला तत्व ही साहित्य है। साहित्य अपने समय तथा समकालीन समाज को अपने भीतर आत्मसात कर भावी पीढ़ी के लिए एक […]

साहित्यिक सिनेमा में अंतर-सांस्कृतिक संचार के विविध स्वरूप – ज्ञान चन्द्र पाल

शोध सार-                     हिंदी सिनेमा भारतीय संस्कृति की अंतर्राष्ट्रीय संवाहक है। इसमें भारतीय जीवन-पद्धति के प्रत्येक क्षेत्र की झांकी दिखाई देती है। इसमें हम भारत के छोटे कस्बे से लेकर […]

भक्तिकाल के उदय के आयाम – राहुल पाण्डेय

ईस्वी सन की सातवीं शताब्दी से अद्यतन -काल तक अनवरत रुप से प्रवाहित हिंदी काव्यधारा में भक्ति का प्रवाह मन्दाकिनी की तरह अपनी निष्कलुष तरँगावली और अनन्त जनता के मन […]

वर्तमान परिस्थितियों में रहीम जी के दोहों का प्रभाव – श्रीमती नाईकवाड़ी निलोफर अब्दुलसत्तार

भक्तिकालीन कवि रहीम जी सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक थे। जिस प्रकार रत्न अनमोल और बहुत ही लुभावने और चमकदार होते हैं उसी प्रकार रहीम जी के दोहे […]

चश्मा – सुशांत सुप्रिय

” पापा , भगवानजी तो इन्सानों को बड़ी मेहनत से बनाते होंगे । जब एक इंसान दूसरे इंसान को मार डालता है तो भगवानजी की सारी मेहनत बेकार हो जाती होगी न ।“ — एक पाँच साल का बच्चा अपने पिता से । —————————————————————– एक जलती हुई प्यास–सा था वह दिन । और मैं उसमें एक तड़पता हुआ प्यासा । मैंने विज्ञानेश्वर जी के बारे में जान–पहचान वालों से सुन रखा था कि वे एक लेखक थे जो अपने समय को डीकोड करने की कोशिश करते रहते थे । हालाँकि उनसे मिलने का मेरा मक़सद केवल उनका लेखन नहीं था । देर रात जब उनसे मिलने मैं उनके घर पहुँचा तब मैंने उनके भीतर से एक उदास रोशनी फूटती देखी जिसके साये तले बैठ कर वे अपना लेखन कर रहे थे । उनसे मिलने के बाद मुझे समय के कोने उतने तीखे और चुभने वाले नहीं लगे । सच बताऊँ तो वे मुझे अपने उदास समय के इकलौते वारिस लगे । उन्हें प्रणाम करके मैं उनके पास बैठ गया । वह फ़्यूज जुगनुओं वाली एक भोरहीन भारी रात थी । ” मैं आप की कहानियों का प्रशंसक हूँ । चाहे आपकी कहानी ‘ बंजर आकाश ‘ हो या ‘ सूखी नदी ‘ हो , आप जीवन की बारीकियों को बड़ी कुशलता से पकड़ते हैं । हमारे जीवन में व्याप्त असुरक्षा और मृत्यु के भय को आपकी कहानियाँ बड़ी बारीकी से उकेरती हैं । कई बार ऐसा लगता है जैसे आपकी कहानियाँ कहानियाँ न होकर कविता का विस्तार हों । आपकी कहानियों में शिल्प के प्रयोग के साथ एक सजल संवेदना बहती है । ” मैंने कहा । वे एक सूखी हँसी हँसे । उसमें आकाश के कई सितारों के टूटकर गिर जाने का दर्द था । उनकी आँखों में कोई मुस्कान नहीं थी । वहाँ भय का अजगर कुंडली मारे बैठा था । भूरा और मटमैला भय । ” लेकिन आज आपसे मिलने आने का मेरा मक़सद दूसरा है । मैं आपसे उस चश्मे के बारे में जानना चाहता हूँ जो आपके परिवार के पास कई पीढ़ियों से है । यदि आपको ऐतराज़ न हो तो ।” मैं बोला । थोड़ी देर हमारे बीच एक स्याह ख़ामोशी बिखरी रही । ” कहाँ से शुरू करूँ ?” आख़िर ख़ुद को सहेजते हुए वे बोले — ” 1850 के आस–पास मेरे एक पूर्वज को एक कबाड़ी वाले की दुकान से यह चश्मा मिला । वे उन दिनों दिल्ली के चाँदनी चौक इलाक़े में रहते थे । उन्हें पुरानी और अजीब चीज़ों को इकट्ठा करने का शौक़ था । कबाड़ी वाले से ले लेने के बाद साल–छह महीने यह चश्मा यूँ ही कहीं दबा पड़ा रह गया । एक दिन कुछ ढूँढ़ते हुए मेरे इस पूर्वज को यह चश्मा दोबारा मिल गया । उसे साफ़ करके जब उन्होंने अपनी आँखों पर लगाया तो तो वे दंग रह गये । यह कोई साधारण चश्मा नहीं था । इसे पहन कर उन्हें अजीब–अजीब दृश्य और छवियाँ दिखती थीं । मानो वे ख़ून–ख़राबे या मार–काट वाली कोई फ़िल्म देख रहे हों । हालाँकि उस समय फ़िल्म जैसी कोई कोई चीज़ ईजाद नहीं हुई थी । इस चश्मे से दिखने वाले कई दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाले थे । ” मेरे यह पूर्वज ठीक से समझ नहीं पाए कि आख़िर माजरा क्या है । हालाँकि बाद में 1857 की क्रांति के समय जो दर्दनाक घटनाएँ घटीं उन से जोड़ कर देखने पर उन्होंने पाया कि उनका चश्मा उन्हें ये दृश्य तो कई साल पहले दिखा चुका था । और तब जा कर वे इस नतीजे पर पहुँचे कि यह चश्मा भविष्य में होने वाली घटनाओं के बारे में बताता था । ” एक बात और । मेरे यह पूर्वज जब भी यह चश्मा पहनते, उसके बाद कई दिनों तक उनकी आँखों में असह्य दर्द रहता और उनकी आँखों से ख़ून गिरता रहता । “ वह तवे पर जल गई रोटी–सी काली रात थी जब मैंने उनसे पूछा — ” क्या आपके इस पूर्वज ने किसी को इस चश्मे का सच बताने की कोशिश नहीं की ? “ ” कई बार की । लेकिन लोग उन्हें सनकी और पागल समझने लगे । लोग कहने लगे कि बुड्ढा सठिया गया है । उनका पूरा जीवन एक लम्बा सिर–दर्द बन गया । हार कर उन्होंने इस चश्मे की सच्चाई दूसरों को बताने की बात मन से निकाल दी । उन्होंने इस चश्मे को एक पेटी में बंद करके अँधेरी कोठरी में डाल दिया ।“ ” लेकिन … ।” मैंने कुछ कहना चाहा । ” मुझे बीच में ही टोकते हुए वे बोले — ” आप ही बताइए , वे और क्या करते ? उस ज़माने में यदि कोई आप से कहता कि उसके पास भविष्य देखने वाला चश्मा है तो क्या आप भी उसे सिरफिरा नहीं कहते ?” मैंने हाँ में सिर हिलाया । वह ठंड में हो रही बारिश में भीगते कुत्ते–सी बेचारी रात थी जब उन्होंने अपनी बात दोबारा शुरू की — ” आख़िर अपनी मृत्यु–शय्या पर पड़े मेरे इस पूर्वज ने उस चश्मे का राज अपने बेटे यानी मेरे परदादा जी को बताया । यह चश्मा पा कर परदादाजी की मुसीबतें भी बढ़ गईं । उनके पास एक ऐसा राज़ आ गया है जिस पर किसी को यक़ीन नहीं था । ” मेरे परदादा जी ने एक काम किया । उन्होंने अपने यार–दोस्तों को बुलाया और उन्हें वह चश्मा पहना कर अपनी बात को प्रमाणित करने की कोशिश की । लेकिन विधि को कुछ और ही मंज़ूर था । उनके किसी भी दोस्त को चश्मा पहनने पर भी कुछ भी अजीब नहीं दिखा । परदादाजी की परेशानी बढ़ गई । ” उन्हीं दिनों एक दिन परदादाजी के पाँच साल के बेटे यानी मेरे दादाजी और उनके नन्हे दोस्तों ने यह चश्मा चुरा कर कौतूहलवश उसे पहन लिया । उन बच्चों को वे सारे दृश्य और छवियाँ दिखने लगीं जो भविष्य में होने वाली घटनाओं से संबंधित थीं । पाँच साल के मेरे दादाजी और उनके साथी चकित हो गए । उन्होंने वह चश्मा ला कर परदादाजी को वापस कर दिया और उन्हें सारी बात बताई । बच्चों ने मार–काट वाले दृश्यों की निंदा की । […]